सोमवार, 3 नवंबर 2025

गुरु का गुरुत्व

 गुरु का गुरुत्व

हमारी भारतीय संस्कृति में गुरु का बहुत महत्त्व बताया गया है। 'आचार्य देवो भव' कहकर गुरु को देव तुल्य माना है। माता-पिता बच्चे को जन्म देते हैं परन्तु उसे ज्ञान देने का कार्य गुरु करता है। गुरु अपने शिष्य का सर्वांगीण विकास करता है। शिष्य अपने गुरु को पिता मानकर मान लेता है। गुरु को निम्न श्लोक में परम ब्रह्म कहा है -
        गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुः गुरुर्देवो महेश्वरः।
     गुरुः साक्षात् परब्रह्म तस्मै श्री गुरवे नमः।।
अर्थात् गुरु ब्रह्मा है, गुरु विष्णु हैं, गुरु शिव है, गुरु ही साक्षात परम ब्रह्म है। ऐसे गुरु को मैं प्रणाम करता हूॅं।
          दूसरे शब्दों में यह श्लोक गुरु की महत्ता और सर्वोच्चता को व्यक्त करता है। वह अपने शिष्य को अज्ञान से ज्ञान और अन्धकार से प्रकाश की ओर ले जाता है। गुरु की प्रशस्ति में गाए गए अनेक श्लोक हमारे ग्रन्थों में उपलब्ध है। 
              गुरु शब्द अपने में बहुत ही गम्भीर अर्थ समेटे हुए है। गुरु अपने गुरुत्व के कारण महान होता है। वास्तव में गुरु कहलाने का उसे अधिकार होता है जो सदा अपने शिष्य का हित साधता है। गुरु अपने साथ-साथ शिष्य का इहलोक व परलोक सुधारने के लिए सदैव यत्नशील रहता है। शिष्य यदि अपने गुरु से योग्यता में आगे निकल जाए तो उसे वास्तव में प्रसन्नता होती है। गुरु को अपने शिष्य से कभी ईर्ष्या नहीं होती। वह अपनी सन्तान के समान उसकी शिक्षा-दीक्षा करता है।
           गुरु और गुरुडम में बहुत अन्तर होता है। यही अन्तर मैं आप मित्रों को बताना चाहती हूँ। उन सभी तथाकथित गुरुओं को गुरु की पदवी से कदापि सुशोभित नहीं किया जा सकता है जो गुरु शब्द के मायने ही नहीं जानते। वे गुरु कहलाने के योग्य नहीं हैं जो अपने शिष्यों को अपरिग्रह का पाठ पढ़ाते हैं और स्वयं दिन-प्रतिदिन उन लोगों को बहका-फुसला कर सुख-समृद्धि के साधन जुटाते हैं। जायज-नाजायज तरीकों से एक के बाद एक अपने लिए वे आश्रमों का निर्माण करते जाते हैं। धन-दौलत के अम्बार लगाते जाते हैं। लोगों की परिश्रम की कमाई से वे अनेक मंहगे वाहनों की लाइन लगाते जाते हैं।।
             आज के इस भौतिकतावादी युग में गुरु कहलाने वालों की आपस में होड़ रहती है। दूसरों से स्वयं को बड़ा दिखाने के लिए छल-प्रपंच का सहारा लेते हैं। ऐश्वर्यों की बढ़ोत्तरी के लिए ये जुगत भिड़ाते रहते हैं। वे सोचते हैं कि इस प्रकार के कृत्यों को करके वे महान गुरुओं की श्रेणी में आ जाएँगे परन्तु यह उनकी भूल है। कदाचार के कारण आजकल ऐसे तथाकथित गुरुओं का समाचार पत्रों, टीवी व सोशल मीडिया की सुर्खियों में रहना, इसी का ही परिणाम है। आज बहुत से ऐसे गुरु न्याय व्यवस्था के दोषी बनकर कारागार में अपने कुकर्मों की सजा काट रहे हैं।
            गुरु धारण करने से पहले अच्छी तरह से सोच-विचार करना चाहिए। मात्र चमक-दमक देखकर किसी तथाकथित गुरु से प्रभावित नहीं होना चाहिए। उनको ज्ञान तथा उनके आचरण की कसौटी पर परखना चाहिए। यदि वे इस कसौटी पर खरा उतरें तभी उन्हें गुरु बनाना चाहिए अन्यथा नहीं। गुरु को परखने की कसौटी यही है कि वह मन, वचन और कर्म से एक होना चाहिए अर्थात् उसकी कथनी और करनी में बिल्कुल अन्तर नहीं होना चाहिए।    
            महाभारत के उद्योगपर्व में महर्षि वेदव्यास ने हमें स्पष्टत: समझाया है कि कैसे गुरु का त्याग करना चाहिए-
      गुरोरप्यलिप्तस्य    कार्याकार्यमजानत:।
       उत्पथप्रतिपन्नस्य परित्यागो विधीयते॥
अर्थात् दम्भी, कार्य-अकार्य को न जानने वाला, कुपथगामी गुरु का परित्याग करना चाहिए।
          इन दोषों से युक्त गुरु को महर्षि वाल्मिकी ने 'वाल्मीकि रामायण' में दण्ड देने का विधान किया है। हम कह सकते हैं कि गुरु यदि ढोंगी हो, कामुक हो, व्यभिचारी हो, समाज विरोधी गतिविधियों में लिप्त हो, ज्ञान से अधिक भौतिक ऐश्वर्यों को बटोरने वाला हो तो ऐसे गुरु का सर्वथा परित्याग कर देना चाहिए। यह सत्य है कि उसकी शरण में जाने से जन साधारण का उद्धार नहीं हो सकता। अतः इस पर विचार अवश्य करना चाहिए।
            यदि शिष्य मोहवश अपने गुरु का त्याग न करना चाहे तो उसमें इतनी सामर्थ्य होनी चाहिए कि वह अपने गुरु को सन्मार्ग पर ला सके। जब गुरु मछन्दरदास जी राह भटक गए थे तब उनके शिष्य गोरखनाथ जी संसार के जंगल में भटके गुरु को वापिस लेकर आए थे। आज गोरखनाथ जी जैसे शिष्य ढूँढने से भी नहीं मिलते। वे गुरु धन्य हैं जिन्हें ऐसे योग्य शिष्य ईश्वर की कृपा से मिल जाएँ। उस गुरु का जीवन भी सफल हो जाता है।
          आँख मूँदकर हर किसी को ही गुरु मानकर उस पर भरोसा करना कदापि उचित नहीं है। गुरु बहुत महान व्यक्तित्व होता है। सद् गुरु का मिलना बहुत ही कठिन होता है परन्तु यदि आज के युग में ऐसा गुरु मिल जाए तो समझिए अपना जीवन सफल हो गया।   
चन्द्र प्रभा सूद 

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