गुरुवार, 13 नवंबर 2025

भाग्यवश अनेक लोगों से सम्पर्क

भाग्यवश अनेक लोगों से सम्पर्क 

जीवन में हमारा सम्पर्क जाने-अनजाने अथवा चाहे-अनचाहे बहुत से लोगों से होता है। उनमें से कुछ लोग हमारे प्रिय बन जाते हैं और कुछ लोगों को ढोना हमारी मजबूरी बन जाती है। इस बात को हम इस प्रकार कहा सकते हैं कि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। वह बिल्कुल अकेला नहीं रह सकता। उसे हर कदम पर सहयोग की आवश्यकता पड़ती है। फिर वहॉं प्रिय-अप्रिय वाली बात कहॉं से आ जाती है? इस विषय पर यदि हम विचार करने बैठें तो शायद इस सबका कारण हमें समझ में आ सकता है।
             घर-परिवार, माता-पिता, भाई-बहन और नाते-रिश्तेदार हमें हमारी इच्छा से हमें नहीं मिलते बल्कि उपहार के रूप में मिलते हैं। पड़ोसियों का चुनाव भी हम नहीं कर सकते। यानी सभी सम्बन्ध हमें हमारे पूर्वजन्म कृत कर्मों के अनुसार ही मिलते हैं। हम मानते हैं कि ये सभी सुख-दुख व लेन-देन के सम्बन्ध हैं। पूर्वजन्मों में हमें किसका देना है या किससे लेना है, किसी को हमने कष्ट दिया या किसी ने हमें कष्ट दिया, उन सब कर्मों का भुगतान इसी जन्म में करना होता है।
           इस बात को हम इस प्रकार समझ सकते हैं। अपने आसपास हमें सब प्रकार के उदाहरण मिल जाएँगे। हम देखते हैं कि किसी परिवार में कोई अपंग बच्चा पैदा हो जाता है जिसकी सेवा सारे परिवार को इच्छा से या अनिच्छा से आजन्म करनी पड़ती है। इसी प्रकार कोई रोगी बच्चा पैदा होता है जिसका इलाज कराने में घर का सब कुछ बिक जाता है। इसका अर्थ यही है कि उनकी सेवा करके या उनका कर्ज चुकाकर ही मनुष्य को अपने उन कृत कर्मों से मुक्ति मिलती है।
             कुछ लोग सारा जीवन मस्त रहते हैं यानी कि कोई जिम्मेदारी नहीं, किसी से कोई लेना नहीं, किसी को कुछ देना नहीं। परन्तु कुछ लोग होश सम्हालते ही किसी भी कारण से जिम्मेदारियों का बोझ उठा लेते हैं और सारा जीवन वे इनसे मुक्त नहीं हो पाते, पिसते रहते हैं। इतना सब करने के उपरान्त भी उन्हें सबकी नाराजगी झेलनी पड़ती हैं। अपने ही बन्धु-बान्धव उन पर आरोप लगाते नहीं थकते। वे अपने लिए किए गए उनके कार्यों की कभी सराहना नहीं करते और न ही उनका अहसान मानते हैं।
        पड़ोसियों के सम्बन्ध में भी हम ऐसा ही कह सकते हैं। कई लोगों को पड़ोसी ऐसे मिलते हैं जो अपने सगे सम्बन्धियों से भी बढ़कर होते हैं। वे एक-दूसरे का ध्यान अपने परिवारी जनों की तरह रखते हैं। उनके सुख-दुख साझे हो जाते हैं। कुछ लोगों को ऐसे पड़ोसी मिल जाते हैं जिनके साथ किसी-न-किसी बात पर उनकी टकराहट हो जाती है। गाहे-बगाहे उनके साथ तू-तू, मैं-मैं होती रहती है। उन लोगों का परस्पर छत्तीस का ऑंकड़ा रहता है। पास से निकल जाते हैं पर हाय, हैलो तक करना पसन्द नहीं करते।
            हाँ, मित्र हम स्वयं बनाते हैं। उनका चुनाव हम स्वेच्छा से करते हैं। पर यहाँ भी पूर्वजन्म के सम्बन्धों का आधार ले सकते हैं। पूरे विश्व अथवा देश की बात नहीं कर रही। हॉं, जहाँ पर हम रहते हैं, पढ़ते हैं या कार्य करते हैं, वहाँ भी तो बहुत सारे लोग होते हैं, उन सभी लोगों में से उसी खास व्यक्ति के साथ ही हमारा मित्रता का सम्बन्ध क्यों बनता है, अन्यों के साथ क्यों नहीं? यह वास्तव में विचारणीय विषय है।
           कभी-कभी राह चलते कोई अनजान व्यक्ति हमें अच्छा लगने लगता है और कभी-कभी किसी ऐसे व्यक्ति को देखकर हम नफरत करते हैं जिससे हमारी जान-पहचान तक नहीं होती। चलते-चलते कभी-कभी किसी से टकराराना कष्टदायी हो जाता है, जीवन भर के लिए नासूर बन जाता है। इसके विपरीत कभी-कभी अचानक हुई मुलाकात जीवन भर के लिए मीठी यादें छोड़ जाती है। यदा कदा ऐसे संयोगों से नए सम्बन्ध भी बन जाते हैं।
             स्कूल कालेज में पढ़ते हुए हम अनेक अध्यापकों व बच्चों से मिलते हैं। पता नहीं वे कहाँ से आए होते हैं। उनके साथ कुछ तो पूर्वजन्म का सम्बन्ध होता है जो इस प्रकार उन लोगों से मिलना होता हैं। ऐसे ही हम अपने कार्यक्षेत्र के विषय में भी कह सकते हैं। वहॉं पर कार्य करने वाले लोग प्रायः विभिन्न स्थानों से आए होते हैं। उनके साथ हमारा मेल-मिलाप होता है। उनके साथ हम अपना भोजन शेयर करते हैं। बहुत बार उनके साथ मित्रता प्रगाढ़ हो जाती है। वे हमें हमारे बन्धुवत् हो जाते हैं।
          हम सभी धर्म भीरु लोग हैं। इसीलिए यह कहकर लोग सन्तोष कर लेते हैं कि सब भाग्य का खेल है। भाग्य में जो कुछ लिखा है उसे भोगना ही है, उससे छुटकारा सम्भव नहीं है। चाहे उसे हम हंसते हुए भोगें या रोकर। यह भोग भोगना हमारी नियति बन जाती है। हमारे साथ इन लोगों का सम्बन्ध जुड़ने का कारण भी यही है कि हम अपने पूर्वजन्मो में अच्छे या बुरे जो भी कर्म करके आते हैं, उनको भोगकर ही अगले जन्म के लिए नए पड़ाव की ओर प्रस्थान करना पड़ता है।
चन्द्र प्रभा सूद 

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