गुरुवार, 6 नवंबर 2025

दूसरों के महल से ईर्ष्या नहीं

दूसरों के महल से ईर्ष्या नहीं 

दूसरों के सुन्दर महल देखकर ईर्ष्या करके अपने मन को अकारण व्यथित नहीं करना चाहिए। मनुष्य देश या विदेश कहीं भी घूमने जाए, वापिस तो उसे अपने घर ही आना होता है। अपना घर चाहे महल हो या झोंपड़ी हो, वहीं पर आकर मनुष्य को शान्ति मिलती है। किसी मनुष्य को उसके भाग्य से ज्यादा और समय से पहले कुछ नहीं भी मिलता। यदि भारतीय संस्कृति की इस थ्योरी पर हम विश्वास करते हैं तो भी हमें अनावश्यक रूप से दूसरों की उन्नति और अपनी तंगहाली पर शर्मिन्दा नहीं होना चाहिए।
           कोई भी इसे उचित नहीं कहेगा कि दूसरे का महल देखकर हम अपने झोंपड़े को अग्नि के हवाले कर दिया जाए। रहना तो हमें अपने घर में ही होता है। कबीरदास जी ने हमें समझाते हुए निम्न दोहे में कहा है-
      देख पराई चौपड़ी मत ललचावीं जी।
      रुखी सुखी खाए के ठण्डा पानी पी॥
अर्थात् दूसरों के ऐश्वर्य को देखकर अपना मन को नहीं ललचाना चाहिए। अपने भाग्य अथवा पुरुषार्थ से जो भी रूखा-सूखा मिले उसे खाकर और ठण्डा पानी पीकर सन्तोष करना चाहिए। 
            यह दोहा व्यक्ति को अपने पास जो है उसी में सन्तुष्ट रहने की शिक्षा देता है। लालच करने का कोई लाभ नहीं होता क्योंकि लालच एक बुरी बला है। इस लालच के फेर में पड़ने से मन सदा परेशान रहता है।
            कोई कितने व्यंजन खाता है? कोई कितने प्रकार के सुखों का भोग करता है? किसी के पास कितनी गाड़ियाँ हैं? कितने नौकर-चाकर हैं? इस सबको नगण्य (इग्नोर) करते हुए मनुष्य को सदा अपने पुरुषार्थ पर विश्वास करना चाहिए। जो भी हम प्राप्त करना चाहते हैं, उसके लिए ईमानदारी से प्रयत्न करना चाहिए। निस्सन्देह बारबार प्रयास करने और ईश्वर के न्याय पर भरोसा करके ही मनुष्य सदैव अपना मनचाहा प्राप्त सकता है। इसलिए स्वयं पर भरोसा रखना चाहिए।
             यह बात तो स्पष्ट है कि अपने पूर्वजन्म कृत कर्मों के फलस्वरूप भाग्य से जो भी हमें मिलता है, उसी पर सन्तोष करते हुए ईश्वर का धन्यवाद करना चाहिए। अनावश्यक ही भाग्य को कोसने अथवा उस मालिक को दोष देने से कुछ भी नहीं होने वाला। वह परमेश्वर बड़ा ही न्यायकारी है। किसी के साथ वह न अन्याय करता है और न ही पक्षपात करता है। इसलिए उसके न्याय पर तनिक भी सन्देह नहीं करना चाहिए। सभी जीवों को वह समभाव से देखता है।
          हम जो भी अच्छे या बुरे कर्म करते हैं, उसी के अनुसार ही हमें फल मिलता है। कारण यह है कि कर्म करने में हम स्वतन्त्र  हैं। जब हम सत्कर्म करते हैं तब ईश्वर को धन्यवाद देते हैं। परन्तु जब हम कुकर्म तब हम अपने मन के राजा होते हैं। उस समय हमें किसी से डर नहीं लगता। हम सारी दुनिया को अपनी मुट्ठी में करने, उसे आग लगा देने आदि की बात करते हैं। किसी की जान ले लेना, किसी का अपमान करना तो खेल बन जाता है। उस समय हम भूल जाते हैं कि इन सब का परिणाम भुगतना पड़ता है। सांसारिक न्यायालय से प्रमाणों के अभाव में बरी हो सकते हैं पर उस परम न्यायाधीश की अदालत से सजा पाए बिना नहीं बच सकते। क्योंकि वहाँ किसी गवाह या सबूत की आवश्यकता नहीं होती।
           इसीलिए ऋषि-मुनि और विद्वान सभी हमें हर कदम सम्भाल कर रखने का परामर्श देते हैं। यदि समय रहते हम चेत जाएँ तो उस प्रभु के कोप भाजन बनने से बच सकते हैं। तब उसकी बेआवाज लाठी हमें दुखों की ओर नहीं ले जाएगी। अपनी सुख-समृद्धि के रास्ते का रोड़ा हम स्वयं हैं। जब हम समाज विरोधी गतिविधियों में लिप्त होते हैं तभी उनका परिणाम न चाहते हुए दुखों के रूप में ही भुगतते हैं। हम अभावग्रस्त जीवन जीने के लिए विवश हो जाते हैं। 
            यही कारण है कि संसार में हमें इतनी असमानता दिखाई देती है। कोई मनुष्य बहुत सुन्दर है, कोई व्यक्ति उच्च शिक्षा से युक्त है, कोई मृत्यु पर्यन्त स्वस्थ रहता है, कोई अपने जीवन में सभी सुविधाओं का भोग करता है, किसी के बच्चे योग्य और आज्ञाकारी हैं, कोई उच्च पद पर आसीन है, कोई धन-सम्पत्ति से युक्त है और कोई हर प्रकार से सुखी जीवन जीता है।
           इसके विपरीत कोई मनुष्य कुरूप है, कोई दो जून की रोटी भी नहीं खा सकता, कोई जन्मजात रोगी है, किसी को जीवन भर लानत-मलामत ही झेलनी पड़ती है, किसी का परिवार युद्ध का मैदान बना रहता है, कोई विपन्न स्थिति में रहता है और कोई आजीवन अभावों में एड़ियाँ रगड़ते हुए मर जाता है।
           हमें सदा अपने कर्मों की शुचिता पर ध्यान देना चाहिए दूसरों से कभी ईर्ष्या-द्वेष नहीं करना चाहिए। उनकी समृद्धि को देख यथासम्भव सत्कार्यों की ओर प्रवृत्त होना चाहिए ताकि आगामी जन्मों हमें भी मनचाहे ठाठ मिल सकें। तब हम हर प्रकार की सुख-सुविधाओं का भोग कर सकें।
चन्द्र प्रभा सूद 

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