भावनाओं का क्षणिक आवेग
भावनाओं के क्षणिक आवेश में बहकर हम किसी और का नहीं स्वयं का ही नुकसान कर लेते हैं। यह आवेग एक प्रकार से ज्वर(बुखार) के समान होता है जिसके ताप में जलते हुए हम स्वयं ही कष्ट प्राप्त करते हैं। इससे बाहर निकलने का रास्ता भी हमें स्वयं ही खोजना होता है।
हम आवेश में क्यों आ जाते हैं? यह हमारा नुकसान क्यों और किसलिए करता है? इन प्रश्नों को हल करना बहुत आवश्यक है।
एक कहानी पढ़ी थी कि एक ब्राह्मण और ब्राह्मणी अपने छोटे से बच्चे के साथ किसी गाँव में रहते थे। उनकी आर्थिक स्थिति कुछ अच्छी नहीं थी। एक बार ब्राह्मणी स्नान करने के लिए नदी पर गई तो ब्राह्मण को शिशु की देखभख के लिए कहकर गई। ब्राह्मणी के जाने के बाद ब्राह्मण को श्राद्ध लेने के लिए राजमहल से न्योता आया।
अब वह परेशान हो गया कि वह बच्चे को कहाँ छोड़कर जाए? ऐसा सोचते हुए उसके मन में विचार आया कि अपने पुत्र की तरह पाले हुए नेवले को बच्चे की रक्षा में छोड़कर चला जाता हूँ। ऐसा करके वह राजमहल चला जाता है। इसी बीच एक साँप बालक की ओर बढ़ता है। उसे देखकर नेवला उस सॉंप को मार देता है।
जब ब्राह्मण वापिस आता है तो नेवले के मुँह पर लगे खून को देखकर दुखी होता है। उसे ऐसा लगता है कि इस नेवले ने मेरे बच्चे को मार दिया है। ब्राह्मण उसे उसी क्षण मार देता है। पर घर के भीतर जाकर साँप को मरा हुआ देखता है तो सब समझ जाता है। अपने पर परोपकार करने वाले नेवले को मारकर पश्चाताप करता है।
इसी प्रकार क्षणिक आवेश में आकर हम अपनों को स्वयं से दूर कर लेते हैं। उस समय हम कहते हैं कि जीवन भर इसकी शक्ल नहीं देखेंगे। घर-परिवार में किसी की जरा सी गलती या स्वयं में हुई गलतफहमी के कारण किसीका त्याग कर देना समझदारी नहीं कहलाती।
इसी प्रकार दोस्तों में कभी-कभी होने वाले मनमुटाव के कारण अपने प्रिय दोस्तों से जानलेवा दुश्मनी तक लोग निभाने लगते हैं।
नौकरी अथवा व्यापार के क्षेत्र में भी यदाकदा अपरिहार्य कारणों से मतभेद हो जाते हैं। इसका यह अर्थ कदापि नहीं कि हम उन लोगों को अपना शत्रु ही मानकर बैठ जाएँ।
यह आवेश हमारे सोचने-समझने की शक्ति का शत्रु होता है। जरा-सा गुस्सा आने पर हम अपने वश में नहीं रहते और दूसरे को दोषी मानते हुए उससे किनारा कर लेते हैं। चाहे उसके लिए बाद में मन-ही-मन कितना ही दुखी व परेशान क्यों न होना पड़े। हम कठोर बनकर दुनिया को अपने फैसले पर डटे रहते हुए दिखाना चाहते हैं। अपनी नाक नीची न हो जाए इस के लिए हमें चाहे कितनी ही हानि क्यों न उठानी पड़ जाए पर हमारी जिद्द पूरी हो जानी चाहिए।
इस आवेश से हम बच सकते हैं यदि पुनर्विचार कर लें तो। ईश्वर ने मनुष्यों को बुद्धि का वरदान इसीलिए दिया है जो हमें सृष्टि के सभी जीवों से विशेष बनाता है। यदि हम इस नेमत का सदुपयोग नहीं करेंगे तो मनुष्यों और पशुओं में कोई अन्तर नहीं रह जाएगा। मनुष्य अपने विवेक से काम लेकर बहुत से अनावश्यक कष्टों से बचकर निकल सकता है। 'हितोपदेशम्' ग्रन्थ में में नारायण पण्डित हमें समझाते हुए कहते हैं-
अविवेक: परमापदां पदम्।
अर्थात् अविवेक सभी मुसीबतों की जड़ है। अत: अपने सभी निर्णय विवेक से लेने चाहिए। बातचीत का रास्ता हमेशा खुला रखना चाहिए जिससे हमें अपनों से दूर रहकर उनके वियोग में वर्षों तक घुलना न पड़े।
चन्द्र प्रभा सूद
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