स्त्री लेखकों की समस्याऍं
स्त्री लेखकों को अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। हमारी सामाजिक संरचना ही कुछ इस प्रकार की है कि घर-परिवार का दायित्व स्त्री पर ही होता है। प्राय: पुरुष घरेलू कार्यों में पत्नी का हाथ बटाना अपनी शान के खिलाफ समझते हैं।
आज भौतिकावादी युग में स्थितियाँ बदल गई हैं। प्राय: स्त्रियाँ घर के बाहर जाकर कार्य करती हैं। कुछ महिलाएँ नौकरी करती हैं और कुछ अपना व्यवसाय। घर और बाहर की जिम्मेदारियों को सम्भालने में अधिकांश समय व्यतीत हो जाता है। इसके अतिरिक्त घर-परिवार और बन्धु-बान्धवों के सुख-दुख में साथ निभाना होता है।
इन सब परिस्थितियों के चलते लेखन के लिए स्त्री को समय बहुत कठिनता से मिल पाता है। यदि घर के सदस्यों का कुछ सहयोग मिल जाए तो उनका सौभाग्य अन्यथा मुसीबतों की शुरूआत और कटाक्षों का दौर।
लेखन साधना है जिसे साधकर लेखक, लेखिका या कवि, कवयित्री दिशादर्शन का कार्य करते हैं। स्त्री रचनाकार को अपना कदम फूँक-फूँक कर रखना चाहिए। जो जितनी साधना करेगी वह उतनी ही महान रचनाकार होगी। युगों-युगों तक उसका नाम इतिहास में स्वर्णिम अक्षरों में लिखा जाएगा।
साधना शब्द का मैंने प्रयोग किया है जिसका तात्पर्य है कि स्त्री रचनाकार को अधिक से अधिक स्वाध्याय करना चाहिए। अपने सद् ग्रन्थों व पुरातन रचनाकारों की रचनाओं के साथ-साथ समकालीन लेखकों का गहनता से अध्ययन करना चाहिए। यदि वह ऐसा करती है तो उसके साहित्य को पढ़ने वाले को आत्मिक सन्तोष मिलता है।
पूर्व जीवन में डाकू रहे महर्षि वाल्मीकि ने घर-घर में पूजनीय भगवान राम के चरित को लिखा। महामूर्ख कहे जाने वाले कालिदास विद्वानों की संगति में रहकर प्रकाण्ड पण्डित बने। महाकवि बनकर कालिदास ने कालजयी ग्रन्थ लिखे जो विश्व की अनेकानेक भाषाओं में अनूदित हैं। गुरुकुल में ज्ञान न प्राप्त कर पाने पर घर जाते समय कुऍं में रस्सी के निशान को देखकर, परिश्रम का मन्त्र लेकर बोपदेव ने अध्ययन किया। विद्वान बनकर इन्होंने व्याकरण की रचना की और महान बन गए। ये और अनेकों अन्य रचनाकार स्वाध्याय की बदौलत महान बने जिनका नाम हम सदैव श्रद्धा से लेते हैं।
आज नवोदित लेखकों, लेखिकाओं व कवियों, कवयित्रियों में इतनी भी सहनशीलता नहीं है कि वे साहित्य साधना करें। वे अपने अतिरिक्त दूसरों को साहित्यकार ही नहीं मानते। न ही वे किसी अन्य रचनाकार की रचनाओं या पुस्तकों को पढ़ना ही चाहते हैं।
काव्य लिखने वाले नवोदित कवयित्रियों को प्रायः छन्द, अलंकार, लय, गति, यति व गेयात्मकता आदि के विषय में जानकारी ही नहीं है। उन्हें यह भी ज्ञान नहीं होता कि काव्य को समृद्ध कैसे बनाया जाता है? काव्य का भी अपना एक अनुशासन होता है जिसका पालन करना चाहिए। कुछ लोगों को पुस्तक छपवाने की जल्दी रहती है चाहे एक पुस्तक लायक रचनाएँ भी न हों। कभी-कभी ऐसा लगता है कि ये सभी लोग रातोंरात महाकवि की श्रेणी में आ जाएँगें।
आज की स्त्री रचनाकारों की साधना न होने के कारण बहुत-सी ऐसी महिलाएँ हैं जो भाषा के प्रति संवेदनशील नहीं हैं। उनकी रचनाओं में लिंग, वचन की अशुद्धियाँ बहुधा मिलती हैं। उन्हें वर्तनी (spelling) का भी ज्ञान नहीं होता।
गद्य लिखना पद्य से कठिन माना जाता है। गद्य को साहित्य का निकष यानी कसौटी माना जाता है। लेखकों और लेखिकाओं का साहित्य भी तभी समृद्ध होता है जब उसमें लेखक या लेखिका की साधना की स्पष्ट झलक दिखाई देती है। वास्तव में काव्य की ही तरह गद्य का भी अपना अनुशासन होता है।
एक-दूसरे का सामना होने पर प्रशंसा करना पर पीठ पीछे सबको गाली-गलौच करने से कोई साहित्यकार नहीं बन सकता। जो स्त्री अच्छा मनुष्य नहीं बन सकती वह कदापि अच्छी लेखिका नहीं हो सकती। दूसरों पर अपनी छाप छोड़ने के लिए स्त्री रचनाकार का स्वयं का जीवन भी क्रियात्मक होना चाहिए।
पीत पत्रकारिता की चर्चा सोशल नेटवर्क, पत्र-पत्रिकाओं, टीवी आदि पर यदा कदा होती रहती है। उसी प्रकार रचनाओं की चोरी की घटनाएँ भी प्रकाश में आती रहती हैं। इनके कारण न्यायालयों में केस किए जाने के समाचार भी प्राप्त होते रहते हैं। इसका शिकार बहुत से लोग होते रहते हैं। इस चक्कर को छोड़कर उन्हें अपने लेखन की ओर ध्यान देना चाहिए।
ये कुछ संकेत हैं स्त्री रचनाकारों के लिए। इसके साथ यह भी जोड़ना चाहती हूँ कि यदि रचना केवल फूहड़ता-अश्लीलता लिए होती है तो साहित्य की श्रेणी में कदापि नहीं आती। ऐसा साहित्य कदापि सम्मानजनक नहीं होता जिसे छिप-छिपा कर पढ़ना पढ़ा जाएगा या बेचा जाए।
समाज में बढ़ती विकृतियों को देखते हुए आज स्त्री साहित्यकारों का दायित्व बढ़ जाता है। उनके लेखन में इतना ओज होना चाहिए जो नयी पीढ़ी को दिशा दे सके।
चन्द्र प्रभा सूद
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