रविवार, 30 नवंबर 2025
आकर्षक पैकेजिंग से सावधान
शनिवार, 29 नवंबर 2025
मूर्ख मित्र से शत्रु अच्छा
शुक्रवार, 28 नवंबर 2025
ऑंखों देखी और कानों सुनी
गुरुवार, 27 नवंबर 2025
निठल्ला बैठना सबसे कठिन कार्य
मंगलवार, 25 नवंबर 2025
भावनाओं का क्षणिक आवेग
सोमवार, 24 नवंबर 2025
अपना घर स्वर्ग तुल्य
शनिवार, 22 नवंबर 2025
स्त्री लेखकों की समस्याऍं
शुक्रवार, 21 नवंबर 2025
बगुला भक्त
गुरुवार, 20 नवंबर 2025
हर मनुष्य की प्रकृति अलग
बुधवार, 19 नवंबर 2025
जीवन में धन की उपादेयता
मंगलवार, 18 नवंबर 2025
जीवन साथी को लेकर सपना
सोमवार, 17 नवंबर 2025
घर हमारा सुरक्षा कवच
रविवार, 16 नवंबर 2025
यात्रा संस्मरण
शनिवार, 15 नवंबर 2025
ईश्वर निर्मित प्रकृति बहुत सुन्दर
शुक्रवार, 14 नवंबर 2025
हर पदार्थ उपयोगी
गुरुवार, 13 नवंबर 2025
भाग्यवश अनेक लोगों से सम्पर्क
बुधवार, 12 नवंबर 2025
ईश्वर के पास जाने से मन का घबराना
मंगलवार, 11 नवंबर 2025
सफलता पाकर इतराता अयोग्य व्यक्ति
सोमवार, 10 नवंबर 2025
हर कार्य अपने समय पर
रविवार, 9 नवंबर 2025
डर पर विजय
शनिवार, 8 नवंबर 2025
बच्चे महान समालोचक
शुक्रवार, 7 नवंबर 2025
शिशु से जुड़ी हमारी आकॉंक्षाएँ
शिशु से जुड़ी हमारी आकॉंक्षाएँ
एक नन्हे से शिशु का जन्म जब किसी घर में होता है तब सब लोग बहुत प्रसन्न होते हैं। बच्चा अपने घर में खुशियॉं लेकर आता है। इसलिए बच्चे के जन्म के बाद हम सब उत्सव मनाते हैं। अपने बन्धु-बान्धवों को दावत देते हैं, उनके साथ अपनी प्रसन्नता बॉंटते है। इसका कारण यही होता है कि वह नवागन्तुक हमारे सपनों की एक मूरत होता है। उससे हमारी बहुत सारी आकॉंक्षाएँ और हमारे सपने जुड़े हुए होते हैं। हम लोग उस बच्चे में अपने भविष्य को देखने लगते हैं।
अपने बच्चे को पल-पल बढ़ते हुए देखकर हम उत्साहित होते हैं। उसमें मानो हम अपना बचपन जीने लगते हैं। वह हमारे जीवन का केन्द्र होता है। हमारा सारा जीवन उसके इर्द-गिर्द चक्कर काटता रहता है। उसकी खुशी से हम प्रसन्न होते हैं। यदि उसे जर-सा भी कष्ट हो तो हम परेशान हो जाते हैं। हमारे सपने जो अधूरे रह गए थे, अपने उन सपनों को हम उसके माध्यम से पूरे करना चाहते हैं। उसमें हम अपना भविष्य देखते हैं। वह हमारे इस जीवन का आधार होता है।
अपने बच्चों के लिए सारे सुख-सुविधाओं को जुटाते हुए हमारे मन में यही सोच होती हैं कि जब हम अशक्त होंगे अथवा वृद्ध होंगे तब वह ही हमारी लाठी बनेगा। बड़ा होकर वह हमारा ध्यान उसी प्रकार रखेगा जैसे हम उसका रखते हैं। बच्चे का पालन-पोषण हम उत्साहित होकर करते हैं। उसकी हर इच्छा या जरूरत को पूरा करने के लिए हम अपने जीवन के कष्टों की परवाह नहीं करते। उसकी शिक्षा-दीक्षा का ध्यान रखते हैं। उसे स्थापित करने के लिए अनेक यत्न करते हैं।
दूसरी ओर घर में बैठे बड़े-बजुर्गों से कोई आशा नहीं होती। इसलिए उनकी ओर उतना ध्यान नहीं दिया जाता जितना देना चाहिए। वृद्धावस्था के कारण वे अशक्त हो जाते हैं। उनका स्वास्थ्य गिरने लगता है। वे पहले की तरह अपने कार्यों को उतनी चुस्ती-फुर्ती से नहीं कर पाते। एक प्रकार से वे बच्चों पर आश्रित हो जाते हैं। उन्हें अपने बच्चों के मजबूत कॉंधों का सहारा चाहिए होता है। उस समय उन माता-पिता की देखभाल बच्चों की तरह करने की आवश्यकता होती है।
यहॉं बच्चों का स्वार्थ जुड़ा हुआ नहीं होता। इसलिए उनके जीवन में उनकी कोई उपयोगिता नहीं रह जाती। बच्चों को यही लगता है कि उनके कारण घर में जगह घिरी हुई है। कब वे ऑंख मूॅंदे तो उनकी जगह खाली हो और वे भी उनके दायित्व से मुक्त हो जाऍं। अतः वे उन्हें भार की तरह लगने लगते हैं। यह समय बुजुर्ग माता-पिता के लिए बहुत कष्टकारी होता है। वे अपने बच्चों की ओर आशा भरी नजरों से देखते हैं।
यदि उनके अपने बच्चे भी उनकी ठीक तरह से देखभाल नहीं करेंगे तो फिर वे किससे आशा रख सकेंगे। बहुत से घरों में वे अनचाहे सदस्य की तरह बन जाते हैं। उस समय मनुष्य भूल जाता है कि वे भी उसके माता-पिता हैं। उन्होंने भी अपने उन बच्चों से वैसी ही उम्मीद लगाई थी जैसी वे अपने बच्चों से कर रहे हैं। इस अन्तर को यदि सभी बच्चे समझ लें तो बजुर्गों के प्रति अपने दायित्वों से वे कभी भी मुँह नहीं मोड़ सकेंगे। बुजुर्ग भी स्वयं को अपने ही घर में उपेक्षित नहीं समझेंगे।
एक ही घर में बच्चों और बड़े-बुजुर्गों के प्रति किए गए व्यवहार में इतना अन्तर किया जाता है। यह हर किसी को स्पष्ट दिखाई देता है। विधि का विधान देखिए कि न जाने समय कब करवट बदल लेता है। ये बच्चे बड़े होकर अपना एक अलग ही घोंसला बना लेते हैं। माता-पिता के उन सारे सपनों को और अरमानों को चकनाचूर करते हुए वे अपनी रोजी-रोटी, व्यवसाय अथवा किसी भी अन्य कारण से अपने ही देश में अन्यत्र अथवा विदेश में कहीं भी अपना आशियाना बनाकर चले जाते हैं।
इन्सान चाहे या न चाहे पर अपने बच्चों के उज्ज्वल भविष्य के लिए यह सब तो उसे करना ही पड़ता है। इसके लिए किसी को भी दोष नहीं दिया जा सकता। यह सब तो विधि का विधान है। सब मनुष्य के अन्न-जल पर निर्भर करना है। उसकी कर्मस्थली उसे वहाँ बुला ही लेती है और उस व्यक्ति को चाहे-अनचाहे जाना पड़ता है। उसके पास कोई अन्य विकल्प शेष नहीं बचता। यह सृष्टि का क्रम है कि आज जो बच्चे हैं वे आने वाली पीढ़ी के लिए माता-पिता होंगे। इसी प्रकार उनके बच्चे अपनी भावी पीढ़ी के माता-पिता बनेंगे।
आज की पीढ़ी के माता-पिता एक छतनार वृक्ष की भाँति हैं जो घर-परिवार को छाया और आशीर्वाद की अपनी पूँजी देते हैं। उनकी छत्रछाया में अनेक नए बच्चे रूपी बीज अंकुरित होते हैं। ऐसे उन गहरी जड़ों वाले वृक्षों को भी सहारे की आवश्यकता होती है। अत: उनके प्रति सदा ही सहृदयता का व्यवहार करना हर मनुष्य का कर्त्तव्य है। उनकी उचित देखभाल, उनकी सेवा-सुश्रुषा करना और उनकी दैनन्दिन आवश्यकताओं की पूर्ति करना बच्चों का परम कर्त्तव्य है। इस जिम्मेदारी से मुँह मोड़कर उन्हें अपयश का भागीदार बनने से बचना चाहिए।
चन्द्र प्रभा सूद