रविवार, 30 नवंबर 2025

आकर्षक पैकेजिंग से सावधान

आकर्षक पैकेजिंग से सावधान 

आकर्षक पैकेजिंग को देखकर हम प्रभावित हो जाते हैं और यह मान लेते हैं कि इसके अन्दर रखी वस्तु भी उतनी ही अच्छी क्वालिटी की होगी जितनी यह दिखाई देती है। परन्तु हमेशा ही ऐसा नहीं होता। यहॉं पर बहुधा हम धोखा खा जाते हैं और अपने धन एवं समय की हानि कर बैठते हैं। बाद में हम पश्चाताप करते हैं। तब हम पानी पी-पीकर उन धोखेबाजों को कोसते हैं। यह बात समझनी चाहिए कि पर अपने पैर पर स्वयं कुल्हाड़ी मारने के बाद पछतावा व्यर्थ हो जाता है।
            उस समय हम स्वयं को ठगा हुआ सा महसूस करते हैं। तब हमें इतना क्रोध आता है कि हमें ठगने वाला यदि हमारे सामने आ जाए तो उसका सिर फोड़ दें। परन्तु यह तो समस्या का कोई समाधान नहीं है। आज किसी एक व्यक्ति या संस्था विशेष ने हमें धोखा दिया है तो इसकी क्या गारंटी है कि कोई और उसके झांसे में आकर ठगा नहीं जाएगा। हमें पग-पग पर सतर्क रहने की महती आवश्यकता है। अनावश्यक ही स्वयं को इन धूर्तों के चंगुल में नहीं फंसने देना चाहिए।
           सोशल मीडिया पर, टी. वी.पर, समाचार पत्रों में हमें अक्सर ऐसे विज्ञापन दिखाई देते हैं जो किसी भी व्यक्ति को बहुत अधिक प्रभावित कर लेते हैं। उनमें तरह-तरह के लालच परोसे जाते हैं। उन्हें देखकर लोग उनकी ओर आकर्षित हो जाते हैं। अपनी मेहनत से कमाए गए धन को लुटाकर लोग बर्बाद हो जाते हैं।
            आप लोगों को शायद याद होगा कि कुछ वर्ष पूर्व प्लांटेशन वालों ने सबको बहुत भरमाया था। समयावधि का तो मुझे ध्यान नहीं जिसके पश्चात इन्वेस्ट की गई राशि से कई गुणा राशि लौटाने का वादा किया गया था। उसके बाद सब कहाँ चले गए किसी को पता नहीं। उस समय लोगों अपनी जमा पूॅंजी उस योजना में लगा दी थी। मुझे याद है कि कुछ लोगों ने इस योजना में शामिल होने के लिए अपनी जमीन और अपने घर तक बेच दिए थे। अपने भविष्य को सुरक्षित करने के लिए लोगों को बहुत बड़ी कीमत चुकानी पड़ी थी।
             गली-मुहल्लों में भी बहुत बार ठगने की नियत से लोग आते हैं जो वादा करते हैं कि सोने को दुगना कर देंगे। सोने को दुगना तो क्या करेंगे परन्तु वे ठग कर चले जाते हैं। गृहणियॉं इन धूर्तों की चिकनी-चुपडी बातों में आ जाती हैं और अपना सोना गॅंवा बैठती हैं। वे धूर्त तो पलभर में नौ दो ग्यारह हो जाते हैं। वे महिलाऍं अपनी मूर्खता की कहानी किसी को सुना भी नहीं सकतीं। बस मन मसोसकर रह जाती हैं।
           इसी प्रकार बहुत-सी ऐसी कम्पनियाँ हैं जो उनके पास पैसा इन्वेस्ट करने वालों को बैंक की ब्याज दर से दुगना या तिगुना देने का वादा करती हैं। पर फिर थोड़े दिनों के पश्चात ही आम लोगों की मेहनत की कमाई बटोरकर रातोंरात गायब हो जाती हैं। अब ढूँढ लीजिए उन मक्कारों को। आप बस खोजते रहिए ऐसे दुष्टों को। वे आपके हाथ नहीं लगने वाले। पुलिस में शिकायत कर लीजिए। कुछ नहीं होता। वे लोग जो पहले ही फरार हो जाते हैं। हम कह नहीं सकते कि कब वे न्याय व्यवस्था के हत्थे चढ़ पाते हैं।
            ऐसे ही कई शेयर या डिविडेंड ऐसे भी हैं जिनमें यह पंक्ति लिखी रहती है कि मार्केट रिस्क इसमें रहेगा। सोच-समझकर पैसा इनमें लगाइए। फिर भी लोग धोखा खाते हैं। तो फिर इनमें पैसा इंनवेस्ट करने का तो मुझे कोई औचित्य समझ नहीं आता। बहुधा लोगों को इनमें पैसा लगाकर नुकसान उठाना पड़ता है।
           इसी प्रकार सस्ते व किश्तों पर प्लाट बेचने वाले विज्ञापन भी आकर्षित करते हैं क्योंकि सिर पर छत तो हर व्यक्ति चाहता है। वहाँ लोग पैसा फंसा देते है और जब कब्जा लेने की बारी आती है तो पता चलता है कि वहाँ या तो ऐसी कोई जमीन नहीं जो उन्होंने खरीदी थी या उस जमीन को कई लोगों को बेचा गया है। फिर कवायद शुरू हो जाती है। जो दबंग होगा वह कब्जा कर लेगा। बाकी लोग अपने लुटने का तमाशा खड़े-खड़े देखते रह जाते हैं पर कर कुछ नहीं पाते।
            लोगों को विदेश भेजने का धन्धा भी जोरों पर चलता है। बिना पूरे कागजों के विदेश जाने वालों का क्या हाल होता है इसके उदाहरण हमें अपने आसपास ही मिल जाते हैं। अपनी जमीन बेचकर बहुत से लोग इन धूर्तों को पैसा देते हैं ।विदेश जाकर वे छिप-छिप कर रहते हैं। वे लोग पेट भरने के लिए अपनी योग्यता से भी कम पैसों पर काम करते हैं। कभी-कभी तो उन्हें वहॉं पर न्याय व्यवस्था के दोषी मानकर कारागार की सजा भी भुगतनी पड़ जाती है।
        यह कुछ उदाहरण मैंने लिखे हैं जहाँ फंसकर मनुष्य न घर का रहता है न घाट का। एक व्यक्ति जब अनजाने में इस तरह के प्रलोभनों में फंस जाता है तो ठगे जाने के बाद ही उसे समझ आती कि वह ठगा जा चुका है। उस समय सिर धुनकर रोने या चिल्लाने से कुछ नहीं होता। वे मक्कार लोग अपना काम कर जाते हैं और लोग असहाय होकर न्याय व्यवस्था का दरवाजा खटखटाते हैं। इस बात की कोई गारंटी नहीं कि उनका लगाया हुआ धन उन्हें मिल भी सकेगा या नहीं।
              उस समय यदि कोई साथी या रिश्तेदार उन्हें चेतावनी देने का प्रयास करता है तो उसे वे अपना शत्रु समझते हैं। उन्हें उस समय लगता है कि सभी उसकी तरक्की से जलते हैं। कोई नहीं चाहता कि वह सभी सुख-सुविधाओं से सम्पन्न हो जाए।उस समय वे सोचते हैं कि यह सब प्राप्त करना उनके बूते की बात नहीं है इसलिए ऐसी बातें कर रहे हैं। उनके लिए वे प्रायः इन मुहावरों का प्रयोग करके उनकी हंसी उड़ाते हैं- 'अंगूर खट्टे हैं। और हाथ न पहुँचे थे कौड़ी।'
              तुच्छ लालच में आकर इन धोखेबाजों से बचना चाहिए। अपने खून-पसीने की गाढ़ी कमाई को यूँ ही बरबाद नहीं करना चाहिए।
        बाद में पुलिस स्टेशन में जाकर कितनी ही शिकायतें कर लीजिए पर वे लुटेरे तो लूटकर कर नौ दो ग्यारह हो जाते हैं। उन्हें पकड़ने में वर्षों लग जाते हैं। केवल सरकार या पुलिस के भरोसे न बैठकर स्वयं अपने विवेक पर भरोसा कीजिए। अपने धन को व्यर्थ न गंवाकर उसे अपने पास या बैंक में सम्हाल कर रखना चाहिए ताकि वह धन भविष्य में हमारे सुख-दुख में काम आ सके। इन लोगों के विषय में हम यही कह सकते हैं-
            'ऊँची दुकान फीका पकवान।'
चन्द्र प्रभा सूद 

शनिवार, 29 नवंबर 2025

मूर्ख मित्र से शत्रु अच्छा

मूर्ख मित्र से शत्रु अच्छा

इस कथन से कोई भी मनुष्य इन्कार नहीं कर सकता कि मूर्ख मित्र से शत्रु अच्छा होता है। मूर्ख मित्र अपनी मूर्खता के कारण कब वार कर दे यह कोई नहीं जान सकता। इसका कारण यही है कि ऐसा मित्र स्वयं ही नहीं जानता कि वह क्या कर रहा है? वह जानबूझकर हमारा अहित नहीं करता अपितु अनजाने में उससे गलती हो जाती है। वह अपने ही प्रिय मित्र पर घात तक कर बैठता है और उस मित्र की हानि हो जाती है।
           अपने शत्रु के विषय में हम जानते हैं कि वह तो दुश्मनी निभाएगा ही। उससे हम सदा ही सतर्क रहते हैं। हमारा यही प्रयास रहता है कि शत्रु वार करे उससे पहले हम चौकस हो जाएँ। ऐसा करने से शत्रु के वार का हम पर प्रभाव कम पड़ता है। वैसे तो हमारा यत्न यही रहता है कि उसे ऐसा कोई मौका न दिया जाए कि वह हम पर हावी हो जाए।
           एक कथा प्रचलित है कि किसी राजा ने एक बन्दर को पाला था। उसे वह मित्र की तरह मानता था। वह बन्दर राजा की बहुत सेवा करता था। एक बार राजा सो रहा था और बन्दर उसे पंखा कर रहा था। इतने में एक मक्खी उड़कर राजा के मुँह पर इधर-उधर बैठने लगी। बन्दर उसे उड़ाने का यत्न करने लगा पर वह मक्खी इतनी ढीठ थी कि वह मान ही नहीं रही थी। मक्खी की इस ढिठाई पर बन्दर को क्रोध आ गया और तलवार लेकर उसे मारने के लिए सोचने लगा। इसी बीच राजा की नींद खुल गयी। उसने बन्दर के हाथ में तलवार देखकर सोचा कि मूर्ख मित्र से तो शत्रु ही अच्छा है। यदि मैं समय पर न जागता तो यह मूर्ख बन्दर मुझे मार ही डालता।
        यह कथा हमें समझाने के लिए है कि क्रोध में आकर मूर्ख मित्र कब हम पर वार कर दे पता नहीं चलता। शत्रु के वार करने का तो हमें हमेशा अंदेशा रहता है। सबसे बड़ी बात यह है कि शत्रु को छुपकर वार करने की आवश्यकता नहीं होती। उसका तो खुला चैलेंज होता है।
         अतः इस प्रकार मूर्ख मित्र के हाथों विनाश करवाने से अच्छा है कि शत्रु से ही हाथ मिला लिया जाए और उसे अपना बना लिया जाए।
         मूर्ख को मित्र बनाना चाहें तो अवश्य बनाइए। पर उससे समझदारी की उम्मीद रखना मनुष्य की मूर्खता है। हाँ, अपनी जी हजूरी आप उससे करवा सकते हैं। उसे अपना चमचा बना सकते हैं। अपने बराबर बिठाकर परामर्श नहीं कर सकते। उससे दूरी बनाकर रखने में ही सदा अपनी भलाई समझनी चाहिए।
        आज हम राजनीति में देखते हैं कि एक दल के सदस्य दूसरे दल वालों को अनाप-शनाप कोसते हैं, आरोप-प्रत्यारोप का दौर चलता है और आम जनों के सामने ऐसा  प्रदर्शन करते हैं कि मानो एक-दूसरे को कच्चा चबा जाएँगे। परन्तु जब किसी कारणवश अपना दल छोड़कर कर किसी अन्य दल में जाकर शामिल हो जाते हैं तो कुछ देर पहले वाले सब प्रसंगों को भुलाकर नए दल का गुणगान करते नहीं थकते। अपने पुराने दल के साथियों के साथ वैसा ही व्यवहार करते हैं जो पहले इस दल के सदस्यों के साथ करते थे।
           इस प्रकार रातों-रात सभी समीकरण बदल जाते हैं। जब हमारे पथप्रदर्शक नेता लोग अपने हित के लिए शत्रु को मित्र बनाने में संकोच नहीं करते तो आम जन को भी अपने शत्रु से हाथ मिलाने से बचना नहीं चाहिए। 
          यह हमारे विवेक पर निर्भर करता है कि हम कैसे मित्रों का चुनाव करना चाहते हैं? जैसा रुचिकर हो वैसा मानकर अपने भविष्य के लिए जीवन का मार्ग प्रशस्त करना चाहिए।
चन्द्र प्रभा सूद 

शुक्रवार, 28 नवंबर 2025

ऑंखों देखी और कानों सुनी

आँखों देखी और कानों सुनी 

दूसरे मनुष्य के बारे में कही गई बातों पर ऑंख मूॅंदकर कभी विश्वास नहीं करना चाहिए। उन कही गई बातों की सच्चाई की जॉंच-परख करके ही उन्हें सच मानना चाहिए। इससे भी बढ़कर आँखों देखी और कानों सुनी हुई बात पर भी हमें पूर्णरूपेण विश्वास नहीं कर लेना चाहिए। प्रायः ऐसा होता है कि हम आधी-अधूरी बातें सुनकर ही किसी व्यक्ति विशेष के प्रति अपनी राय बना लेते हैं। उसी के अनुरूप उस व्यक्ति से व्यवहार करने लगते हैं। परन्तु जब वास्तविकता से परिचय होता है तब उसका दुष्परिणाम हमें भुगतना पड़ता है।
           लोग सुनी-सुनाई बातों पर विश्वास करके किसी व्यक्ति के विषय में धारणा बना लेते हैं जबकि वास्तविकता से उसका दूर-दूर तक लेना देना नहीं होता। सच्चाई के सामने आते ही मनुष्य को शर्मिन्दगी उठानी पड़ती है और फिर वह बगलें झाँकने लगता है। ऐसी स्थिति से बचने का प्रयास करना चाहिए।
        आजकल टीवी पर अक्सर यह सब दिखाई देता है। वहाँ किसी वाक्य विशेष पर टीका-टिप्पणी अथवा चर्चाएँ नित्य होती रहती हैं। बाद में संबंधित व्यक्ति यह कहकर अपनी सफाई देता है कि मैंने जो इस वाक्य से पहले कहा था या उसके बाद, सारे प्रसंग को मिलाकर देखिए फिर कथन का अर्थ कीजिए। इस प्रकार कभी-कभी अर्थ का अनर्थ भी हो जाता है।
          सयाने हमें सोच-समझकर बात करने के लिए कहते हैं- 'पहले तोलो फिर बोलो।' यानि कि एक-एक शब्द को इस प्रकार सोचकर बोलो जिससे कोई उन शब्दों को अपने अनुसार ढालकर आपको अपमानित न कर सके। इसी कड़ी में आगे चेतावनी देते हुए कहते हैं- 
        'दीवारों के भी कान होते हैं।'
इसका अर्थ यह नहीं है कि दीवारों के कान  लग गए हैं और उन्होंने ने सुनना शुरु कर दिया है। इसका अर्थ है कि कमरे के बाहर खड़ा हुआ कोई व्यक्ति शायद बात सुन रहा होगा। चोरी-छिपे दूसरों की बातों को सुनने वाले अक्सर गच्चा खा जाते हैं। पूरी बात न सुन पाने के कारण वे अधूरे विचारों को ही ब्रह्म वाक्य मान लेते हैं तथा शत्रुता तक कर बैठते हैं। पूर्वाग्रह पाले हुए वे आजन्म इसे निभाने का प्रयास करते हैं।
        घर-परिवार में, बन्धु-बान्धवों में अथवा कार्यक्षेत्र में हर स्थान पर ही यह समस्या सामने आती है। लोग अपने निजी स्वार्थों की पूर्ति के लिए और एक-दूसरे को नीचा दिखाने के प्रयास में इस प्रकार के कुत्सित कार्यों में लिप्त हो जाते हैं। 
          दूसरों की बातों को तोड़-मरोड़कर अथवा नमक-मिर्च लगाकर किसी व्यक्ति विशेष की छवि घर-परिवार में या साथियों में धूमिल करना चाहते हैं। वे अक्सर भूल जाते हैं कि उन्हीं की तरह कोई अन्य व्यक्ति भी ऐसा घृणित खेल खेल सकता है। इस सबसे बचने के लिए मनुष्य को हर कदम पर सदा सतर्क रहना चाहिए। उसे सदा अपनी आँखों और कानों को खुला रखना चाहिए।
        मनुष्य को किसी के भी मुँह से कोई बात सुनकर तैश में नहीं आना चाहिए। उसे बात की तह तक जाना चाहिए। हो सकता है कि कहने वाले का वह तात्पर्य कदापि न हो जैसा उसने सुन-समझ लिया हो। यदि बात को गहराई से समझने का मन न हो तो उस व्यक्ति से सीधी बात करके तथ्य को जाना जा सकता है। 
        दूसरी बात यह कि दूसरे व्यक्ति को स्पष्टीकरण का मौका भी दिया जाना चाहिए। इससे अनावश्यक मन-मुटाव से बच सकते हैं। ऐसा यदि कर लिया जाए तो आपसी वैमन्स्य नहीं बढ़ता। न अपने मन को कष्ट होगा न दूसरे का दिल दुखता है। ऐसे समझदार व्यक्ति की संसार में सभी लोग सराहना करते हैं कि बड़ी सूझबूझ से समस्या को हल कर लिया।
चन्द्र प्रभा सूद 

गुरुवार, 27 नवंबर 2025

निठल्ला बैठना सबसे कठिन कार्य

निठल्ला बैठना सबसे कठिन कार्य

मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि खाली रहना अर्थात् निठल्ला बैठना दुनिया का सबसे कठिन कार्य है। परिश्रम करते-करते जब थक जाते हैं तब हम कहते हैं कि अब हमें ब्रेक चाहिए। थोड़ा-सा विश्राम करके या फिर घूम-फिर कर हम तरोताजा हो जाते हैं और फिर अपने काम में उसी ऊर्जा से वापिस जुट जाते हैं।
           मैं कभी-कभी उन लोगों के विषय में सोचती हूँ जो सवेरे से शाम तक कोई कार्य नहीं करते। यानी निरुद्देश्य जीवन जीते हैँ। सारे दिन में बस खा लिया और सो गए। बहुत हुआ तो दोस्तों के साथ शापिंग कर ली या फिर क्लब की सैर कर ली। इस प्रकार के जीवन में न कोई जिम्मेदारी होती है और न ही कोई आकर्षण होता है।
        कुछ गृहिणियाँ जो ईश्वर की कृपा से समृद्ध हैं और घर पर रहती हैं। उनके घर में नौकर-चाकर काम करते हैं। उन्हें तो यह भी पता नहीं होता कि बच्चे स्कूल गए हैं या छुट्टी कर गए। उन्होंने कुछ खाया भी है या नहीं। नौकरों ने जो कुछ उल्टा-सीधा बना दिया, वह बच्चे को पसन्द आया या नहीं। उसने वह खाया था क्या? उनका पति अपने व्यापार के लिए कुछ खाकर या बिना खाए कब घर से चला गया? 
          इसी प्रकार जो पुरुष भी खाली बैठे रहते हैं, वे भी अपने जीवन से निराश हो जाते हैं। कुछ लोग ताश खेलकर या व्यर्थ निन्दा-चुगली करके समय व्यतीत करते हैं। नवयुवा जो इधर-उधर डोलते रहते हैं, उन्हें सब टोक देते हैं कि कोई काम-धन्धा करो, अवारा मत फिरो। स्पष्ट बात यह है कि खाली बैठा हुआ कोई भी व्यक्ति सबकी आँखों में खटकता है। अपना कार्य करने में व्यस्त व्यक्ति को ही सब पसन्द करते हैं।
            खाली बैठने के कारण मनुष्य धीरे-धीरे अनावश्यक बीमारियों से ग्रस्त हो जाता है। उसका एक काम बढ़ जाता है, वह काम है रोज डाक्टरों के पास चक्कर काटना। जबकि उनकी बीमारी होती है उनका खालीपन होती है।
            खाली बैठकर अनावश्यक सोचते रहने से मन और शरीर दोनों प्रभावित होते हैं। विचार प्रवाह प्रायः नकारात्मक होने लगता है सकारात्मक नहीं। सयाने कहते हैं कि-
               खाली घर भूतों का डेरा।
अर्थात् खाली पड़ा हुआ घर हमेशा भूतों की निवास स्थली बन जाता है। 
          कहने का तात्पर्य है यह है कि वहाँ उस घर में नकारात्मक ऊर्जा आने लगती है। जब वहाँ चहल-पहल होने लगती है तब स्थितियाँ अलग हो जाती हैं। वही हाल खाली दिमाग का भी होता है। इसीलिए कहते हैं-
           खाली दिमाग शैतान का घर।
यानी कि फालतू बैठे-बैठे सोचते रहने से दिमाग में प्रायः सकारात्मक विचार नहीं आ पाते बल्कि नकारात्मक विचार घर करने लग जाते हैं। उस समय ऐसा लगने लगता है कि मानो मस्तिष्क की नसें फटने लगी हैं। मनुष्य का सारा शरीर बेकार-सा हो रहा है। 
          ऐसी स्थिति में जो स्वयं को सम्हाल पाते हैं वे बच जाते हैं और जिनका अपने ऊपर वश नहीं रहता, वे समय बीतते मनोरोगी बन जाते हैं। नित्य डाक्टरों के चक्कर लगाते हुए वे धन व समय को व्यय करते हैं।
          अपने आप को किसी सकारात्मक कार्य में लगाए रखना चाहिए। जहाँ तक सम्भव हो किसी हाबी में स्वयं को व्यस्त रखना चाहिए। किसी सामाजिक कार्य को करते हुए भी व्यस्त रहा जा सकता है।
        कहने का तात्पर्य है कि इस दिमाग को खाली मत छोड़ो। जहाँ इसे मौका मिलता है, यह तोड़फोड़ करना आरम्भ कर देगा। जितना अधिक यह व्यस्त रहेगा उतना ही खालीपन का या अकेलेपन का अहसास नहीं करेगा। यह कहने का अवसर नहीं मिलेगा कि क्या करे बोर हो रहे हैं। इसे भी खुराक मिलती रहनी चाहिए अन्यथा यह बागी होकर कहर ढाने लगता है।
चन्द्र प्रभा सूद 

मंगलवार, 25 नवंबर 2025

भावनाओं का क्षणिक आवेग

भावनाओं का क्षणिक आवेग

भावनाओं के क्षणिक आवेश में बहकर हम किसी और का नहीं स्वयं का ही नुकसान कर लेते हैं। यह आवेग एक प्रकार से ज्वर(बुखार) के समान होता है जिसके ताप में जलते हुए हम स्वयं ही कष्ट प्राप्त करते हैं। इससे बाहर निकलने का रास्ता भी हमें स्वयं ही खोजना होता है।
           हम आवेश में क्यों आ जाते हैं? यह हमारा नुकसान क्यों और किसलिए करता है? इन प्रश्नों को हल करना बहुत आवश्यक है।
          एक कहानी पढ़ी थी कि एक ब्राह्मण और ब्राह्मणी अपने छोटे से बच्चे के साथ किसी गाँव में रहते थे। उनकी आर्थिक स्थिति कुछ अच्छी नहीं थी। एक बार ब्राह्मणी स्नान करने के लिए नदी पर गई तो ब्राह्मण को शिशु की देखभख के लिए कहकर गई। ब्राह्मणी के जाने के बाद ब्राह्मण को श्राद्ध लेने के लिए राजमहल से न्योता आया। 
          अब वह परेशान हो गया कि वह बच्चे को कहाँ छोड़कर जाए? ऐसा सोचते हुए उसके मन में विचार आया कि अपने पुत्र की तरह पाले हुए नेवले को बच्चे की रक्षा में छोड़कर चला जाता हूँ। ऐसा करके वह राजमहल चला जाता है। इसी बीच एक साँप बालक की ओर बढ़ता है। उसे देखकर नेवला उस सॉंप को मार देता है।
          जब ब्राह्मण वापिस आता है तो नेवले के मुँह पर लगे खून को देखकर दुखी होता है। उसे ऐसा लगता है कि इस नेवले ने मेरे बच्चे को मार दिया है। ब्राह्मण उसे उसी क्षण मार देता है। पर घर के भीतर जाकर साँप को मरा हुआ देखता है तो सब समझ जाता है। अपने पर परोपकार करने वाले नेवले को मारकर पश्चाताप करता है।
             इसी प्रकार क्षणिक आवेश में आकर हम अपनों को स्वयं से दूर कर लेते हैं। उस समय हम कहते हैं कि जीवन भर इसकी शक्ल नहीं देखेंगे। घर-परिवार में किसी की जरा सी गलती या स्वयं में हुई गलतफहमी के कारण किसीका त्याग कर देना समझदारी नहीं कहलाती। 
          इसी प्रकार दोस्तों में कभी-कभी होने वाले मनमुटाव के कारण अपने प्रिय दोस्तों से जानलेवा दुश्मनी तक लोग निभाने लगते हैं।
          नौकरी अथवा व्यापार के क्षेत्र में भी यदाकदा अपरिहार्य कारणों से मतभेद हो जाते हैं। इसका यह अर्थ कदापि नहीं कि हम उन लोगों को अपना शत्रु ही मानकर बैठ जाएँ।
           यह आवेश हमारे सोचने-समझने की शक्ति का शत्रु होता है। जरा-सा गुस्सा आने पर हम अपने वश में नहीं रहते और दूसरे को दोषी मानते हुए उससे किनारा कर लेते हैं। चाहे उसके लिए बाद में मन-ही-मन कितना ही दुखी व परेशान क्यों न होना पड़े। हम कठोर बनकर दुनिया को अपने फैसले पर डटे रहते हुए दिखाना चाहते हैं। अपनी नाक नीची न हो जाए इस के लिए हमें चाहे कितनी ही हानि क्यों न उठानी पड़ जाए पर हमारी जिद्द पूरी हो जानी चाहिए।
            इस आवेश से हम बच सकते हैं यदि पुनर्विचार कर लें तो। ईश्वर ने मनुष्यों को बुद्धि का वरदान इसीलिए दिया है जो हमें सृष्टि के सभी जीवों से विशेष बनाता है। यदि हम इस नेमत का सदुपयोग नहीं करेंगे तो मनुष्यों और पशुओं में कोई अन्तर नहीं रह जाएगा। मनुष्य अपने विवेक से काम लेकर बहुत से अनावश्यक कष्टों से बचकर निकल सकता है। 'हितोपदेशम्' ग्रन्थ में में नारायण पण्डित हमें समझाते हुए कहते हैं-
             अविवेक: परमापदां पदम्।
अर्थात् अविवेक सभी मुसीबतों की जड़ है। अत: अपने सभी निर्णय विवेक से लेने चाहिए। बातचीत का रास्ता हमेशा खुला रखना चाहिए जिससे हमें अपनों से दूर रहकर उनके वियोग में वर्षों तक घुलना न पड़े।
चन्द्र प्रभा सूद 

सोमवार, 24 नवंबर 2025

अपना घर स्वर्ग तुल्य

 अपना घर स्वर्ग तुल्य 

मनुष्य चाहे संसार के किसी भी कोने में घूम ले, मौज-मस्ती कर ले, स्वर्ग जैसे आनन्द भोग ले पर सुख उसे अपने घर में आकर ही मिलता है। घर से दूर यदि चले जाओ तो थोड़े दिनों के बाद ही अपने घर की याद सताने लगती है। उस समय मन करता है कि उड़कर अपने आशियाने (घर) में वापिस पहुँच जाएँ।
           इसका कारण है सृष्टि के रचयिता परमात्मा ने घर को एक धुरी बना दिया है। इसके इर्द-गिर्द हम गोल-गोल घूमते रहते हैं। घर से निकलते हैं तो दफ्तर, स्कूल आदि जाते हैं। समय बीतने पर शाम को या दोपहर को लौटकर वापिस आ जाते हैं। शापिंग के लिए बाजार जाते हैं, शादी-ब्याह में सम्मिलित होते हैं, पार्टी करते हैं, घूमने-फिरने के लिए देश-विदेश कहीं भी जाते हैं फिर लौटकर घर ही आते हैं। कहीं भी जाओ पर ठौर घर ही है।
           घर के सदस्यों में कितना मनमुटाव क्यों न हो, खूब लड़ाई-झगड़े होते हों, जूतम पैजार भी होती हो, चाहे वे एक-दूसरे का चेहरा तक देखना पसन्द न करें परन्तु फिर भी घर का मोह ऐसा है जो उन्हें बाँधे रखने में सफल होता है। जहाँ शाम ढली और रात हुई, वहाँ मन घर भागने के लिए बेचैन होने लगता है।
           अपना घर चाहे आलीशान महल हो, फ्लैट हो, झोंपड़ी हो या टूटा-फूटा हो यानी कि कैसा भी हो घर तो घर ही होता है। यह हर मनुष्य के लिए एक विश्राम स्थली होता है। सारे दिन की थकान घर आने के बाद गायब होने लगती है। 
           यदि घर बनाने का चलन न होता हो शायद हम सभी खानाबदोश लोगों की तरह एक स्थान से दूसरे स्थान पर भटक रहे होते। जहाँ रात होती वहीं जमीन पर सो जाते और प्रातः होते ही फिर घूमन्तुओं की तरह चल पड़ते। तब हमारे पास ये सभी सुख-सुविधाओं के साधन भी न होते जैसे अब हमने अपने घरों में जोड़ रखे हैं। इस युग में हम उस जीवन की कल्पना भी नहीं कर सकते जहाँ न सख-सुविधा के साधन थे, न घर जैसी सुरक्षा थी और न ही इतने अच्छे यातायात के साधन ही उपलब्ध थे।
          ईश्वर ने हम पर बहुत ही उपकार किया है। मालिक ने जैसे दिन के बाद रात हमारे विश्राम के लिए बनाई है वैसे ही घर बनाने की परिकल्पना ने मनुष्य को आराम करने का एक स्थायी स्थान दिया है। जहाँ आकर वह बिना रोकटोक अपनी मनमर्जी से रह सकता है और जुटाई हुई सुविधाओं का भोग कर सकता है।
      अपने घर आने के बाद जो सुख मनुष्य प्राप्त करता है वह बलख और बुखारे जैसे समृद्ध स्थानों में भी नहीं मिलता। इसी बात को छज्जू भक्त जी ने इन शब्दों में कहा है-
             जो सुख छज्जू दे चौबारे 
              ओ न बलख न बुखारे।
चन्द्र प्रभा सूद 

शनिवार, 22 नवंबर 2025

स्त्री लेखकों की समस्याऍं

स्त्री लेखकों की समस्याऍं 

स्त्री लेखकों को अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। हमारी सामाजिक संरचना ही कुछ इस प्रकार की है कि घर-परिवार का दायित्व स्त्री पर ही होता है। प्राय: पुरुष घरेलू कार्यों में पत्नी का हाथ बटाना अपनी शान के खिलाफ समझते हैं।
          आज भौतिकावादी युग में स्थितियाँ बदल गई हैं। प्राय: स्त्रियाँ घर के बाहर जाकर कार्य करती हैं। कुछ महिलाएँ नौकरी करती हैं और कुछ अपना व्यवसाय। घर और बाहर की जिम्मेदारियों को सम्भालने में अधिकांश समय व्यतीत हो जाता है। इसके अतिरिक्त घर-परिवार और बन्धु-बान्धवों के सुख-दुख में साथ निभाना होता है।
          इन सब परिस्थितियों के चलते लेखन के लिए स्त्री को समय बहुत कठिनता से मिल पाता है। यदि घर के सदस्यों का कुछ सहयोग मिल जाए तो उनका सौभाग्य अन्यथा मुसीबतों की शुरूआत और कटाक्षों का दौर।
           लेखन साधना है जिसे साधकर लेखक, लेखिका या कवि, कवयित्री दिशादर्शन का कार्य करते हैं। स्त्री रचनाकार को अपना कदम फूँक-फूँक कर रखना चाहिए। जो जितनी साधना करेगी वह उतनी ही महान रचनाकार होगी। युगों-युगों तक उसका नाम इतिहास में स्वर्णिम अक्षरों में लिखा जाएगा।
      साधना शब्द का मैंने प्रयोग किया है जिसका तात्पर्य है कि स्त्री रचनाकार को अधिक से अधिक स्वाध्याय करना चाहिए। अपने सद् ग्रन्थों व पुरातन रचनाकारों की रचनाओं के साथ-साथ समकालीन लेखकों का गहनता से अध्ययन करना चाहिए। यदि वह ऐसा करती है तो उसके साहित्य को पढ़ने वाले को आत्मिक सन्तोष मिलता है।
              पूर्व जीवन में डाकू रहे महर्षि वाल्मीकि ने घर-घर में पूजनीय भगवान राम के चरित को लिखा। महामूर्ख कहे जाने वाले कालिदास विद्वानों की संगति में रहकर प्रकाण्ड पण्डित बने। महाकवि बनकर कालिदास ने कालजयी ग्रन्थ लिखे जो विश्व की अनेकानेक भाषाओं में अनूदित हैं। गुरुकुल में ज्ञान न प्राप्त कर पाने पर घर जाते समय कुऍं में रस्सी के निशान को देखकर, परिश्रम का मन्त्र लेकर बोपदेव ने अध्ययन किया। विद्वान बनकर इन्होंने व्याकरण की रचना की और महान बन गए। ये और अनेकों अन्य रचनाकार स्वाध्याय की बदौलत महान बने जिनका नाम हम सदैव श्रद्धा से लेते हैं।
            आज नवोदित लेखकों, लेखिकाओं  व कवियों, कवयित्रियों में इतनी भी सहनशीलता नहीं है कि वे साहित्य साधना करें। वे अपने अतिरिक्त दूसरों को साहित्यकार ही नहीं मानते। न ही वे किसी अन्य रचनाकार की रचनाओं या पुस्तकों को पढ़ना ही चाहते हैं।
        काव्य लिखने वाले नवोदित कवयित्रियों को प्रायः  छन्द, अलंकार, लय, गति, यति व गेयात्मकता आदि के विषय में जानकारी ही नहीं है। उन्हें यह भी ज्ञान नहीं होता कि काव्य को समृद्ध कैसे बनाया जाता है? काव्य का भी अपना एक अनुशासन होता है जिसका पालन करना चाहिए। कुछ लोगों को पुस्तक छपवाने की जल्दी रहती है चाहे एक पुस्तक लायक रचनाएँ भी न हों। कभी-कभी ऐसा लगता है कि ये सभी लोग रातोंरात महाकवि की श्रेणी में आ जाएँगें।
    आज की स्त्री रचनाकारों की साधना न होने के कारण बहुत-सी ऐसी महिलाएँ हैं जो भाषा के प्रति संवेदनशील नहीं हैं। उनकी रचनाओं में लिंग, वचन की अशुद्धियाँ बहुधा मिलती हैं। उन्हें वर्तनी (spelling) का भी ज्ञान नहीं होता।
           गद्य लिखना पद्य से कठिन माना जाता है। गद्य को साहित्य का निकष यानी कसौटी माना जाता है। लेखकों और लेखिकाओं का साहित्य भी तभी समृद्ध होता है जब उसमें लेखक या लेखिका की साधना की स्पष्ट झलक दिखाई देती है। वास्तव में काव्य की ही तरह गद्य का भी अपना अनुशासन होता है।
             एक-दूसरे का सामना होने पर प्रशंसा करना पर पीठ पीछे सबको गाली-गलौच करने से कोई साहित्यकार नहीं बन सकता। जो स्त्री अच्छा मनुष्य नहीं बन सकती वह कदापि अच्छी लेखिका नहीं हो सकती। दूसरों पर अपनी छाप छोड़ने के लिए स्त्री रचनाकार का स्वयं का जीवन भी क्रियात्मक होना चाहिए।
           पीत पत्रकारिता की चर्चा सोशल नेटवर्क, पत्र-पत्रिकाओं, टीवी आदि पर यदा कदा होती रहती है। उसी प्रकार रचनाओं की चोरी की घटनाएँ भी प्रकाश में आती रहती हैं। इनके कारण न्यायालयों में केस किए जाने के समाचार भी प्राप्त होते रहते हैं। इसका शिकार बहुत से लोग होते रहते हैं। इस चक्कर को छोड़कर उन्हें अपने लेखन की ओर ध्यान देना चाहिए।
          ये कुछ संकेत हैं स्त्री रचनाकारों के लिए। इसके साथ यह भी जोड़ना चाहती हूँ कि यदि रचना केवल फूहड़ता-अश्लीलता लिए होती है तो साहित्य की श्रेणी में कदापि नहीं आती। ऐसा साहित्य कदापि सम्मानजनक नहीं होता जिसे छिप-छिपा कर पढ़ना पढ़ा जाएगा या बेचा जाए।
            समाज में बढ़ती विकृतियों को देखते हुए आज स्त्री साहित्यकारों का दायित्व बढ़ जाता है। उनके लेखन में इतना ओज होना चाहिए जो नयी पीढ़ी को दिशा दे सके।
चन्द्र प्रभा सूद 

शुक्रवार, 21 नवंबर 2025

बगुला भक्त

बगुला भक्त

बगुला भक्त उसे कहते हैं जो ईश्वर की भक्ति का ढोंग करता है। वह समझता है कि यदि वह ऐसा करेगा तो सारे संसार में उसकी वाहवाही होगी और ईश्वर भी उससे प्रसन्न हो जाएगा। शायद वह अपने प्रदर्शन के मद में इतना खो जाता है कि दुनिया को धोखा देते देते मालिक को भी धोखा देने से बाज नहीं आता। वह इस सारे ढोंग का इतना आदी हो जाता है कि यह सब उसके जीवन के  व्यवहार का मात्र एक हिस्सा बनकर रह जाता है।
        ऐसा ही कार्य बगुला भी करता है जब उसे अपने शिकार मछली को पकड़ना होता है। वह एक टाँग पर पानी में खड़ा हो जाता है मानो बहुत बड़ी साधना कर रहा हो। मछली उसके इस फरेब को सच मानकर नि:शंक होकर उसके पास चली जाती है। ज्योंहि उसका भोजन मछली उसके पास से गुजरती है तो वह झट से उसे दबोच कर खा लेता है।
        बगुला भक्तों का भी यही कार्य होता है। वे भी अपने क्षणिक लाभ के लिए दूसरे लोगों को अपने जाल में फंसाते रहते हैं। इन लोगों की ऐसी हरकतों के कारण सच्चे साधु-सन्तों पर से भी जन साधारण का विश्वास उठता जा रहा है। इन्हीं बगुला भक्तों के लिए कहा गया है-
            'भगत जगत को ठगत।' 
ये ऐसे भक्त होते हैं जो भोले-भाले लोगों को अपने जाल में फंसाकर ठगते हैं। उन्हें तरह-तरह के सब्जबाग दिखाते हैं। उनकी मेहनत की कमाई पर ऐश करते हैं। 
          दूसरों को अपरिग्रह का पाठ पढ़ाते हैं पर स्वयं एक के बाद एक आश्रम बनाते चले जाते हैं। महंगी कारें खरीदना भी इनका शगल होता है। अपने लिए हर प्रकार की सुख-सुविधाओं को जुटाते रहते हैं। 
          साधना का प्रदर्शन करके लोगों को अपने वश में करने की ठग विद्या में ये निपुण होते हैं। तभी तो लोग इनके भ्रमजाल में फंसते है और इन्हें बहुत बड़ा गुरु मान लेते हैं जबकि ये गुरु नहीं गुरूघण्टाल होते हैं। वास्तविक सच्चे गुरुओं का पासंग भी नहीं होते। इनका भी अपना प्रचार तन्त्र होता है। अपने खरीदे हुए गुर्गों से अपनी वाहवाही कराते रहते हैं और लोगों को मूर्ख बनाते रहते हैं।
          सच्चे भक्तों को इस प्रकार के प्रपंचों को रचने की आवश्यकता ही नहीं होती। वे सच्चे, सरल, निस्वार्थ सेवी, जन-जन का कल्याण करने वाले होते हैं। इन साधु स्वभाव वाले सन्तों की उन दुर्जनों से किसी प्रकार से तुलना नहीं की जा सकती। ये सन्त समाज के लिए कलंक होते हैं।
        सच्चे भक्तों में धन्ना जाट थे जिन्होंने ने हठ ठान लिया था कि जब तक ठाकुर जी भोग नहीं लगाएँगे तब तक वे खाना नहीं खाएँगे और कहते हैं ठाकुर जी भक्त की जिद के सामने हार गए।
        रविदास जी थे जिन्हें गंगा स्नान के लिए साथियों ने कहा तो वे बोले - 
            'मन चंगा तो कठौती में गंगा।' 
यानी मन यदि पवित्र हो तो उनके पानी का पात्र जिसका प्रयोग जूते गाँठते समय करते थे, वह पानी गंगाजल बन जाता है।
        भुल्लेशाह जी  कहते हैं- 
          'रब दा की पाना ऐत्थों पुटना ओत्थे लाना।' यानी ईश्वर को पाना चाहते हो तो मन को संसार से विरक्त करके ईश्वर की ओर लगा दो। सूरदास, तुलसीदास, मीराबाई आदि ऐसे अनेक महान भक्त हैं जिन्होंने प्रभु के साथ सच्ची लौ लगाई दुनिया की परवाह नहीं की।
        सच्चे सन्त तो समाज के दिशादर्शक होते हैं। वे अपनी भक्ति की मस्ती में सदा डूबे रहते हैं। उन्हें धन-दौलत और भौतिक ऐश्वर्यों से कुछ लेना देना नहीं होता। इसलिए यह निर्णय सुधीजनों का है कि वे बगुला भक्त अथवा सच्चे भक्त (साधु) में से किसकी शरण में जाना चाहते हैं।
चन्द्र प्रभा सूद 

गुरुवार, 20 नवंबर 2025

हर मनुष्य की प्रकृति अलग

हर मनुष्य की प्रकृति अलग

आसपास रहने वाले या काम करने वाले बहुत से लोगों के साथ हमारा सम्पर्क होता है। सबकी प्रकृति अलग-अलग होती है। हर व्यक्ति के आचरण और व्याहार में हमें विभिन्नता दिखाई देती है। जिस प्रकार मनुष्य रंग-रूप में एक जैसे नहीं दिखाई देते उसी प्रकार उनकी आदतों में भी अन्तर स्पष्ट ही लक्षित होता है।
        सामाज में रहते हुए वे सब के साथ कैसा व्यहार करते हैं? समाज में उनकी स्थिति कैसी है?  उसके अनुसार उन्हें हम चार श्रेणियों में इस प्रकार विभाजित कर सकते हैं- 1. उदार   2. दाता   3. कंजूस  4.  मक्खीचूस।
          सबसे पहले हम उदार लोगों की चर्चा करते हैं। ये महानुभाव सारी पृथ्वी के जीवों को अपने हृदय से लगाकर रखने का जज़्बा रखते हैं। ये परोपकारी लोग सभी के चहेते होते हैं। हर व्यक्ति इनसे अपना सम्पर्क साधना चाहता है। ये निस्वार्थ भाव से सबके सुख-दुख में साथ निभाते हैं। लोग इनके पास अपनी परेशानियों के साथ आते हैं और प्रसन्न होकर वापिस लौटते हैं।ये  किसी के रहस्यों को सार्वजनिक करके उसे उपहास का पात्र नहीं बनाते। बहुत ही गम्भीर व सज्जन इन लोगों को महापुरुषों की तरह समाज पूजता है।
            दूसरे प्रकार के लोग दाता होते हैं जो दान देने में कभी पीछे नहीं हटते, सदैव तत्पर रहते हैं। सामाजिक एवं धार्मिक सभी प्रकार की संस्थाओं को वे दिल खोलकर दान देते हैं। जहाँ किसी जरूरत मन्द को देखते हैं बिना किसी को पता चले उसकी सहायता करते हैं। अपने-पराये का भेदभाव किए बिना ही बादलों की तरह निस्वार्थ भाव से मदद करने में हिचकिचाते नहीं हैं। लोग अपने कष्ट के समय में इनकी उदारता से कृतार्थ होते हैं। समाज में इन लोगों का एक स्थान होता है। अपने सरल स्वभाव के कारण ये लोग हर जगह पर सम्मानित किए जाते हैं।
         तीसरे प्रकार के लोग कंजूस होते हैं। वे हर किसी से मोलभाव करते रहते हैं। अपने घर-परिवार, पत्नी और बच्चों की सभी आवश्यकताओं को पूरा करते हैं। अतिथि सत्कार करने में भी घबराते नहीं हैं परन्तु पैसे को दाँतों से पकड़ते हैं। सामने इनका लिहाज करते हुए चाहे कोई कुछ न कहे पर पीठ पीछे कंजूस कहकर मजाक अवश्य ही उड़ाते हैं। 
        चौथे प्रकार के लोगों को आम भाषा में मक्खीचूस कहते हैं। ये ऐसे लोग होते हैं जो न खाते हैं और न खाने देते हैं। हर समय पैसे को लेकर झिकझिक करते रहते हैं। इनके लिए कहा जाता है- 
        'चमड़ी जाय पर दमड़ी न जाए।'
ये लोग अपने धन पर साँप की तरह कुण्डली मारकर बैठे रहते हैं। लोग पीठ पीछे तो क्या सामने भी इनको चिढ़ाते हैं। पर इन चिकने घड़ों पर कोई असर नहीं होता। ये लोग दाँत निपोर कर रह जाते हैं। इनसे घर-परिवार के जन व भाई-बन्धु आदि सभी परेशान रहते हैं। किए गए अपमान का भी इन लोगों पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। ये जस के तस ही रहते हैं। जीते जी ये किसी की जरूरत को पूरा नहीं करते। परिवार के लोग आवश्यक वस्तुओं के लिए भी तरसते रहते हैं और ये उसे फिजूलखर्ची बताकर अपना पल्लू झाड़ लेते हैं। पर इनकी मृत्यु के बाद इनके घर के लोग उस पैसे को बिना दर्द के उड़ाते हैं।
          हमें स्वयं तय करना है कि हम किस श्रेणी का बनना चाहते हैं। सबकी आँखों का तारा बनकर हम सुख भोगना चाहते हैं या लोगों के व्यंग्य बाणों को सहन करना अपनी नियति बनाना चाहते हैं।
चन्द्र प्रभा सूद 

बुधवार, 19 नवंबर 2025

जीवन में धन की उपादेयता

जीवन में धन की उपादेयता 

अर्थ यानि धन की हम सब के ही जीवन में बहुत उपादेयता है इसके बिना जीवन नरक के समान कष्टदायक हो जाता है। छोटे-से-छोटा और बड़े-से-बड़ा कोई भी कार्य इसके बिना सम्भव नहीं हो पाता। इसको कमाने के जलिए बहुत यत्न करने पड़ते हैं। दिन-रात कोल्हू के बैल की तरह जुटे रहकर अथक परिश्रम करना पड़ता है।
          जिस धन को कमाने के लिए हम अपना सारा सुख-चैन गंवा देते हैं वह कभी किसी का होकर नहीं रहता। कबीरदास जी कहते हैं-  'माया महा ठगिनी हम जानी।'
        कबीर जी के कहने का तात्पर्य है कि यह माया बहुत ही बड़ी ठग है और बहुत चंचल है। इसका कोई स्थायी निवास नहीं है। यह स्वेच्छा से कहीं भी चली जाती है। किसी की गुलाम बनकर भी नहीं रहती है। कोई भी व्यक्ति इसे अपनी तिजोरी में ताला लगाकर न रख सकता है और न ही रोक सकता है। न ही कोई मनुष्य यह दावा कर सकता है कि सात पुश्तों के लिए जो धन उसने जोड़-तोड़ करके जमा कर लिया है वह सुरक्षित रह पाएगा। यह सबको झाँसा देती रहती है। आज यह लक्ष्मी राजा के पास है तो कल उसे कंगाल बनाते हुए रंक के पास चली जाएगी और उसे मालामाल कर देगी। 
          धन की इन्हीं विशेषताओं को देख व समझकर चेतावनी देते हुए महान विचारक हमें समझा रहे हैं-
          पूत कपूत तो का धन संचै।
          पूत सपूत तो का धन संचै॥
इन पंक्तियों का अर्थ है यदि सन्तान योग्य होगी तो अपनी मेहनत से धन कमा लेगी। आपकी कमाई धन-सम्पत्ति को बढ़ा लेगी। इसलिए धन को कमाने के लिए मारामारी मत करो। अपनी ईमानदारी व सच्चाई के रास्ते पर चलते रहो। इसके विपरीत यदि संतान अयोग्य होगी या कपूत होगी तो खुद तो कमाएगी नहीं पर आपका कमाया धन व्यसनों में अवश्य बरबाद कर देगी। ऐसी स्थिति में आप नाजायज तरीकों से धन कमाने का विचार त्याग दो।
        धन के पीछे अपना सुख-चैन गंवाकर दिन-रात दीवानों की तरह मत भागो, यह साथ भी नहीं निभाएगा। धन जिस समय घर में आता है तो सुख और समृद्धि अपने साथ लेकर आता है। इसे दूसरे शब्दों में हम कह सकते हैं कि पैसा बोलने लगता है। 
        इसके विपरीत जब किसी के घर में धन जायज-नाजायज किसी भी तरीके से आता है तो अपने साथ बहुत सारे व्यसनों और बुराइयों को लेकर आता है। ये कुटेव उसके घर की जड़ों तक को हिला देते हैं। तब से उस व्यक्ति की बरबादी की कहानी आरम्भ हो जाती है।
          जैसी कमाई करोगे वैसा ही अन्न घर में आएगा। तभी मनीषी हमें समझाते हैं-  'जैसा खाओगे अन्न वैसा होगा मन।' 
सात्विक अन्न खाकर बच्चे सुसंस्कारी व आज्ञाकारी बनते हैं। माता-पिता, घर-परिवार व बन्धु-बान्धवों सबकी उम्मीदों पर खरे उतरते हैं।
        दूसरी ओर पापकर्म से कमाए अन्न को खाकर बच्चे संस्कारवान नहीं बनते बल्कि उद्दण्ड होते हैं। वे नैतिक-अनैतिक सभी प्रकार के ही कार्यों में संलिप्त रहते हैं। इन बच्चों से सदैव शुभ की कामना नहीं की जा सकती।
        धन हमारी सभी आवश्यकताओं का पूरक है पर सब कुछ नहीं है। इससे हम भौतिक सुख-साधन एकत्र कर सकते हैं पर स्वास्थ्य, प्रेम, जीवन, आज्ञाकारी संतान व रिश्ते-नाते नहीं खरीद सकते।
          अपने बच्चों को संस्कारी व योग्य बनाइए ताकि अपनी आवश्यकताओं को वे स्वयं के बूते पर पूर्ण कर सकें उन्हें आपके पैसे की जरूरत ही न हो। अन्यथा आप कितनी भी समृद्धि उनके लिए छोड़कर जाइए वे यही कहेंगे कि हमारे माता-पिता ने हमारे लिए किया क्या है? 
        अपने जीवन में सदाचरण से कमाकर अपनी सारी इच्छाओं को पूर्ण कीजिए। परिवार का भरण-पोषण और अतिथि सत्कार करके मानसिक सुख व शांति प्राप्त करने का यत्न कीजिए।
चन्द्र प्रभा सूद 

मंगलवार, 18 नवंबर 2025

जीवन साथी को लेकर सपना

जीवन साथी को लेकर सपना

हर युवा अपने जीवन साथी को लेकर एक सपना बुनता है। यह निश्चित है कि वह अपने जीवन साथी में कुछ विशेष गुणों को देखना चाहता है। प्रत्येक व्यक्ति का अपना दृष्टिकोण होता है। वह अपने साथी को अपने ही सोचे हुए उन मापदण्डों पर खरा उतरता हुआ देखना चाहता है।
        आज युवाओं में प्रेम के मायने बदल गए हैं। भौतिक युग की चकाचौंध ने उनकी आँखों पर पैसे की पट्टी बाँध दी है। पैसे के पीछे भागते हुए वे किसी भी हद तक जाने के लिए तैयार हो जाते हैं। आपसी विश्वास और वचनबद्धता टूटती हुई दिखाई देती है। सभी तो नहीं परन्तु शायद कुछ युवा मौज मस्ती को ही सब कुछ मानने लगे हैं। इसीलिए उनमें प्रायः वैमनस्य की स्थितियाँ बन जाती हैं।
          युवाओं को अपने भावी जीवन के प्रति सजग रहना चाहिए। उन्हें यथासम्भव ऐसा कोई भी कार्य नहीं करना चाहिए जो भविष्य में उनके लिए मुसीबत बन जाए। उनका नया गृहस्थ जीवन सुखदायी होने के बजाय कष्टदायी बन जाए। फिर उस समय चिड़िया हाथ से निकल जाने के बाद पश्चाताप करने जैसी स्थिति बन जाती है। तब युवा से न उगलते बनता है और न ही निगलते। 
          युवाओं को अपने जीवन साथी का चुनाव करते समय सबसे पहले उसके गुण, कर्म व स्वभाव को परखना चाहिए। उसके चरित्र अथवा चाल-चलन को महत्त्व देना चाहिए। जो व्यक्ति अपने घर-परिवार में मिलजुल कर नहीं रह सकता वह किसी के साथ भी सामञ्जस्य नहीं बिठा सकता। उसकी संगति कैसी है? वह किन लोगों के साथ उठता-बैठता है? यह जानना भी बहुत महत्त्वपूर्ण होता है। यदि उसकी संगति अच्छे लोगों से नहीं होगी तब वह अपनी कमाई तो बरबाद करेगा ही, साथ ही माता-पिता की मेहनत से कमाई गई धन-संपत्ति को नष्ट करने में देर नहीं लगाएगा। घर के माहौल को देखते ही सयाने लोग बहुत कुछ समझ जाते हैं। इसलिए उनकी राय को महत्त्व देना चाहिए।
          फिल्मों व टीवी की चकाचौंध को देखकर आजकल कुछ नवयुवक फिल्मी हीरोइनों जैसी पत्नी चाहते हैं और नवयुवतियाँ फिल्मी हीरो जैसे पति चाहती हैं। वे इस बात को भूल जाते हैं कि फिल्म वाले सिर्फ़ अपने किरदार का फिल्मी तरीके से पर्दे पर अभिनय करते हैं। असल जीवन में वे भी आम लोगों की ही तरह अपने घर-परिवार के लिए समर्पित होते हैं।
          दो युवाओं को परस्पर संबंध जोड़ते समय यह बात अवश्य सोचनी चाहिए कि उस घर में पैसा यदि अपनी अपेक्षा से थोड़ा कम भी हो परन्तु परिवारी जन आपस में सामञ्जस्य पूर्वक रहते हैं, वे प्यार को ही अपनी पूँजी मानते हैं तो ऐसे घर में किया गया बच्चों का संबंध हमेशा सुखदायक होता है। ऐसे परिवारों में प्रायः तालमेल बिठाने में अधिक दिक्कतें नहीं आतीं। 
        आज का युवावर्ग बहुत समझदार है वह अपना भला-बुरा अच्छी तरह जानता है। उसे बस जरा-सी सूझबूझ से सम्हालने की आवश्यकता है। यदि सकारात्मक राह  उसे दिखाई जाए तो वह निश्चित ही सही फैसले लेगा। अपने जीवन में वह कभी पीछे मुड़कर देखने की स्थिति में नहीं भटकेगा। स्वयं तो वह सही राह पर चलेगा ही और देश का एक जिम्मेदार नागरिक बनकर वह आने वाली पीढ़ी का भी सही मार्गदर्शक बनेगा।
चन्द्र प्रभा सूद 

सोमवार, 17 नवंबर 2025

घर हमारा सुरक्षा कवच

घर हमारा सुरक्षा कवच

हमारा घर हमारे लिए सुरक्षा कवच होता है। यहाँ आकर हम दिनभर की थकान से मुक्त होकर तरोताजा हो जाते हैं। घर में पलक पाँवड़े बिछाए हमारे अपने दिन-रात हमारी प्रतीक्षा में बैठे रहते हैं। उन्हें हमारी चिन्ता रहती है। इसलिए वे हमारी खोज-खबर रखना चाहते हैं। अपनों का साथ हर मनुष्य के लिए सदा ही बहुत सुखदायक होता है।
          वे लोग बहुत दुर्भाग्यशाली होते हैं जिन्हें कोई भी नहीं पूछता। कोई भी उनकी प्रतीक्षा में  बैठा नहीं होता। वे तरसते हैं कि कोई उनका हाल-चाल पूछे, उनकी देखभाल करे, उनसे जब गलती हो जाए तब उन्हें जी भर कर डाँटे-फटकारे। उनके प्रति अपनेपन का भाव रखे।
          यह सब अपना-अपना भाग्य होता है कि किसी की सभी इच्छाएँ स्वतः ही पूर्ण हो जाती हैं और कोई आजन्म तरसता ही रह जाता है कि कोई तो होता जो उसका अपना कहलाता।
        इनके विपरीत कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जिनकी परवाह करने वाले होते है और वे उससे परेशान होकर चिड़ जाते हैं। उन्हें ऐसा लगता है कि मानो उनकी आजादी पर प्रहार हो रहा है और इससे उनकी जिन्दगी नरक बनती जा रही है। वे किसी के प्यार व अपनेपन का सम्मान करना ही नहीं जानते। पता नहीं किस अहंकार के नशे में रहते हैं। फिर धीरे-धीरे उनके रूखे-रूखे व्यवहार तथा दिन-प्रतिदिन की खिचखिच से तंग आकर परिवारी जन उनकी परवाह करना छोड़ देते हैं।
        एक समय ऐसा भी आता है जब वे परेशानियों में डूबे होते हैं और उन्हें किसी  सहारे अथवा कन्धे की आवश्यकता होती है तब वह उपलब्ध नहीं होता। उस समय उन्हें अहसास होता है कि जीवन में कितनी बड़ी भूल कर दी है उन्होंने। उस समय बस पश्चाताप करना ही शेष बचता है।
          प्रयत्न यही करना चाहिए कि अपने घर को घर बनाया जाए उसे ईंट-पत्थरों का मकान न बनने दिया जाए।
        यदि वह घर केवल मकान या बिल्डिंग ही बनकर रह जाएगा तो वहाँ रहने वाले सभी सदस्यों की संवेदनाएँ मृतप्राय हो जाएँगी। वहाँ प्राय: झगड़े होते रहते हैं। कोई किसी की बात नहीं सुनता। सभी मनमानी करते रहते हैं। यह किसी घर के लिए कभी अच्छी स्थिति नहीं हो सकती।
        समय रहते यदि मनुष्य चेत जाए तो वह बहुत-सी समस्याओं से छुटकारा पाने में समर्थ हो सकता है। अपनों के विषय में सोचना, उनकी चिन्ता करना किसी भी तरह से उनके मौलिक अधिकारों का हनन करना नहीं कहलाता। इसे दूसरी तरह से मानना चाहिए। पूरा शहर बसे पर कोई यह सोचने का कष्ट नहीं करता कि हम कैसे हैं? हम स्वस्थ हैं या नहीं, हम भूखे सो रहे हैं या पेटभर खाना खा लिया है। कोई अपना होगा तो हमारी परेशानी में दस बार आकर हमें पूछेगा। हमारी परेशानियों को बाँटने की कोशिश करेगा ताकि हम कष्ट से मुक्ति पा सकें।
          सभी सुधी मित्र मेरी इस बात से सहमत होंगे कि घर में रहने वालों में सदा परस्पर प्यार होना चाहिए, एक-दूसरे की सुख-दुख में परवाह करने वाले होने चाहिएँ। घर के सभी सदस्य आपसी सामञ्जस्य से रहें। छोटे बड़ों का सम्मान करें और छतनार वृक्ष की भाँति बड़ों की छत्रछाया छोटों को मिलती रहे। बिना हील हुज्जत के एक-दूसरे की बातों को समझें और मान लें। ऐसा ही घर स्वर्ग के समान सुन्दर व सुखदायी होता है जिसकी शीतल छाया अपने पास से गुजरने वालों को भी ठंडक देती है। ऐसे परिवार के लोग सबकी प्रशंसा का कारण बनते हैं। वहाँ यदि किसी कारणवश सुविधाओं की कमी हो तो भी किसी को कानोंकान भनक तक नहीं लगती। सुख हो या दुख हर परिस्थिति में वे सभी एकसमान रहकर समय के गुजर जाने की प्रतीक्षा करते हैं।
          ईश्वर से प्रार्थना है कि ऐसा घर-परिवार रूपी सुरक्षा कवच सभी को दे जिसमें रहते हुए हर मनुष्य सुख, शांति व समृद्धि का उपभोग करे।
चन्द्र प्रभा सूद 

रविवार, 16 नवंबर 2025

यात्रा संस्मरण

यात्रा संस्मरण 

हवाई यात्राएँ बहुत बार की हैं पर कुछ समय पूर्व परिवार के साथ दिल्ली से उदयपुर जाते समय महाकवि कालिदास की याद बरबस ही आ गयी। उस दिन वर्षा भी हो रही थी। घने काले, सफेद और धूमिल बादलों से ढके हुए आकाश में ऊपर उड़ते हुए समझ में आया कि कालिदास ने इन बादलों को ही अपना दूत बनाकर 'मेघदूतम्' नामक खण्डकाव्य की रचना क्योंकर की होगी। यह दृश्य इतना मनमोहक था कि नजरें वहॉं से हट ही नहीं रहीं थीं। उन बादलों का आनन्द उठाते हुए मन वास्तव में बहुत प्रसन्न हो रहा था।
          उस समय ऐसा प्रतीत हो रहा था कि बादलों पर उड़ते हुए जहाज के नीचे मानो किसी ने सफेद चादर बिछा दी हो। दूर-दूर तक जहाँ तक भी नजर जा रही थी, नीले आकाश पर बिछी हुई वह सफेद दूधिया चादर इतनी खूबसूरत लग रही थी जिसका वर्णन करना गूँगे के गुड़ के स्वाद को बताने जैसा है। उन्नत आकाश को ढकते हुए बादलों ने वास्तव में मेरे इस मन को भी हर लिया। बादलों को यूँ भी मनसिज कहते हैं क्योंकि हमारे मन की कल्पना के अनुसार उनका रूप ढल जाता है। जो आकृति हम बादलों में देखना चाहते हैं, कुछ ही समय में वह वहॉं बन जाती है।
           किंवदन्तियों के अनुसार कालिदास बचपन में अशिक्षित और मूर्ख थे। कुछ धूर्त विद्वानों ने बदला लेने‌के लिए उनका विवाह परम विदुषी राजकुमारी विद्योत्तमा से करवाया था। लेकिन जब उसे अपने पति की  मूर्खता का अहसास हुआ तो उसने उन्हें घर से निकाल दिया। अपने पूर्व जीवन में निपट मूर्ख महाकवि कालिदास ईश्वर की उपासना और विद्वानों की संगति में रहकर महान कवि बने थे। देवी काली के भक्त होने के कारण उनके नाम 'कालिदास' पड़ा। सहृदय कवि को न इन बादलों ने अपने जाल में निश्चित ही फॅंसा लिया था।
             सेवा करते नवविवाहित यक्ष को पूजा के लिए बासी कमल के फूल लाने पर राजा कुबेर ने उन्हें रामगिरि पर्वतों पर एक वर्ष तक अकेले रहने की सजा दी थी। हवाई जहाज की तरह यात्रा करते हुए बादलों को हिमगिरि पर्वत से उज्जयिनी का रास्ता बताते हुए जितना सजीव चित्रण कालिदास ने किया है शायद ही किसी और ने किया होगा। इस वर्णन की सुन्दरता से मोहित कवियों ने अपने पाठकों के लिए विश्व की अनेक भाषाओं में इस 'मेघदूतम्' खण्डकाव्य का अनुवाद किया।
           हवाई जहाज जब ऊपर आकाश में ऊॅंचा उड़ता है तो उस समय धरती पर कुछ भी नहीं दिखाई देता। परन्तु जब वह थोड़ी-सा नीचे आता है तब बड़े-बड़े वृक्ष देखने में बोनसाई पौधों की तरह लगते हैं। सड़कों पर दौड़ती हुई गाड़ियाँ ऐसी लगती हैं मानो बच्चे घर के फर्श पर या मेज पर अपनी गाड़ियाँ दौड़ा रहे हों। ऊँचे बहुमंजिला भवन ऐसे दिखाई देते हैं मानो खेलते-खेलते बच्चों ने अपने ब्लाक्स थोड़ी-थोड़ी दूरी पर रख दिए हों और कुछ ही पल बाद उन्हें उठाकर फिर कहीं और रख देंगे।जब उनका मन करेगा, वे फिर से उनके साथ खेलने लगेंगे।
          आसमान में जब हवाई जहाज बहुत ऊँचाई पर उड़ता है, उस समय बड़े-बड़े पेड़ों, नदियों, सड़कों, भवनों और प्रदेशों की सीमाएँ कहीं खो-सी जाती हैं। ऐसा प्रतीत होता है मानो यहाँ पर सब कुछ एक-ही हैं। ऊँचे और नीचे के कोई भेदभाव नहीं दिखाई देता, कहीं कोई अलगाव नहीं होता, बस सब बराबर यानी एकसमान। ऊपर से चाहो तो भी उन्हें किसी भी तरह बाँटना सम्भव नहीं होता। हवाई जहाज के नीचे आने पर सब सीमाऍं बंटती हुई दिखाई देने लगती हैं। दूसरे शब्दों में हम यह कह सकते हैं कि ऊपर से एकाकार होते हुए सब नीचे आते-आते अपने वास्तविक स्वरूप में प्रकट हो जाते हैं।
          इसी प्रकार जो भी कोई व्यक्ति अपने जीवन के किसी भी क्षेत्र में ऊँचाइयों को छू लेता है, उसे भी समद्रष्टा बन जाना चाहिए। अपने अधीनस्थों के साथ सहृदयता पूर्वक तथा समानता का व्यवहार करना चाहिए। घर-परिवार अथवा बन्धु-बान्धवों के साथ भी एक जैसा व्यवहार रखना चाहिए। तभी उसकी महानता का लौहा सब मानते हैं। देश के उच्च पदासीनस्थ को भी धर्म- जाति, ऊँच-नीच, छोटे-बड़े, अमीर-गरीब, रंग-रूप आदि की सभी सीमाओं को तोड़ देना चाहिए और सबके साथ समानता का व्यवहार करना चाहिए। शासक वही सफल होता है जिससे प्रजा बिना डरे अपने मन की बात शेयर कर सके।
            हम सभी मनुष्य पक्षियों की तरह पंख लगाकर ऊॅंची उड़ान भरना चाहते हैं। नित्य नए-नए अनुभव संजोना चाहते हैं। इस हवाई यात्रा ने मेरे मन में जो भी उथल-पुथल मचाई है, उसे आप सभी सुधी मित्रों के साथ साझा करके मुझे बहुत ही आत्मसन्तोष हो रहा है। मुझे लगता है आप सब भी मेरे विचारों से एकमत होंगे और इन सबका अनुभव करना चाहेंगे।
चन्द्र प्रभा सूद 

शनिवार, 15 नवंबर 2025

ईश्वर निर्मित प्रकृति बहुत सुन्दर

ईश्वर निर्मित प्रकृति बहुत सुन्दर

ईश्वर निर्मित यह सम्पूर्ण प्रकृति बहुत ही सुन्दर है। इसका सौन्दर्य मनमोहक है। इसके किसी भी अंश पर यदि ध्यान दिया जाए तो उसकी सुन्दरता में मन खो जाना चाहता है। इसे जितना भी गहराई से हम निहारते हैं, वह उतना ही हमारे मन में गहरे उतरती जाती है। ईश्वर की बनाई इस सृष्टि में, प्रकृति में हम ढूॅंढने पर भी कोई कमी नहीं निकाल सकते। उसकी रचना वास्तव में सम्पूर्ण है, हम मनुष्यों की बनाई हुई वस्तुओं की तरह नहीं है। जो कुछ समय पश्चात बेकार हो जाती हैं और फिर उन्हें हम कचरा समझकर फैंक देते हैं।
          हमें चारों ओर एक-से-एक सुन्दर पक्षी दिखाई देते हैं। उनको देखते ही रह जाने का मन करता है। ऊषाकाल में होने वाली उनकी चहचहाहट इस सृष्टि में सदा नवजीवन का संचार करती है। पक्षियों का कलरव जीवनदायनी शक्ति होता है। मोर का नृत्य, तोते की वाचालता, कोयल का मधुर गान किसी को भी प्रभावित कर लेते हैं। इनका मासूम सौन्दर्य तब इनका शत्रु बन जाता है जब हम मनुष्य अपने मनोरंजन के लिए निर्दयता से इन्हें पिंजरों में कैद कर लेते हैं।
           इसी प्रकार हम पशुओं के सौन्दर्य के विषय में भी कह सकते हैं। कुलॉंचे भरता हिरण अपने अबोधपन के कारण बहुत ही मोहक लगता है। पशुजगत हमारे लिए बहुत ही उपयोगी है। गाय, बैल, भैंस, बकरी, भेड़, हाथी, घोड़ा, गधा आदि पशु हमारे दैनन्दिन हमारे लिए कार्य करते हैं। शेर, हाथी आदि पशुओं को हम पालतू बनाकर या कैद करके इनसे हम मनोरंजन करते हैं। विभिन्न प्रकार के कार्यों को करवाने के लिए हम इन पशुओं का उपयोग करते हैं।
             इसी प्रकार नदियाँ, झरने, जल प्रपात व समुद्र भी हमें पल-पल पुकारते हैं। इनका सुन्दर रूप हर किसी को मोह लेता है। लोग इन्हें निहारने के लिए दूर-दूर से अपना समय व पैसा व्यय करके जाते हैं। समुद्र व समुद्री जीव यानी जलचर सदा से ही हमारे आकर्षण का केन्द्र रहे हैं। इन्हें भी हम सजावट का सामान समझते हैं। हद तो हम मनुष्य तब पार करते हैं जब इन मासूम से सुन्दर जीव-जन्तुओं को मारकर खा जाते हैं। तब बड़ी शान से हम सबके बीच में बैठकर बताते हैं कि हमें सी फूड बहुत अच्छा लगता है। हम उसे अक्सर खाते रहते हैं।
          सुन्दर और रंग-बिरंगी, मनभावन तितलियाँ इधर-उधर उड़ती हुई बच्चों के साथ-साथ बड़ों का ध्यान भी आकर्षित करती हैं। इन्हें भी पकड़कर बच्चे अपना मनोरंजन करते हैं। विभिन्न प्रकार के सुन्दर, मनमोहक व सुगन्धित पुष्प पूरे वातावरण को महका देते हैं। पौधों पर लगे हुए ये फूल सभी के आकर्षण का केन्द्र बनते हैं। इन्हें तोड़कर हम अपने स्वार्थों की पूर्ति करते है। फिर अपने ही पैरों से उन्हें मसल‌कर रख  देते हैं।
           पर्वतों की सुन्दरता का बखान क्या किया जाए? इनके सौन्दर्य प्रेमी न जाने कितने कष्ट उठाकर इन्हें निहारने आते हैं। इनके आकर्षण में बॅंधे हुए लोग स्वयं को तरोताजा बनाने के लिए अपने साथियों या परिवार के साथ आते हैं। कामकाज की आपाधापी और शहरों के शोर-शराबे से दूर इन शान्त पर्वतों की गोद में समय व्यतीत करके ताजगी के साथ आत्मसन्तोष का अनुभव होता है। यदि पहाड़ों की चोटियाँ बर्फ से ढकी हों, रास्तों पर बर्फ का साम्राज्य हो, पेड़ों पर लटकती सफेद बर्फ हो और चारों ओर बर्फ की सफेद चादर बिछी हो तो उस दृश्य के क्या कहने? यह श्वेतिमा मन को आनन्द से सराबोर कर देती है।
          ग्रह-नक्षत्र, चाँद-सितारे हमेशा से ही मनुष्यों के लिए रहस्य रहे हैं। इन सबकी गाथाएँ हम समय-समय पर सुनते व पढ़ते रहते हैं। उनके विषय में जानकारी जुटाने का हम प्रयास करते रहते हैं। वैज्ञानिक दिन-रात परिश्रम करते रहते हैं और हमारे लिए कुछ नवीन खोजकर लाते हैं।
          कहने का तात्पर्य है कि इस सृष्टि की प्रत्येक रचना को हम निहारने लगें और उसमें डूबते चले जाएँ तो उस मालिक की प्रशंसा करने की इच्छा होती है। उसने चारों ओर इतनी अधिक सुन्दरता भर दी है जिसकी हम कभी स्वप्न में भी कल्पना नहीं कर सकते। उस प्रभु की सृष्टि में किसी प्रकार की कोई कमी निकालने की सामर्थ्य हम इन्सानों में नहीं है। हम लोग तो बस सृष्टि को बर्बाद करने में कोई कभी नहीं छोड़ते। पर्यावरण को दूषित करके हम निस्सन्देह अपने पैरों पर स्वयं कुल्हाड़ी मारने का कार्य करते हैं।
          ईश्वर ने इस सृष्टि को हमारी कल्पना से भी परे इतना सुन्दर बनाया है और वह चाहता है कि हम अपने व्यवहार अथवा अपने दुष्कृत्यों से इसे दूषित न करें। हम उसे उसी ही तरह सम्हाल कर रखें जैसा कि उसने इसे बनाया है। तभी हम मनुष्यों के साथ-साथ सभी जीव-जन्तुओं की सुरक्षा हो सकती है। अब यह सब हमारे कृत्यों पर निर्भर करता है। हमें कभी इस सृष्टि को हानि पहुॅंचाने का नकारात्मक कार्य नहीं करना चाहिए।
चन्द्र प्रभा सूद 

शुक्रवार, 14 नवंबर 2025

हर पदार्थ उपयोगी

हर पदार्थ उपयोगी 

इस ब्रह्माण्ड में जो कुछ भी उपलब्ध है यानी जो भी पदार्थ हैं, वे सब कुछ हम जीवों के लिए बहुत उपयोगी है। किसी भी पदार्थ के विषय में हम यह नहीं कह सकते कि वह तो हमारे लिए अनुपयोगी है। सारी प्रकृति हमारी सेवा में जुटी रहती है। सूर्य, चन्द्रमा, वायु, अग्नि, ग्रह-नक्षत्र, पृथ्वी पर विद्यमान सभी पेड़-पौधे, नदियाँ-समुद्र, जीव-जन्तु आदि सभी हमारे ही लिए बनाए हैं। ईश्वर ने इन सबको बनाकर हमें उपहार स्वरूप दिया है। यह अब हम पर निर्भर करता है कि हम उनका उपयोग किस प्रकार करते हैं।
         दिन और रात यदि ईश्वर न बनाता तो मनुष्य पागल हो जाता। दिन भर कोल्हू के बैल की तरह परिश्रम करने के पश्चात उसे नींद की, आराम की आवश्यकता होती है। यदि ईश्वर रात न बनाता तो मनुष्य अपनी नींद पूरी नहीं कर पाता। इससे उसकी कार्यक्षमता पर बहुत प्रभाव पड़ता। वह अगले दिन उत्साहपूर्वक अपने कार्य सम्पन्न नहीं कर सकता था। अब हम रात को सोने के उपरान्त प्रात: तरोताजा हो जाते हैं। नए जोश के साथ अपने दायित्वों को निभाने के लिए जुट जाते हैं। हमें इसके लिए उस प्रभु का धन्यवाद करना चाहिए कि उसने हम पर इतनी कृपा की है।
           ईश्वर ने सूर्य को गर्मी व प्रकाश देने का कार्य सौंपा। इसी कारण दिन-रात, ऋतु चक्र और मौसम बदलते हैं। चन्द्रमा को रात्रि में प्रकाश और शीतलता देने के लिए बनाया। जल हमारी जीवनी शक्ति है। इसके बिना हम अपने दैनन्दिन कार्यों का सम्पादन नहीं कर सकते। वायु हमारा प्राण है। इसके बिना सृष्टि पल भर में ही समाप्त हो जाएगी। अग्नि हमारी ऊष्मा का कारण है। हमारे शरीर को पुष्ट करने वाला हमारा भोजन इसी की बदौलत मिलता है। यह अग्नि हमारे खाए हुए अन्न को पचती है। इस प्रकार ये पञ्च महाभूत हमारे लिए बहुत उपयोगी हैं। इनके बिना हम अपने जीवन की कल्पना भी नहीं कर सकते।
             पेड़-पौधे हमारा पेट भरने के लिए हैं। ये हमें स्वादिष्ट फल देते हैं। हमें ताप से बचाने के लिए शीतल छाया देते हैं। हमारे घरों और दफ्तरों की सुरक्षा व सजावट के उपकरण देते हैं। ये ही हमें लिखने-पढ़ने के लिए साधन देते हैं। भूमि हमारे लिए विभिन्न प्रकार के अन्न का उत्पादन करती है। उन्हें खाकर हम हृष्ट-पुष्ट बनते हैं। सुन्दर, सुगन्धित व रंग-बिरंगे फूल मानव मन को बरबस मोह लेते हैं। चित्र-विचित्र पशु-पक्षी हमारे लिए आकर्षण का कारण बनते हैं। पक्षियों का मधुर कलरव हमें कर्णप्रिय लगता है। 
          नदियाँ हमारे लिए जल की आपूर्ति करती हैं। यह जल हमारे जीवन का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। इसीलिए नदियों के किनारे घनी आबादी पाई जाती है। नदियों के कलकल का सुरीला संगीत कानों को भाता है। समुद्र सदा हमारे लिए रहस्य की तरह रहा है। समुद्र से हमें बहुत सारा अनमोल खजाना देता है। इसकी गहराई की थाह पाने के लिए तैराक और गोताखोर बारबार यत्न करते रहते हैं। यह हमारे लिए सदियों से यातायात का प्रबन्धन करता है।
           किसी भी वनस्पति की ओर यदि हम अपनी दृष्टि डालें और उसके विषय में जानकारी एकत्र करने का प्रयास करें तो हम पाएँगे कि वह किसी-न-किसी रूप में हमारे लिए उपयोगी है। आयुर्वेद के अनुसार हर वनस्पति में औषधीय गुण विद्यमान हैं। यह बात और है कि हम सारी वनस्पतियों के विषय में न तो जानते हैं और न ही उनका उपयोग करते हैं। इसी कारण विश्व के हर देश के भोजन में हम विविधता पाते हैं। जबकि उन्हीं सब खाद्य पदार्थों और मसालों का उपयोग हर स्थान पर किया जाता है। उसी प्रकार स्वाद में भी हम वैविध्य ही पाते हैं।
        जिन पौधों को हम सब खर-पतवार समझकर तिरस्कृत करते हैं, उन्हें पशु खाते हैं और अपनी भूख मिटाते हैं। मनुष्य पशुओं के माध्यम से अपनी खेती करता है, उनका यातायात के साधन के रूप में उनका उपयोग करता है और अपना मनोरंजन भी करता है। मनुष्य पशुओं को साधकर अपने आराम के सारे कार्य उनसे बड़ी हेकड़ी से करवाता है। वे भी अपने मालिक की इच्छानुसार बहुत कुशलता से कार्यों को सम्पन्न करते हैं।
          ईश्वर ने इस सृष्टि की हर रचना को मनुष्य के लिए रचा है और अपनी पूजा-अर्चना करने के लिए इन्सान को बनाया है। इस सृष्टि के शेष सभी पदार्थ मनुष्य के सुख और आराम के लिए बनाए हैं। हमें हमेशा उस मालिक का धन्यवाद करना चाहिए जिसने हमारी हर सुख-सुविधा जुटाने के लिए सब खेल‌ रचा हैं।
चन्द्र प्रभा सूद 

गुरुवार, 13 नवंबर 2025

भाग्यवश अनेक लोगों से सम्पर्क

भाग्यवश अनेक लोगों से सम्पर्क 

जीवन में हमारा सम्पर्क जाने-अनजाने अथवा चाहे-अनचाहे बहुत से लोगों से होता है। उनमें से कुछ लोग हमारे प्रिय बन जाते हैं और कुछ लोगों को ढोना हमारी मजबूरी बन जाती है। इस बात को हम इस प्रकार कहा सकते हैं कि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। वह बिल्कुल अकेला नहीं रह सकता। उसे हर कदम पर सहयोग की आवश्यकता पड़ती है। फिर वहॉं प्रिय-अप्रिय वाली बात कहॉं से आ जाती है? इस विषय पर यदि हम विचार करने बैठें तो शायद इस सबका कारण हमें समझ में आ सकता है।
             घर-परिवार, माता-पिता, भाई-बहन और नाते-रिश्तेदार हमें हमारी इच्छा से हमें नहीं मिलते बल्कि उपहार के रूप में मिलते हैं। पड़ोसियों का चुनाव भी हम नहीं कर सकते। यानी सभी सम्बन्ध हमें हमारे पूर्वजन्म कृत कर्मों के अनुसार ही मिलते हैं। हम मानते हैं कि ये सभी सुख-दुख व लेन-देन के सम्बन्ध हैं। पूर्वजन्मों में हमें किसका देना है या किससे लेना है, किसी को हमने कष्ट दिया या किसी ने हमें कष्ट दिया, उन सब कर्मों का भुगतान इसी जन्म में करना होता है।
           इस बात को हम इस प्रकार समझ सकते हैं। अपने आसपास हमें सब प्रकार के उदाहरण मिल जाएँगे। हम देखते हैं कि किसी परिवार में कोई अपंग बच्चा पैदा हो जाता है जिसकी सेवा सारे परिवार को इच्छा से या अनिच्छा से आजन्म करनी पड़ती है। इसी प्रकार कोई रोगी बच्चा पैदा होता है जिसका इलाज कराने में घर का सब कुछ बिक जाता है। इसका अर्थ यही है कि उनकी सेवा करके या उनका कर्ज चुकाकर ही मनुष्य को अपने उन कृत कर्मों से मुक्ति मिलती है।
             कुछ लोग सारा जीवन मस्त रहते हैं यानी कि कोई जिम्मेदारी नहीं, किसी से कोई लेना नहीं, किसी को कुछ देना नहीं। परन्तु कुछ लोग होश सम्हालते ही किसी भी कारण से जिम्मेदारियों का बोझ उठा लेते हैं और सारा जीवन वे इनसे मुक्त नहीं हो पाते, पिसते रहते हैं। इतना सब करने के उपरान्त भी उन्हें सबकी नाराजगी झेलनी पड़ती हैं। अपने ही बन्धु-बान्धव उन पर आरोप लगाते नहीं थकते। वे अपने लिए किए गए उनके कार्यों की कभी सराहना नहीं करते और न ही उनका अहसान मानते हैं।
        पड़ोसियों के सम्बन्ध में भी हम ऐसा ही कह सकते हैं। कई लोगों को पड़ोसी ऐसे मिलते हैं जो अपने सगे सम्बन्धियों से भी बढ़कर होते हैं। वे एक-दूसरे का ध्यान अपने परिवारी जनों की तरह रखते हैं। उनके सुख-दुख साझे हो जाते हैं। कुछ लोगों को ऐसे पड़ोसी मिल जाते हैं जिनके साथ किसी-न-किसी बात पर उनकी टकराहट हो जाती है। गाहे-बगाहे उनके साथ तू-तू, मैं-मैं होती रहती है। उन लोगों का परस्पर छत्तीस का ऑंकड़ा रहता है। पास से निकल जाते हैं पर हाय, हैलो तक करना पसन्द नहीं करते।
            हाँ, मित्र हम स्वयं बनाते हैं। उनका चुनाव हम स्वेच्छा से करते हैं। पर यहाँ भी पूर्वजन्म के सम्बन्धों का आधार ले सकते हैं। पूरे विश्व अथवा देश की बात नहीं कर रही। हॉं, जहाँ पर हम रहते हैं, पढ़ते हैं या कार्य करते हैं, वहाँ भी तो बहुत सारे लोग होते हैं, उन सभी लोगों में से उसी खास व्यक्ति के साथ ही हमारा मित्रता का सम्बन्ध क्यों बनता है, अन्यों के साथ क्यों नहीं? यह वास्तव में विचारणीय विषय है।
           कभी-कभी राह चलते कोई अनजान व्यक्ति हमें अच्छा लगने लगता है और कभी-कभी किसी ऐसे व्यक्ति को देखकर हम नफरत करते हैं जिससे हमारी जान-पहचान तक नहीं होती। चलते-चलते कभी-कभी किसी से टकराराना कष्टदायी हो जाता है, जीवन भर के लिए नासूर बन जाता है। इसके विपरीत कभी-कभी अचानक हुई मुलाकात जीवन भर के लिए मीठी यादें छोड़ जाती है। यदा कदा ऐसे संयोगों से नए सम्बन्ध भी बन जाते हैं।
             स्कूल कालेज में पढ़ते हुए हम अनेक अध्यापकों व बच्चों से मिलते हैं। पता नहीं वे कहाँ से आए होते हैं। उनके साथ कुछ तो पूर्वजन्म का सम्बन्ध होता है जो इस प्रकार उन लोगों से मिलना होता हैं। ऐसे ही हम अपने कार्यक्षेत्र के विषय में भी कह सकते हैं। वहॉं पर कार्य करने वाले लोग प्रायः विभिन्न स्थानों से आए होते हैं। उनके साथ हमारा मेल-मिलाप होता है। उनके साथ हम अपना भोजन शेयर करते हैं। बहुत बार उनके साथ मित्रता प्रगाढ़ हो जाती है। वे हमें हमारे बन्धुवत् हो जाते हैं।
          हम सभी धर्म भीरु लोग हैं। इसीलिए यह कहकर लोग सन्तोष कर लेते हैं कि सब भाग्य का खेल है। भाग्य में जो कुछ लिखा है उसे भोगना ही है, उससे छुटकारा सम्भव नहीं है। चाहे उसे हम हंसते हुए भोगें या रोकर। यह भोग भोगना हमारी नियति बन जाती है। हमारे साथ इन लोगों का सम्बन्ध जुड़ने का कारण भी यही है कि हम अपने पूर्वजन्मो में अच्छे या बुरे जो भी कर्म करके आते हैं, उनको भोगकर ही अगले जन्म के लिए नए पड़ाव की ओर प्रस्थान करना पड़ता है।
चन्द्र प्रभा सूद 

बुधवार, 12 नवंबर 2025

ईश्वर के पास जाने से मन का घबराना

ईश्वर के पास जाने से मन का घबराना

ईश्वर के पास जाने के नाम से ही हमारा मन क्यों घबराने लगता है? यह एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण और विचारणीय प्रश्न है। जिस ईश्वर ने हमें धरा पर भेजा है, वापिस उसके पास तो जाना ही पड़ेगा। हम सब जानते हैं कि यह संसार मरणधर्मा है। जिसका जन्म यहाँ होता है उसे अपनी आयु भोगकर इस संसार से विदा होना पड़ता है। फिर भी हम मृत्यु का नाम नहीं सुनना चाहते। जहाँ मौत शब्द आता है, हम उसे सुनकर डर जाते हैं कि जैसे वह अभी भागकर हमारे पास आ जाएगी।
          पहले हम यह विचार करते हैं कि मनुष्य की निश्चित आयु कितनी है? मनुष्य की निश्चित आयु वही है जो हमारे पूर्वजन्म कृत कर्मों के अनुसार ईश्वर ने हमारे लिए निर्धारित की है। जो आयु निश्चित करके ईश्वर जीव को इस संसार में भेजता है, वह जब पूर्ण हो जाती है तब उसे यहाँ से विदा होना पड़ता है। इसमें जीव की इच्छा या अनिच्छा का कोई मतलब नहीं होता, न ही उससे इस विषय में पूछा जाता है।
            इस असार संसार में आने के बाद मनुष्य अपने यहाँ आने का उद्देश्य ही भूल जाता है। कुछ निश्चित समय के लिए मिले हुए इस जीवन पर वह अपना अधिकार मानने लगता है। तब वह अपनी मनमानी करने लगता है। हर प्रकार के कर्म-कुकर्म करने में वह हिचकिचाता नहीं है। मनुष्य इस संसार में आने से पहले जब माता के गर्भ में होता है तब वह अन्धकार से घबराने लगता है। ईश्वर से उससे मुक्ति की प्रार्थना करता है। वह प्रभु से बहुत से वादे करता है, कसमें भी खाता है।
              संसार में मनुष्य आते ही सब कुछ भूल जाता है। वह अपने वादों को याद नहीं रख पाता और अपनी कसमें तोड़कर इतराता फिरता है। इसलिए वह उन पर अमल भी नहीं कर पाता। फिर वह धीरे-धीरे ईश्वर से विमुख होता जाता है। उसकी यही बेरुखी उसके डर का कारण बनती है। उसके सिर पर मौत की तलवार हर समय लटकी रहती है जिसे वह उतार फैंकना चाहता है। उसी के लिए सारे प्रपंच करता है। उससे बचने के लिए धर्म का प्रदर्शन करता है। इन्सानों की आँखों में तो वह यदा कदा धूल झौंकता रहता है। साथ-साथ भगवान को भी धोखा देने से बाज नहीं आता। जब मनुष्य ऐसे कर्म करेगा तो उसके मन में डर स्वाभाविक ही घर बनाकर बैठ जाएगा। 
             अपने डर को दूर भगाने के लिए मनुष्य को देश, समाज, धर्म और घर-परिवार के नियमों के अनुकूल कार्य करने चाहिए। इस प्रकार के कार्यों को करने से मन में उत्साह बना रहता है। जब गलत काम नहीं किया जाएगा तो मन में ग्लानि का भाव कभी नहीं आएगा। सबसे बढ़कर उसका मन भी सदा प्रसन्न रहेगा। इसके विपरीत जो व्यक्ति देश, समाज, धर्म और घर-परिवार के नियमों के प्रतिकूल कार्य करता है, उसके मन में सदैव अपनी पोल‌ खुल जाने का भय समाया रहता है। 
            ईश्वर उन्हीं लोगों से प्रसन्न होता है जो बिना भेदभाव के उसके बनाए हुए सब इन्सानों के साथ सदा समानता का व्यवहार करते हैं। छल-कपट से दूर वे सरल हृदय लोग प्राणिमात्र से स्नेह करते हैं। किसी भी व्यक्ति का दिल दुखाने की भूल तो वे कदापि नहीं करते। अपने कार्यों का सम्पादन करने के लिए किसी लालच अथवा डर के शिकार नहीं बनते। सच्चे मन से सबकी भलाई और उन्नति हेतु प्रयासरत रहते हैं, ढोंग नहीं करते।
            अबू बिन आदम की कथा जो कभी बचपन में पढ़ी थी, इस प्रसंग में याद आ रही है। अबू बिन आदम ईश्वर से बहुत प्रेम करता है लेकिन वह खुद को बहुत तुच्छ समझता है। एक रात को अबू बिन आदम की नींद खुल जाती है। वह अपने कमरे में तेज रोशनी और एक देवदूत को देखता है जो एक पुस्तक में कुछ लिख रहा होता है। वह सूची में उन लोगों के नाम लिखता है जो ईश्वर से प्रेम करते हैं।
अबू बिन आदम देवदूत से पूछता है, "वह क्या लिख रहा है।"
देवदूत उसे बताता है, "वह उन लोगों के नाम लिख रहा है जो ईश्वर से प्रेम करते हैं।"
देवदूत उसे पुस्तक दिखाते हुए पूछा, "क्या तुम्हारा नाम उस सूची में है।"
अबू बिन आदम देवदूत से कहता है, "उसका नाम वहॉं नहीं है लेकिन वह उस सूची में अपना नाम लिखवाना चाहता है जिसमें उन लोगों के नाम हैं जो ईश्वर से प्रेम करते हैं।" 
देवदूत ने एक और लिस्ट दिखाई, "उसमें उन अच्छे मनुष्यों में सबसे ऊपर उनका नाम था जो ईश्वर को प्रिय थे।" 
उन्होंने आए हुए देवदूत से पूछा, "मेरा नाम सबसे ऊपर क्यों है? मैं तो ईश्वर की भक्ति ज्यादा नहीं करता।"
देवदूत ने उनसे कहा, "तुमने अपने सारे जीवन में लोगों की निस्वार्थ सेवा की है। इसीलिए ईश्वर के प्रिय जनों में सबसे ऊपर है।"
             अतः ईश्वर के पास जाने से मन घबराना नहीं चाहिए क्योंकि यह आस्था और विश्वास की ओर बढ़ने वाला एक कदम है। जब मनुष्य ईश्वर की शरण में जाता है तो उसे मानसिक शान्ति मिलती है। इसका कारण है कि एक उच्च शक्ति पर भरोसा करना। हम अपनी समस्याओं को उसे समर्पित करते हैं और यह अनुभव करते हैं कि जीवन पर एक उच्च शक्ति का नियन्त्रण है। इसके लिए हम प्रार्थना, भजन-कीर्तन और ध्यान जैसे आध्यात्मिक साधनों का उपयोग कर सकते हैं। 
         इसलिए जब तक शरीर स्वस्थ्य है, मृत्यु दूर है तब तक ऐसे कार्य कर लेने चाहिएँ जो हमें ईश्वर का प्रिय बना दें। हमारे मन में किसी तरह का कोई भय न रहे और हम निडर होकर मृत्यु के पश्चात उस प्रभु के पास जा सकें।
चन्द्र प्रभा सूद 

मंगलवार, 11 नवंबर 2025

सफलता पाकर इतराता अयोग्य व्यक्ति

सफलता पाकर इतराता अयोग्य व्यक्ति

अयोग्य व्यक्ति को यदि उसकी योग्यता से बढ़कर सम्मानित पद मिल जाए तो उसके पाँव जमीन पर नहीं पड़ते। यह वास्तविकता है कि वह सीधी चाल नहीं चलता बल्कि टेढ़ा-टेढ़ा चलता है। इन्सानी प्रकृति ही ऐसी है कि उसमें अहंकार शीघ्र आता है। तब वह अपने सामने किसी को कुछ नहीं समझता। हो सकता है कि ऐसे व्यक्ति को उच्च पद चापलूसी करने से अथवा भाग्य से मिल गया हो। कारण कोई भी हो सकता है पर सच्चाई यही होती है कि उसे उच्च पद प्राप्त है गया। उसे अपने पर अभिमान करने से कोई रोक नहीं सकता।
            इसी कड़ी में किसी ऐसे व्यक्ति की यदि सौभाग्य से लाटरी लग जाए जिसके पास दो जून रोटी खाने का भी जुगाड़ नहीं है तो ऐसे उस मनुष्य की मानसिक स्थिति की जरा कल्पना कीजिए। बताइए उसके पैर इस जमीन पर क्योंकर पड़ने लगें? वह तो अपने आप को किसी भी सूरत में राजा-महाराजा से कम नहीं समझेगा। उसे तो बस यही लगेगा कि दुनिया का कोई भी मनुष्य उसकी बराबरी नहीं कर सकता। वह भूल जाता है कि इस संसार में धनवानों की कोई कमी नहीं है। तब उसे अपना कद ऊॅंचा लगने लगता है और वह दूसरों को छोटा समझने लगता है।
        इसी प्रकार किसी नीचे पद वाले को ऊँचे पद पर बिठा दिया जाए तो वह हर किसी से अकड़कर बात करेगा। अपनी तरक्की के अहं में बद् दिमाग बन जाएगा। हर किसी को अपना गुलाम बनाने का प्रयत्न करेगा। ओछा व्यक्ति भाग्य से उच्च पद पाने पर बहुत ही इतराने लगता है। इसी बात को रहीम जी ने इस प्रकार कहा है-
        जो रहीम ओछौ बढ़ै, तौ अति ही इतराय।
        प्यादे सों  फरजी  भयो, टेढ़ो-टेढ़ो  जाय॥
अर्थात् रहीम जी कहते हैं कि ओछे लोग जब प्रगति करते हैं तो बहुत ही इतराते हैं। वैसे ही जैसे शतरंज के खेल में जब प्यादा फरजी बन जाता है तो वह टेढ़ी चाल चलने लगता है। वैसे मुझे चौसर के खेल का बहुत ज्यादा ज्ञान नहीं पर कहते हैं उसमें भी कुछ ऐसा ही होता है। जब प्यादा वजीर बन जाता है तब वह सीधी चाल न चलकर वह टेढ़ा-टेढ़ा चलने लगता है। 
          यहाँ पर हम कछुए और खरगोश की कहानी को उदाहरणार्थ ले सकते हैं। यह कहानी हम सबने अपने बचपन में पढ़ी है। एक जंगल में एक खरगोश को अपनी तेज दौड़ने की क्षमता पर घमण्ड था। वह प्रायः धीमी गति से चलने वाले कछुए का मजाक उड़ाता था। एक दिन कछुए ने खरगोश को रेस लगाने के लिए चुनौती दी। खरगोश ने उस चुनौती को स्वीकार कर लिया। रेस शुरू होते ही खरगोश बहुत तेज दौड़ा। उसे दूर-दूर तक कछुआ कहीं दिखाई नहीं दिया। वह घमण्ड में आकर बीच में ही पेड़ के नीचे आराम करने लगा और सो गया। इस बीच कछुआ धीरे-धीरे पर लगातार चलता रहा। वह खरगोश से पहले ही निर्धारित लक्ष्य पर पहुँच गया। 
यानी कछुआ खरगोश की बेवकूफी के कारण रेस जीत गया। ऐसे ही अन्य बहुत से लोग होंगे जो सौभाग्य से दूसरों की मूर्खता के कारण योग्यता न होने पर भी सफल हो जाते हैं। तब फिर उनके पैर जमीन पर नहीं पड़ते। वे आकाश में ऊँची उड़ान भरने लगते हैं।
           जायज-नाजायज तरीकों से धन कमाने वाले चोर, डाकू, स्मगलर, भ्रष्टाचारी और रिश्वतखोर आदि की भी यही स्थिति होती है। अनाप-शनाप तरीकों से कमाया धन उनके सिर पर चढ़कर बोलने लगता है। जैसे सिरसाम(दिमागी बुखार) हो जाने पर मनुष्य उल्टा-सीधा बोलने लगता है। वैसा ही व्यवहार ये लोग दूसरों से करने लगते हैं।
          ऐसे लोग अपनी पुरानी हैसीयत की किसी को हवा भी नहीं लगने देना चाहते। ये अहंकारी लोग स्वभाव से क्रूर बन जाते हैं। इसलिए स्वार्थी हो जाते हैं। हर किसी का अपमान करने में अथवा पंगा लेने में खुशी महसूस करते हैं। मैं, मेरे बच्चे और मेरा परिवार बस, इससे आगे की वे नहीं सोचते। सारी दुनिया को भी आग लगा देने में उन्हें कोई परहेज नहीं होता। किसी की भी जान की कीमत उनके लिए कुछ नहीं होती। वे सारी दुनिया के लोगों को कीड़े-मकोड़ों की तरह समझते हैं।
            ऐसे लोगों को अपने पद अथवा धन का इतना नशा हो जाता है कि खुद को भगवान समझने लगते हैं। ये भगवान को अपने से हीन समझने की भूल कर बैठते हैं। वास्तव में इन्हें मालिक का धन्यवाद करना चाहिए जिसने उन्हें उनकी सामर्थ्य से कई गुणा अधिक दिया है। मेरी बात का चाहे आप विश्वास न करें। अपने आसपास आपको बहुत से ऐसे उदाहरण देखने को मिल जाएँगे। वैसे समाचार पत्रों, टीवी और सोशल मीडिया पर भी गाहे-बगाहे ऐसे लोगों की चर्चाएँ आ जाती हैं।
            ऐसे लोगों को हम सुधार तो नहीं सकते परन्तु उनसे किनारा अवश्य कर सकते हैं। अपनी इज्जत अपने हाथ होती है इसलिए सदा सावधानी बरतनी आवश्यक होती है।
चन्द्र प्रभा सूद 

सोमवार, 10 नवंबर 2025

हर कार्य अपने समय पर

हर कार्य अपने समय पर

हर कार्य अपने निर्धारित समय पर ही पूर्ण होता है। अपने समय पर हर ऋतु आती है। सूर्य और चन्द्रमा का भी अपने निश्चित समय पर उदय और अस्त होना होता है। सम्पूर्ण प्रकृति सृष्टि के आदिकाल से ही अपने नियम से कार्य करती है। हम कितना भी जोर लगा लें, कितनी ही मन्नतें मान लें परन्तु इस सार्वभौमिक सत्य को कदापि नहीं बदल सकते, झुठला नहीं सकते। यह सम्पूर्ण सृष्टि भी एक ही दिन में नहीं बन गई थी। उसका भी विकास क्रमशः हुआ था।
           हम अपने इस भौतिक जीवन में देखते हैं कि किसान जमीन खोदकर तैयार करता है और फिर उस धरती में बीज डालता है। कुछ समय बाद बीज अंकुरित होता है और तब वह एक नन्हें पौधे का रूप लेता है। तत्पश्चात समय बीतते वह नन्हा पौधा एक विशाल वृक्ष बन जाता है। बीज से बना यह विशाल वृक्ष किसी किसान के दिन-रात के अथक परिश्रम, देखरेख और खाद-पानी देने का परिणाम होता है। ये वृक्ष अपने समय पर ही फल देते हैं। इसी भाव को नीलकण्ठ दीक्षित जी द्वारा रचित 'सभारञ्जनशतकम्' में इस प्रकार कहा है-
     दोहदैरालबालैश्च कियद् वृक्षानुपास्महे।
    ते तु कालं प्रतीयन्ते फलपुष्पसमागमे॥
अर्थात् वृक्ष का सिंचन करना, मेड़ बनाना आदि कितना भी प्रयास करें, वृक्ष समय आने पर ही फल देते हैं।
           बच्चा पैदा होते ही युवा नहीं हो जाता। वर्षों माता-पिता उसकी देखरेख में दिन-रात एक करते हैं, उसे पढ़ा-लिखाकर योग्य बनाते हैं। इस प्रक्रिया से गुजरता हुआ एक बच्चा बीस-पच्चीस साल में जाकर युवा बनता है। इसी प्रकार जब बच्चा नर्सरी कक्षा में स्कूल में प्रवेश करता है तो एक ही वर्ष में बारहवीं कक्षा पास नहीं करता बल्कि चौदह साल तक अथक परिश्रम करने के बाद ही स्कूल पास करता है और फिर कालेज में प्रवेश पाता है। अपनी शिक्षा पूर्ण करने के पश्चात वह नौकरी के लिए यत्न करता है। नौकरी पाने के उपरान्त ही वह अपने जीवनसाथी के साथ मिलकर अपनी गृहस्थी को सफलतापूर्वक चलाता है।
          यह सर्वथा सत्य है कि जो एक रात बीत जाती है, वह कभी वापिस नहीं आती। इसी प्रकार उचित समय पर यदि कार्य सम्पन्न न किया जाए तो वह फलदायक नहीं हो पाता। महाकवि कालिदास ने 'रघुवंशम्' महाकाव्य में इस विषय पर प्रकाश डालते हुए कहा है- 
  'काले खलु समारब्धा: फलं बध्नन्ति नीतय:।'
अर्थात् समय पर यदि अपनी नीतियों को लागू किया जाय तो वे फलदायी होती हैं।
            जो मनुष्य समय का महत्त्व समझते हुए उसके अनुसार अपनी योजनाएँ बनाते हैं और सही  समय पर उनको क्रियान्वित करते हैं, वे अपने जीवन में सदा ही सफलता का मुख देखते हैं। असफलता उनके पास तक फटकती नहीं है। समय कभी भी किसी का पक्षपात नहीं करता। सबके साथ एकसमान व्यवहार करता है। उसे केवल वही लोग पसन्द आते हैं जो समय का सम्मान करते हैं। समय की महत्ता न समझकर जो उसे अपने आलस्य के कारण बर्बाद करते हैं, उनसे वह नाराज होने लगता है।
          समय मानव के जीवन में बड़ी ही उठा-पटक करता है। वह पलभर में राजा को रंक बना देता है और रंक को राजा बना देता है। दूसरे शब्दों में हम यह कह सकते हैं कि समय शक्तिशाली को निर्बल व निर्बल को पलक झपकते ही शक्तिशाली बना देता है। यह बड़े-बड़े साम्राज्यों के धराशाही होने का सबसे बड़ा गवाह है। कितनी ही सभ्यताओं को इसने नष्ट होते हुए देखा है। इसने बहुत लोगों को मिटते हुए भी देखा है। फिर हम मनुष्य क्या चीज है इसके सामने?
           इस सत्य से हम मुँह नहीं मोड़ सकते कि समय न हमारा मित्र है और न ही शत्रु है। उसे अपना मित्र बनाना पड़ता है। वह कभी भी हमारी प्रतीक्षा में पलक पाँवड़े बिछाकर नहीं बैठता है। वह हमारा हाथ पकड़कर नहीं चलता बल्कि हमें ही उसके साथ कदम मिलाकर चलना होता है। वह तो अपनी अबाध गति से, दिन-रात बिना विश्राम किए चलता ही जा रहा है। यह हमारी समझदारी है कि हम उसके सहारे से जीवन में वह सब कुछ प्राप्त कर सकें जिसकी हम कामना करते हैं। 
          यदि समय रहते मनुष्य समय का मूल्य पहचान ले तो सफलता की सीढ़ियों पर चढ़ने से उसे कोई नहीं रोक सकता। अन्यथा उसे जीवन में हर कदम पर असफलता का ही स्वाद चखना पड़ता है। प्रतिदिन इस संसार में अनेक जीवों का जन्म होता है और अनेक लोग इस दुनिया को अलविदा कह देते हैं। यदि हम में इतनी सामर्थ्य है कि हम समय की रेत पर अपने निशान छोड़कर इस दुनिया से विदा ले सकते हैं तभी हम अपनी आने वाली पीढ़ियों के लिए एक उदाहरण बन सकते हैं। अन्यथा तो कोई जान ही नहीं पाएगा कि हम इस संसार का एक हिस्सा थे।
चन्द्र प्रभा सूद 

रविवार, 9 नवंबर 2025

डर पर विजय

डर पर विजय 

हम अपने आसपास देखते हैं कि हर मनुष्य को किसी-न-किसी कारण से डर लगता है। उसे डर क्यों लगता है? वह किससे डरता है? क्या वह छोटा बच्चा है जिसे डर लगता है? ये सभी प्रश्न बहुत ही महत्त्वपूर्ण हैं और विचारणीय भी।
         अब हम यह विचार करते हैं कि बड़े लोगों को डर क्यों लगता है? उसे डर तब लगता है जब वह अपनी घर-परिवार की और समाजिक जिम्मेदारियों से बचता है। घर के आवश्यक कार्यों अथवा दायित्वों को भी भूल जाता है। अपने कार्यक्षेत्र के दैनन्दिन कार्यों में असावधानी के कारण गलतियाँ कर बैठता है। इसलिए वह नौकरी खो जाने से डरता है। व्यापार में घाटा होने या उसके डूब जाने से वह डरता है। कम्पनी‌ में हड़ताल हो जाने के कारण वह बेरोजगार होने से डर जाता है।
        वह हर उस इन्सान से डरता है जिसके प्रति अपराध करता है। अपने घर-परिवार के सदस्यों, अपने बॉस, राज्य, न्यायालय, पुलिस, इन्कमटैक्स, एक्साइज आदि के फेर से मनुष्य डरता है। धर्म भीरू होने के कारण वह धार्मिक कार्यों का निष्पादन न कर पाने के कारण ईश्वर से डरता है। जब कोई परेशानी उसके जीवन में आती है तो वह अपने कृत कर्मों से घबराने लगता है।
          अपने अधिकारों के लिए हर कदम पर हंगामा करने वाला मनुष्य स्वयं अपने ही कर्त्तव्यों से मुँह मोड़ लेने से परहेज नहीं करता। अपने कार्यों में मनुष्य बहुत मजे से कोताही करता है फिर जब उसका परिणाम आने का समय  होता है तब वह आने वाली असफलता के कारण भयभीत होने लगता है। 
        कोई ऊँचाई से नीचे गिर जाने से डर से ऊँचाई वाले स्थानों या पर्वतों पर नहीं जाता है। कोई पानी में डूब जाने के डर से नदी-समुद्र में नहीं जाता। आग से जल जाने का भय उसे सताता है। प्राकृतिक कोप- बादल फटना, आँधी-तूफान, बाढ़, भूकम्प, अतिवृष्टि, अनावृष्टि आदि के प्रकोप से मनुष्य सदा ही डरता रहा है।
            इनके अतिरिक्त सड़क पर चलते समय गाड़ी की अथवा गाड़ी से दुर्घटना का डर उसे सताता है। सोचने की बात यह है कि जब इतना बड़ा मनुष्य डरने लगे तब हमें क्या उपाय करना चाहिए? उसे यदि कोई समझाएगा तो काट खाने को दौड़ेगा। मजे की बात यह है कि वह अपनी गलतियों को जानता है पर फिर भी अनजान बने रहने का नाटक करता है।
        बच्चे जब किसी भी कारण से डरते हैं तो हम उन्हें निडर बनने के लिए प्रेरित करते हैं। उन्हें  साहसी लोगों के किस्से  सुनाकर उत्साहित करते हैं। उन्हें आश्वस्त करते हैं कि हम उनके हाथ हैं इसलिए वे न डरें और बहादुर बनें। एक आयु प्राप्त मनुष्य तो कोई छोटा बच्चा नहीं है कि जब वह डर जाए तब उसे समझा-बुझा दिया जाए अथवा डाँट-डपट देने से उसके मन से डर निकल जाएगा। अब पुचकारने या दुलारने वाली उसकी आयु बीत चुकी है।
        मनुष्य अपने डर पर विजय कैसे पा सकता है? इसका सरल-सा उपाय है। मन से डर को निकाल भगाने के लिए किसी भी प्रकार के प्रलोभन से दूर रहे। अपने सभी दायित्वों का निर्वहण दक्षता से करे। अपने कार्यों में सदा पारदर्शिता यानि सच्चाई व ईमानदारी लाए। सकारात्मक दृष्टिकोण रखना आवश्यक है।
             डर से भागने के बजाय धीरे-धीरे उसका सामना करना चाहिए। यह उन स्थितियों पर नियन्त्रण का अनुभव करने में सहायता करेगा जिनसे हम डरते हैं। घबराहट होने पर अपनी हथेली पेट पर रखकर धीरे-धीरे गहरी साँस लें। इससे मनुष्य का मन शान्त होने लगता है और घबराहट को दूर करने में मदद मिलेन लगती है। डर जब मनुष्य पर हावी होने लगता है तब सच में वही हो जाता है जिसकी वह कल्पना कर रहा होता है। अपनी छोटी-छोटी सफलताओं के लिए खुद को प्रोत्साहित करना चाहिए। अपनी उन कमियों पर काम करना चाहिए जो डर का कारण बन रही हैं।  
              अपनी जीवन शैली में बदलाव करना आवश्यक होता है। योग और व्यायाम करने से मन शान्ति मिलती है और तनाव से निपटने में सक्षम हो जाते हैं। हास्य व्यंग्य देखना अथवा कोई रचनात्मक काम करना से मन को हल्का होता है और डर से लड़ने में सहायता मिलती है। बदलती परिस्थितियों को खतरे के स्थान पर विकास के अवसर के रूप में देखने का प्रयास करना चाहिए। 
           यदि डर बहुत अधिक हो‌ जाए या ऐसा लगने लगे कि स्वयं इससे निपट नहीं सकते हैं तो किसी मनोचिकित्सक से परामर्श कर लेना चाहिए।इन सबसे भी बढ़कर ईश्वर की शरण में चले जाना चाहिए जिससे मनुष्य के पास किसी प्रकार का डर न आता है और न ही उसे सताता है। उस मालिक की आराधना करने से ही मनुष्य को मानसिक व आत्मिक बल मिलता है।
          सयाने कहते हैं- 
                डर के आगे जीत है।
अत: इस डर को वश में करके मनुष्य को आगे बढ़ जाना चाहिए। इसी में समझदारी है।
चन्द्र प्रभा सूद 

शनिवार, 8 नवंबर 2025

बच्चे महान समालोचक

बच्चे महान समालोचक

बच्चों को कम समझने की गलती हम बड़ों को कभी नहीं करनी चाहिए। बच्चे बहुत समझदार होते हैं। वे अपने मुॅंह से चाहे कुछ कहें या न कहें पर वे हर चीज का मुआयना (observe) बड़ी  बारीकी से करते हैं। हर बात को अपने मन में बसाकर रखते हैं। बच्चों को हम महान समालोचक कह सकते हैं। बड़ों की कोई भी गलती उनकी नजर से बच नहीं सकती। इसका कारण उनकी जिज्ञासु प्रवृत्ति होती है। वे बार-बार प्रश्न करते रहते हैं। उसके पीछे हर बात की जानकारी लेना होता है। 
          वे हर जगह, हर बात पर सदा ही क्या, क्यों, किसलिए, कब आदि को ढूँढते रहते हैं। इन्हीं सारे प्रश्नों के उत्तर वे खोजते रहते हैं। अपनी जिज्ञासा को शान्त करने के लिए वे बारबार सबसे प्रश्न पूछते हैं और अपनी शंकाओं का समाधान करते रहते हैं।
कभी-कभी हम उनके इन प्रश्नों से झुँझला जाते हैं और डॉंटकर उन्हें चुप करा देते हैं। पर बालमन को इस डॉंट-फटकार से कोई लेना देना नहीं होता। फिर अगले ही पल वह किसी नए अनसुलझे प्रश्न को लेकर सवालिया निगाहों से देखते हुए पूछते हैं।
          बच्चों के विषय में चर्चा करते समय मुझे एक गाना स्मरण आ रहा है। वर्ष1996 में बनी मासूम फिल्म का गाना जिसके गीतकार और संगीतकार आनन्द राज आनन्द हैं तथा गायक आदित्य नारायण हैं। इस गीत में बच्चा अपनी समझदारी का बखान करते हुए कहता है -
छोटा बच्चा जान के न कोई आँख दिखाना रे
डुबी डुबी डब डब
अक्ल का कच्चा समझ के हमको न समझाना रे
डुबी डुबी डब डब
भोली सूरत जान के हमसे न टकराना रे
डुबी डुबी डब डब
ना धिन धिन्ना ना धिन धिन्ना नाच नचा देंगे।
          देखा जाए तो हम स्वयं ही उन्हें गलत आदतें सिखाते है। हम उनके सामने झूठ बोलकर कहीं भी जाते हैं पर उन्हें सच बोलने का पाठ पढ़ाते हैं। घर में नापसन्द या अनचाहे मेहमानों के आने पर हम उनका सत्कार भार समझकर करते हैं और उनकी पीठ पीछे उन्हें भला-बुरा कहते हैं। परन्तु अपने प्रियजनों के आने पर प्रसन्नता से आवभगत करते हैं। बच्चों के सामने बैठ कर अपने कार्यक्षेत्र की, आस-पड़ोस की, मित्रों की सम्बन्धियों अच्छी-बुरी सभी बातें चटखारे लेकर और शेखी बघारते हुए उनके सामने सुनाते हैं। 
            अपने चेहरों पर लगाए हुए नकली मुखौटों के कारण हम समय-समय पर अलग-अलग तरह से व्यवहार करने का प्रयत्न करते हैं। इन सबके अतिरिक्त किसी के दुख-सुख में मन माने तो हम शामिल हो जाते हैं अन्यथा बहानों की बड़ी लम्बी लिस्ट हमारे पास तैयार रहती है। हम आपस में घर-परिवार में  कैसा व्यवहार करते हैं? बड़े-बजुर्गों के प्रति हमारा रवैया कैसा है, सहानुभूति पूर्ण है या नहीं? छोटों व बराबर वालों के साथ हमारा बर्ताव कैसा है? आस-पड़ोस से हम लोग सहृदयतापूर्वक पेश आते हैं या नहीं? ये बातें भी बच्चों के कोमल मन की स्लेट पर अंकित हो जाती हैं जो समय के साथ-साथ और अधिक गहरी होती जाती हैं। 
            बालमन पर पड़े इन संस्कारों के विषय में वह हैरान होकर सोचता रहता है। उसकी यही सोच उसका मार्गदर्शन करती है। अपने आसपास घटित घटनाओं से वह नोट्स बनाता रहता है और जब मौका होता है तो सबके सामने बिना झिझक कह भी देता है कि फलाँ समय पर आपने ऐसा कहा था या किया था। उस समय घर के बड़ों को शर्मिन्दा होना पड़ता है। उस समय वे बगलें झाँकते हुए उस मासूम को डाँटकर अपने दिल की भड़ास निकाल लेते हैं। वे यह भी नहीं सोचते कि बच्चे के कोमल हृदय पर इस व्यवहार का अच्छा असर होगा अथवा नहीं।
             यदि बच्चों से हम अच्छा व्यवहार करने की अपेक्षा रखते हैं तो पहले अपने स्वयं के अन्तस में झाँककर देखना चाहिए। आत्मपरीक्षण करने पर समझ आ जाएगा कि बच्चे के इस मुँहफट रवैये के पीछे स्वयं हमारे से ही चूक हो गई है। बच्चा जिद्दी व अड़ियल होकर बिना कारण बार-बार माता-पिता का सिर क्यों नीचा कराता है? उनकी अवमानना करके उसे खुशी क्यों मिलती है? 
            बच्चों को हम जैसा बनाना चाहते हैं वे वैसे ही बन जाते हैं। स्वयं पर थोड़ा-सा ध्यान देने और अपने पर संयम रखने से हम बच्चों के व्यवहार को अनुशासित कर सकते हैं। बच्चों को सदैव उचित मार्गदर्शन की आवश्यकता होती है। बचपन से ही उन्हें संस्कारित करने के लिए माता-पिता को ध्यान देना चाहिए। तभी हम लोग उन्हें एक सभ्य तथा सुशिक्षित नागरिक बनाने के अपने दायित्व का पूर्ण रूपेण निर्वहण कर सकते हैं।
चन्द्र प्रभा सूद 

शुक्रवार, 7 नवंबर 2025

शिशु से जुड़ी हमारी आकॉंक्षाएँ

शिशु से जुड़ी हमारी आकॉंक्षाएँ


एक नन्हे से शिशु का जन्म जब किसी घर में होता है तब सब लोग बहुत प्रसन्न होते हैं। बच्चा अपने घर में खुशियॉं लेकर आता है। इसलिए बच्चे के जन्म के बाद हम सब उत्सव मनाते हैं। अपने बन्धु-बान्धवों को दावत देते हैं, उनके साथ अपनी प्रसन्नता बॉंटते है। इसका कारण यही होता है कि वह नवागन्तुक हमारे सपनों की एक मूरत होता है। उससे हमारी बहुत सारी आकॉंक्षाएँ और हमारे सपने जुड़े हुए होते हैं। हम लोग उस बच्चे में अपने भविष्य को देखने लगते हैं।

          अपने बच्चे को पल-पल बढ़ते हुए देखकर हम उत्साहित होते हैं। उसमें मानो हम अपना बचपन जीने लगते हैं। वह हमारे जीवन का केन्द्र होता है। हमारा सारा जीवन उसके इर्द-गिर्द चक्कर काटता रहता है। उसकी खुशी से हम प्रसन्न होते हैं। यदि उसे जर-सा भी कष्ट हो तो हम परेशान हो जाते हैं। हमारे सपने जो अधूरे रह गए थे, अपने उन सपनों को हम उसके माध्यम से पूरे करना चाहते हैं। उसमें हम अपना भविष्य देखते हैं। वह हमारे इस जीवन का आधार होता है।

          अपने बच्चों के लिए सारे सुख-सुविधाओं को जुटाते हुए हमारे मन में यही सोच होती हैं कि जब हम अशक्त होंगे अथवा वृद्ध होंगे तब वह ही हमारी लाठी बनेगा। बड़ा होकर वह हमारा ध्यान उसी प्रकार रखेगा जैसे हम उसका रखते हैं। बच्चे का पालन-पोषण हम उत्साहित होकर करते हैं। उसकी हर इच्छा या जरूरत को पूरा करने के लिए हम अपने जीवन के कष्टों की परवाह नहीं करते। उसकी शिक्षा-दीक्षा का ध्यान रखते हैं। उसे स्थापित करने के लिए अनेक यत्न करते हैं।

             दूसरी ओर घर में बैठे बड़े-बजुर्गों से कोई आशा नहीं होती। इसलिए उनकी ओर उतना ध्यान नहीं दिया जाता जितना देना चाहिए। वृद्धावस्था के कारण वे अशक्त हो जाते हैं। उनका स्वास्थ्य गिरने लगता है। वे पहले की तरह अपने कार्यों को उतनी चुस्ती-फुर्ती से नहीं कर पाते। एक प्रकार से वे बच्चों पर आश्रित हो जाते हैं। उन्हें अपने बच्चों के मजबूत कॉंधों का सहारा चाहिए होता है। उस समय उन माता-पिता की देखभाल बच्चों की तरह करने की आवश्यकता होती है। 

            यहॉं बच्चों का स्वार्थ जुड़ा हुआ नहीं होता। इसलिए उनके जीवन में उनकी कोई उपयोगिता नहीं रह जाती। बच्चों को यही लगता है कि उनके कारण घर में जगह घिरी हुई है। कब वे ऑंख मूॅंदे तो उनकी जगह खाली हो और वे भी उनके दायित्व से मुक्त हो जाऍं। अतः वे उन्हें भार की तरह लगने लगते हैं। यह समय बुजुर्ग माता-पिता के लिए बहुत कष्टकारी होता है। वे अपने बच्चों की ओर आशा भरी नजरों से देखते हैं।

           यदि उनके अपने बच्चे भी उनकी ठीक तरह से देखभाल नहीं करेंगे तो फिर वे किससे आशा रख सकेंगे। बहुत से घरों में वे अनचाहे सदस्य की तरह बन जाते हैं। उस समय मनुष्य भूल जाता है कि वे भी उसके माता-पिता हैं। उन्होंने भी अपने उन बच्चों से वैसी ही उम्मीद लगाई थी जैसी वे अपने बच्चों से कर रहे हैं। इस अन्तर को यदि सभी बच्चे समझ लें तो बजुर्गों के प्रति अपने दायित्वों से वे कभी भी मुँह नहीं मोड़ सकेंगे। बुजुर्ग भी स्वयं को अपने ही घर में उपेक्षित नहीं समझेंगे।

            एक ही घर में बच्चों और बड़े-बुजुर्गों के प्रति किए गए व्यवहार में इतना अन्तर किया जाता है। यह हर किसी को स्पष्ट दिखाई देता है। विधि का विधान देखिए कि न जाने समय कब करवट बदल लेता है। ये बच्चे बड़े होकर अपना एक अलग ही घोंसला बना लेते हैं। माता-पिता के उन सारे सपनों को और अरमानों को चकनाचूर करते हुए वे अपनी रोजी-रोटी, व्यवसाय अथवा किसी भी अन्य कारण से अपने ही देश में अन्यत्र अथवा विदेश में कहीं भी अपना आशियाना बनाकर चले जाते हैं। 

             इन्सान चाहे या न चाहे पर अपने बच्चों के उज्ज्वल भविष्य के लिए यह सब तो उसे करना ही पड़ता है। इसके लिए किसी को भी दोष नहीं दिया जा सकता। यह सब तो विधि का विधान है। सब मनुष्य के अन्न-जल पर निर्भर करना है। उसकी कर्मस्थली उसे वहाँ बुला ही लेती है और उस व्यक्ति को चाहे-अनचाहे जाना पड़ता है। उसके पास कोई अन्य विकल्प शेष नहीं बचता। यह सृष्टि का क्रम है कि आज जो बच्चे हैं वे आने वाली पीढ़ी के लिए माता-पिता होंगे। इसी प्रकार उनके बच्चे अपनी भावी पीढ़ी के माता-पिता बनेंगे। 

            आज की पीढ़ी के माता-पिता एक छतनार वृक्ष की भाँति हैं जो घर-परिवार को छाया और आशीर्वाद की अपनी पूँजी देते हैं। उनकी छत्रछाया में अनेक नए बच्चे रूपी बीज अंकुरित होते हैं। ऐसे उन गहरी जड़ों वाले वृक्षों को भी सहारे की आवश्यकता होती है। अत: उनके प्रति सदा ही सहृदयता का व्यवहार करना हर मनुष्य का कर्त्तव्य है। उनकी उचित देखभाल, उनकी सेवा-सुश्रुषा करना और उनकी दैनन्दिन आवश्यकताओं की पूर्ति करना बच्चों का परम कर्त्तव्य है। इस जिम्मेदारी से मुँह मोड़कर उन्हें अपयश का भागीदार बनने से बचना चाहिए।

चन्द्र प्रभा सूद 


गुरुवार, 6 नवंबर 2025

दूसरों के महल से ईर्ष्या नहीं

दूसरों के महल से ईर्ष्या नहीं 

दूसरों के सुन्दर महल देखकर ईर्ष्या करके अपने मन को अकारण व्यथित नहीं करना चाहिए। मनुष्य देश या विदेश कहीं भी घूमने जाए, वापिस तो उसे अपने घर ही आना होता है। अपना घर चाहे महल हो या झोंपड़ी हो, वहीं पर आकर मनुष्य को शान्ति मिलती है। किसी मनुष्य को उसके भाग्य से ज्यादा और समय से पहले कुछ नहीं भी मिलता। यदि भारतीय संस्कृति की इस थ्योरी पर हम विश्वास करते हैं तो भी हमें अनावश्यक रूप से दूसरों की उन्नति और अपनी तंगहाली पर शर्मिन्दा नहीं होना चाहिए।
           कोई भी इसे उचित नहीं कहेगा कि दूसरे का महल देखकर हम अपने झोंपड़े को अग्नि के हवाले कर दिया जाए। रहना तो हमें अपने घर में ही होता है। कबीरदास जी ने हमें समझाते हुए निम्न दोहे में कहा है-
      देख पराई चौपड़ी मत ललचावीं जी।
      रुखी सुखी खाए के ठण्डा पानी पी॥
अर्थात् दूसरों के ऐश्वर्य को देखकर अपना मन को नहीं ललचाना चाहिए। अपने भाग्य अथवा पुरुषार्थ से जो भी रूखा-सूखा मिले उसे खाकर और ठण्डा पानी पीकर सन्तोष करना चाहिए। 
            यह दोहा व्यक्ति को अपने पास जो है उसी में सन्तुष्ट रहने की शिक्षा देता है। लालच करने का कोई लाभ नहीं होता क्योंकि लालच एक बुरी बला है। इस लालच के फेर में पड़ने से मन सदा परेशान रहता है।
            कोई कितने व्यंजन खाता है? कोई कितने प्रकार के सुखों का भोग करता है? किसी के पास कितनी गाड़ियाँ हैं? कितने नौकर-चाकर हैं? इस सबको नगण्य (इग्नोर) करते हुए मनुष्य को सदा अपने पुरुषार्थ पर विश्वास करना चाहिए। जो भी हम प्राप्त करना चाहते हैं, उसके लिए ईमानदारी से प्रयत्न करना चाहिए। निस्सन्देह बारबार प्रयास करने और ईश्वर के न्याय पर भरोसा करके ही मनुष्य सदैव अपना मनचाहा प्राप्त सकता है। इसलिए स्वयं पर भरोसा रखना चाहिए।
             यह बात तो स्पष्ट है कि अपने पूर्वजन्म कृत कर्मों के फलस्वरूप भाग्य से जो भी हमें मिलता है, उसी पर सन्तोष करते हुए ईश्वर का धन्यवाद करना चाहिए। अनावश्यक ही भाग्य को कोसने अथवा उस मालिक को दोष देने से कुछ भी नहीं होने वाला। वह परमेश्वर बड़ा ही न्यायकारी है। किसी के साथ वह न अन्याय करता है और न ही पक्षपात करता है। इसलिए उसके न्याय पर तनिक भी सन्देह नहीं करना चाहिए। सभी जीवों को वह समभाव से देखता है।
          हम जो भी अच्छे या बुरे कर्म करते हैं, उसी के अनुसार ही हमें फल मिलता है। कारण यह है कि कर्म करने में हम स्वतन्त्र  हैं। जब हम सत्कर्म करते हैं तब ईश्वर को धन्यवाद देते हैं। परन्तु जब हम कुकर्म तब हम अपने मन के राजा होते हैं। उस समय हमें किसी से डर नहीं लगता। हम सारी दुनिया को अपनी मुट्ठी में करने, उसे आग लगा देने आदि की बात करते हैं। किसी की जान ले लेना, किसी का अपमान करना तो खेल बन जाता है। उस समय हम भूल जाते हैं कि इन सब का परिणाम भुगतना पड़ता है। सांसारिक न्यायालय से प्रमाणों के अभाव में बरी हो सकते हैं पर उस परम न्यायाधीश की अदालत से सजा पाए बिना नहीं बच सकते। क्योंकि वहाँ किसी गवाह या सबूत की आवश्यकता नहीं होती।
           इसीलिए ऋषि-मुनि और विद्वान सभी हमें हर कदम सम्भाल कर रखने का परामर्श देते हैं। यदि समय रहते हम चेत जाएँ तो उस प्रभु के कोप भाजन बनने से बच सकते हैं। तब उसकी बेआवाज लाठी हमें दुखों की ओर नहीं ले जाएगी। अपनी सुख-समृद्धि के रास्ते का रोड़ा हम स्वयं हैं। जब हम समाज विरोधी गतिविधियों में लिप्त होते हैं तभी उनका परिणाम न चाहते हुए दुखों के रूप में ही भुगतते हैं। हम अभावग्रस्त जीवन जीने के लिए विवश हो जाते हैं। 
            यही कारण है कि संसार में हमें इतनी असमानता दिखाई देती है। कोई मनुष्य बहुत सुन्दर है, कोई व्यक्ति उच्च शिक्षा से युक्त है, कोई मृत्यु पर्यन्त स्वस्थ रहता है, कोई अपने जीवन में सभी सुविधाओं का भोग करता है, किसी के बच्चे योग्य और आज्ञाकारी हैं, कोई उच्च पद पर आसीन है, कोई धन-सम्पत्ति से युक्त है और कोई हर प्रकार से सुखी जीवन जीता है।
           इसके विपरीत कोई मनुष्य कुरूप है, कोई दो जून की रोटी भी नहीं खा सकता, कोई जन्मजात रोगी है, किसी को जीवन भर लानत-मलामत ही झेलनी पड़ती है, किसी का परिवार युद्ध का मैदान बना रहता है, कोई विपन्न स्थिति में रहता है और कोई आजीवन अभावों में एड़ियाँ रगड़ते हुए मर जाता है।
           हमें सदा अपने कर्मों की शुचिता पर ध्यान देना चाहिए दूसरों से कभी ईर्ष्या-द्वेष नहीं करना चाहिए। उनकी समृद्धि को देख यथासम्भव सत्कार्यों की ओर प्रवृत्त होना चाहिए ताकि आगामी जन्मों हमें भी मनचाहे ठाठ मिल सकें। तब हम हर प्रकार की सुख-सुविधाओं का भोग कर सकें।
चन्द्र प्रभा सूद 

बुधवार, 5 नवंबर 2025

सुखी रहने का शार्टकट

सुखी रहने का शार्टकट

 सुखी रहने का शार्टकट है कि अपने जीवन में कोई झंझट न पालो। किसी जीव अथवा पशु-पक्षी से इतना मोह न बाँधो कि उनके जाने के बाद अनावश्यक रूप से परेशान होना पड़े या रोना पड़े।
        लोग विभिन्न प्रकार के पशु-पक्षियों को पालतू बना लेते हैं। फिर उसके बाद इंसानों की तरह उनकी देखरेख, खानपान, डाक्टरी सुविधाओं आदि के लिए समय निकालना पड़ता है। आपाधापी वाले जीवन में आजकल उसकी कमी सबसे ज्यादा रहती है।
        मैं सोचने लगी कि दो-चार प्रकार के ही जीव-जन्तु होंगे जिन्हें लोग पालतू बनाते हैं। पर गहराई से सोचने पर तो लिस्ट बढ़ती ही जाने लगी। हम इन पालतू जीवों का इस प्रकार  वर्गीकरण कर सकते हैं-
1. अपने शौक के लिए कुत्ता, बिल्ली, तोता, मोर, रंग-बिरंगी चिड़ियाँ, बतख, कबूतर, बटेर, सुन्दर चमकीली मछलियाँ आदि पालते हैं।
2. रोजी-रोटी के लिए लोग बंदर, साँप, नेवला, भालू, हाथी, घोड़ा, गधा, खच्चर आदि जीवों को पालते हैं।
3. दूध के व्यवसाय के लिए गाय, भैंस और बकरी आदि को पालते हैं।
4. मुर्गियों को भी अपने व्यवसाय के लिए पालते हैं।
5. कृषि के लिए बैलों आदि को पालते हैं।
      घोड़ा, भैंसा, बैल, गधा आदि को आज भी सवारी के लिए भी प्रयोग में लाते हैं।
हाथी भी प्रदर्शन का एक बड़ा माध्यम है। अनेक स्थानों पर इसकी आवश्यकता होती है। बंदर, साँप, नेवला और भालू के खेल हम प्राय: देखते रहते हैं।
        विदेशों में तो इन पशु-पक्षियों के अतिरिक्त और भी न जाने किन-किन जीवों को पालते रहते हैं जिनके बारे में डिस्कवरी आदि टीवी चैनलों पर हम अक्सर देखते रहते हैं।
        इस प्रकार हम देखते हैं कि विभिन्न प्रकार के पशुओं को हम अपनी जरुरत, मनोरंजन, घर की सजावट व सुरक्षा के लिए पालते हैं।
        कहते हैं पशु के साथ पशु बनना पड़ता है तभी इनका पालन कर सकते है। इनके रहने व खाने के लिए भी समुचित व्यवस्था करनी पड़ती है। अब शहरों में तो स्थानाभाव के कारण यह संभव नहीं हो पाता। कभी हम भारतीयों की समृद्धि के प्रतीक कहे जाने वाले गोधन, गजधन और बाजिधन अब घरों से लुप्त हो गए हैं। अब मुट्ठी भर लोगों के लिए ये व्यवसाय के लिए बनकर रह गए हैं।
          घरों में प्राय: कुत्तों को पाला जाता है। उनका स्वास्थ्य परीक्षण, खानपान की व्यवस्था, उन्हें प्रातः सायं सैर के लिए ले जाना आदि नियमित जिम्मेदारी होती है। यदि वे किसी को काट लें तो और समस्या हो जाती है।
          मछलियों को एक्वेरियम में सजा कर रखा जाता है। उनका पानी निश्चित अवधि में बदलना, खाने का प्रबन्ध करना आदि आवश्यक होता है। देखभाल में जरा सी चूक हो जाए तो मछलियाँ मर जाती हैं।
          इसी प्रकार अन्य सभी पशुओं की भी देखरेख, नियमित खानपान और उनके स्वास्थ्य आदि के प्रति सचेत रहना पड़ता है।
        कहने का सीधा-सा अर्थ है कि पशु भी बच्चों के समान पाले जाने चाहिएँ। यदि कहीं परिवार सहित घर से दूर जाना हो तो बड़ी विकट समस्या हो जाती है। पीछे उन जीवों की देखरेख में कमी न हो बस यही चिन्ता सताती रहती है। इन्हीं सभी प्रकार की समस्याओं को देखते हुए किसी ने हमें समझाते हुए कहा है-
    जे सुख लोड़ें जिन्दड़िए ते कुकड़ी वी न रख।
अर्थात् मनुष्य को जीवन में यदि सुकून से रहना हो तो उसे मुर्गी तक नहीं पालनी चाहिए।
चन्द्र प्रभा सूद 

मंगलवार, 4 नवंबर 2025

बेटियों की माता-पिता के प्रति चिन्ता

बेटियों की माता-पिता के प्रति चिन्ता

बेटियाँ सोचती हैं कि उनके माता-पिता की यदि उचित देखभाल हो तो वृद्धाश्रमों (old homes) की आवश्यकता ही नहीं रहेगी। यदि बेटे उनकी सेवा नहीं कर सकते तो वे अपने माता-पिता की सेवा कर पाएँ। हर बेटी को अपने माता-पिता से बहुत ही प्यार होता है। वह उन्हें कष्ट में नहीं देख सकती। यदि वे कष्ट में होते हैं तो वह बेचैन रहती है उसका मन किसी काम में नहीं लगता। वह उनकी हर प्रकार से देखभाल करना चाहती है।
          हमारे समाज का ढाँचा कुछ इस प्रकार का है जिसमें बेटों को ही माता-पिता की देखभाल व सेवा-सुश्रुषा का दायित्व निभाना होता है। माता-पिता संस्कार वश बेटी के घर न रहना चाहते हैं और न ही  उनसे आर्थिक मदद लेना चाहते है। अपनी इस जिम्मेदारी को वे बेटे निभा पाते हैं या नहीं। यदि नहीं निभाते तो क्यों? यह विचारणीय है। 
        वृद्धावस्था में जब शरीर अशक्त होने लगता है तब मनुष्य को किसी अपने के मजबूत कन्धों के सहारे की आवश्यकता होती है। जिन परिवारों में बेटे माता-पिता की सुविधाओं का पूरा ध्यान रखते हैं, उनकी अच्छी तरह से देखभाल करते हैं, उनके स्वास्थ्य पर नजर रखते हैं वहाँ तो सब ठीक-ठाक रहता है।
          इसके विपरीत जहाँ बजुर्गों को सदा ही अनदेखा किया जाता है वहाँ समस्याएँ उत्पन्न होती हैं। जो माता-पिता अपने सभी बच्चों का पालन-पोषण व शिक्षा-दीक्षा कराते हैं, उनकी सारी आवश्यकताओं को पूरा करते हैं, उनको सारे बच्चे मिलकर पाल नहीं सकते। उनको बुढ़ापे में असहाय छोड़ देते हैं। उन्हें पैसे-पैसे का भी मोहताज बना देते हैं। कैसा दुर्भाग्य है यह? 
          बेटियाँ जब अपने भाइयों को माता-पिता की अवहेलना करते देखती हैं तो उनके मन में पीड़ा होती है। वे चाहती हैं कि वे अपने माता-पिता का दायित्व उठाएँ। हालाँकि बहुत-सी बेटियाँ अपने माता-पिता की धन से सहायता करती हैं, उनका ध्यान भी रखती हैं और उनको मानसिक रूप से अहसास कराती हैं कि वे उनके साथ हैं।
        परन्तु यह तो समस्या का समाधान नहीं है। हर बेटी को विवाह के पश्चात अपने ससुराल जाना होता है। उसे वहाँ माता-पिता के रूप में मिले सास-ससुर मिलते हैं। बहू बनते ही उसे अपने पति के माता-पिता की ढेरों कमियाँ दिखाई देने लगती हैं। वह भूल जाती है कि उसके माता-पिता भी किसी के सास-ससुर हैं। वे भी अपनी बहू की आँखों में खटक सकते हैं। यदि इस चेन में थोड़ा परिवर्तन कर लिया जाए तो बहुत-सी समस्याएँ स्वयं ही सुलझ जाएँगी।
          अन्य समस्याओं के साथ यह भी एक समस्या है कि शादी के पश्चात बेटों को भी अपने माता-पिता में कमियाँ दिखाई देने लगती हैं। जिन माता-पिता ने उन्हें पाल-पोसकर बड़ा किया और योग्य बनाया। वे  ही अब अनकी आँख में किरकिरी की तरह खटकने लगते हैं। अपने सास-ससुर उन्हें अच्छे लगते हैं अपने माता-पिता नहीं। जबकि सब धन-दौलत अपने माता-पिता से चाहते हैं पर जब उनकी सेवा करने का समय आए तो कोई और उन्हें देखे।
        पारिवारिक ढाँचे में ऐसा व्यवहार तो किसी भी तरह से फिट नहीं बैठता। बेटियाँ यदि अपने सास-ससुर को माता-पिता की तरह मानकर उनकी कमियों और उनकी रोकटोक को नजरअंदाज कर लें तो बहुत सुधार हो सकता है। बेटियाँ जब अपने माता-पिता की नापसंद बातों को सहन कर सकती हैं और न चाहते हुए मानती भी हैं तो सास-ससुर की बातों पर झिकझिक क्यों होती है? 
          संयुक्त परिवारों के रहते वृद्धों की देखभाल की समस्या नहीं होती थी परन्तु एकल परिवारों के चलते यह समस्या विकराल रूप लेती जा रही है। यदि बेटा- बहू, बेटी और दामाद सभी अपने-अपने दायित्वों का निर्वहण करें और घर के बजुर्गों की सुचारू रूप से देखभाल करें तो न ओल्ड होम्स की आवश्यकता रहेगी और न  वे उपेक्षित अनुभव करेंगे।
चन्द्र प्रभा सूद