मजबूत-से-मजबूत सम्बन्धों की नींव हिलने में जरा भी देर नहीं लगती। यदि अपना समझकर किसी से अपेक्षा की जाए अथवा कोई हमसे अपेक्षा करे और वह किसी भी कारण से पूरी न हो पाए तो सम्बन्धों में दरार आने लगती है। इसके अतिरिक्त कभी किसी अपने की गई उपेक्षा से या दूसरों के द्वारा उपेक्षित होने पर भी सम्बन्ध दरकने लगते हैं।
अपेक्षा और उपेक्षा दोनों ही भाव बड़ी ही खूबसूरती से सम्बन्धों को तोड़ने के लिए आग में घी डालने का काम करती हैं। ये दोनों ही भावनाएँ सहृदय मनुष्य के लिए सदा घातक होती हैं।
मनुष्य ससार में अकेला रह नहीं सकता। उसके लिए सभी परिवारी जनों और बन्धुजनों का सहयोग आवश्यक होता है। इसी आदान-प्रदान के चलते समाज में उसे अपना मन मारकर बहुत कुछ करना पड़ता है अथवा सहना होता है।
वह कभी दूसरों से अपेक्षा करता है और कभी दूसरे उससे अपेक्षा करते हैं। यह क्रम अनवरत चलता रहता है। जब मनुष्य अपने माता-पिता, मित्रों-सम्बन्धियों अथवा सहयोगियों की अपेक्षाओं पर खरा उतरता है तब वह सबका प्रिय बन जाता है। सभी उसकी निष्ठा और कार्यशैली की तारीफों के पुल बाँधते नहीं थकते।
इसके अलावा भी उसे जीवन के हर मोर्चे पर कड़ी परीक्षाओं में उत्तीर्ण होना पड़ता है। जहाँ पर उससे कोई चूक हो गई अथवा वह असफल हो गया वहीं उसकी टीका-टिप्पणी आरम्भ हो जाती है। उसकी बुराई करने का विशेषाधिकार लोगों को मिल जाता है। कोई व्यक्ति अपने गिरेबान में झाँककर नहीं देखना चाहता कि उसकी सफलता का प्रतिशत कितना है। लोग तो बस दूसरे की कमियों को लपकने के लिए तैयार बैठे रहते हैं। इसका कारण है कि ऐसा करने से बिना जेब ढीली किए उनका मनोरंजन हो जाता है। वे इस अवसर का भरपूर लाभ उठाते हैं।
कोई भी व्यक्ति शत-प्रतिशत दूसरों की अपेक्षाओं पर खरा नहीं उतर सकता। इसी प्रकार हर अपने की सभी की अपेक्षाओं को पूरा करना भी किसी के बूते की बात नहीं होती। इसके पीछे मनुष्य की तत्कालीन आर्थिक, शारीरिक, धार्मिक, मानसिक स्थितियों का हाथ होता है। कभी-कभी मनुष्य की मजबूरी होती है और कभी आलस्यवश, हीनभावना या कमजोर इच्छा शक्ति के कारण वह पिछड़ जाता है।
मानव का स्वभाव है कि किसी के भी द्वारा की गई उपेक्षा को वह सहन नहीं कर पाता। उसका अहं उसे उन सबसे दूर कर देता है जो उसकी अवहेलना करते हैं। वह अपनों द्वारा उपेक्षित किए जाने को सहन नहीं कर पाता और उस स्थिति में वह मन-ही-मन टूटने लगता है। उन सबसे अपना सम्बन्ध विच्छेद तक कर लेता है। आजन्म उन सबका चेहरा भी नहीं देखना चाहता।
इसके विपरीत जब वह दूसरों की उपेक्षा करता है तो स्वयं को सही ठहराने के लिए उस समय सौ-सौ बहाने गढ़ लेता है। तब वह भूल जाता है कि जैसी पीड़ा उसे अपनी अवहेलना झेलते समय हुई थी वैसी ही व्यथा उन लोगो को भी हो रही होगी जो जाने-अनजाने उसके तिरस्कार के शिकार बने हैं।
इसलिए चाहे मनुष्य की अपेक्षा पूरी न हो अथवा उसे उपेक्षा का शिकार बनना पड़े, दोनों ही विपरीत स्थितियों के समक्ष आ जाने पर मनुष्य को अपना धैर्य कभी नहीं खोना चाहिए। उसे डटकर, सीना तानकर इन विरोधी परिस्थितियों का सामना करना चाहिए। उचित समय की प्रतीक्षा करनी चाहिए। ऐसा कठिन समय भी आखिरकार गुजर ही जाता है। उसके बाद सब अनुकूल हो जाता है और लोग उन बातों को ही भूल जाते हैं। तब उसके जीवन में एक नया सवेरा मुस्कुराते हुए खुशहाली लेकर आ जाता है।
चन्द्र प्रभा सूद
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गुरुवार, 11 फ़रवरी 2016
अपेक्षा और उपेक्षा
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