ईश्वर की कुदरत को निहारने लगो तो हमें उसका ओर-छोर ही समझ नहीं आता। कहाँ से आरम्भ करें? यह सबसे बड़ा प्रश्न सामने आ जाता है। हम जितना अधिक उसकी सृष्टि के बारे में सोचते हैं, उतना ही उसमें डूबते जाते हैं।
उसकी सृष्टि में डूबे रहने वालों को हम दार्शनिक कहते हैं। वे उसके चमत्कारों की विवेचना करते रहते हैं। उसकी बनाई हुई हर वस्तु की पूर्णता हमें विचार करने के लिए विवश कर देती है कि हम उसकी तरह क्यों नहीं हो सकते? उसकी बनाई किसी भी वस्तु को निहारने लगो, उस पर गहराई से विचार करने लगो तो बहुत खोजने पर भी हम उसमें कमी नहीं निकाल सकते।
प्रकृति को ही ले लो। सूर्य, चन्द्रमा, वायु, नदी, समुद्र, ग्रह और नक्षत्र आदि सभी अपने कामों को नियमपूर्वक बिना रुके, बिना थके चौबीसों घण्टे करते रहते हैं। उनके लिए न किसी अलार्म क्लाक की आवश्यकता है और न ही उन्हे अपने कार्य में कोताही बरतने के लिए डाँट-डपट की आवश्यकता होती है। ईश्वर को कभी भी समय-असमय उनकी क्लास लेने अथवा उन्हें समझाने की जरूरत नहीं पड़ती।
न ही वे सब अवकाश के लिए प्रार्थना पत्र मालिक को भेजते हैं कि वे थक गए हैं या सैर-सपाटे के लिए जाना चाहते हैं, इसलिए उन्हें अपने नित्य प्रतिदिन के कार्य कुछ समय के लिए मुक्त किया जाए। वे तो अनुशासन बद्ध होकर निरन्तर गतिमान रहते हैं। वे सब कभी शिकायत का मौका नहीं देते।
जहाँ भी दृष्टि डालो सृष्टि में प्रकृति का नैसर्गिक सौन्दर्य बिखरा हुआ है। उसे कुरूप बनाने में हम अपनी ओर से कोई भी कसर नहीं छोड़ते। फिर भी वह सौन्दर्य हम सबको बरबस आकृष्ट कर लेता है। शहरों और जंगलों में रंग-बिरंगे फलों और फूलो से लदे हुए वृक्ष हमें चमत्कृत कर देते हैं। फूलों का महकना उनकी सुन्दरता में चार चाँद लगा देता है। वह बहुत बड़ा चित्रकार है। उसका रंग-विन्यास हमारी समझ से परे की बात है।
इतने सुन्दर जलचर, नभचर और भूचर जीव बनाए हैं कि उन्हें निहारते ही बनता है। हम उन जीवों को अपनी जीभ के स्वाद के लिए निर्ममता से मारकार खा जाते हैं।
इसी प्रकार अन्य पदार्थों का भी जितना अधिक विश्लेषण हम करते जाते हैं, उतना ही उनमें डूबते चले जाते हैं। उस समय मन करता है कि काश वह जगत्कर्त्ता हमें मिल जाए तो हम अपनी जिज्ञासा शान्त कर लें।
हम भनुष्य यदि कोई भी नई वस्तु बनाते हैं तो कितनी बार उसका परीक्षण करते हैं कि कहीं कोई कमी न रह जाए। इतना सब होने के बाद भी हमसे कहीं-न-कहीं चूक हो ही जाती है। हम पुतले तो बना सकते हैं, उसे बैटरी से रटा-रटाया बुलवा सकते हैं परन्तु उसमें प्राण डालकर उसे सजीव नहीं कर सकते।
हम सांसारिक प्राणी एक परिवार अथवा कुटुम्ब में कुछ सीमित लोगों के साथ मिलकर नहीं रह सकते। हमारे आपसी मतभेद हमें दूरियाँ बनाने के लिए विवश कर देते हैं। उनके लिए सब साधन नहीं जुटा पाते अथवा अपने अहं के कारण हम चाहकर भी सबका साथ नहीं निभा पाते। एक वह परमपिता है जिसने न जाने कितने अरबों-खरबों जीवों को इस धरती पर उत्पन्न किया है और बड़ी ही सरलता से उन सबका ध्यान रखता है उन्हें सारी सुख-सुविधाएँ देता है।
हमारी बनाई हुई किसी भी रचना में कमी निकलना बहुत सरल है परन्तु उस परमात्मा की बनाई हुई एक भी रचना में कहीं त्रुटि की गुँजाइश नहीं है। इसीलिए वस महान् है और उसके समक्ष हम सब नतमस्तक हो जाते हैं।
चन्द्र प्रभा सूद
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बुधवार, 17 फ़रवरी 2016
ईश्वर की कुदरत
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