माता-पिता इस संसार में मनुष्य के लिए ईश्वर के समान होते हैं। मनुष्य यदि जीवन पर्यन्त उनकी सेवा-सुश्रुषा करता रहे तब भी उनके वह उनके उस ऋण से उऋण नहीं हो सकता जो उसे इस धरा पर लाने का उपकार वे उस पर करते हैं।
माता-पिता चाहे अमीर हों अथवा गरीब, पढ़े-लिखें हों या अनपढ़, समाज में ऊच्च स्थान रखने वाले हों या नहीं पर वे अपने बच्चों के लिए आदर्श होते हैं। केवल योग्य बच्चे ही माता-पिता का मान नहीं होते, माता-पिता भी बच्चों का मान होते हैं। उनका यथोचित सम्मान करना सन्तान का कर्त्तव्य है। जो बच्चे माता-पिता के प्रति अपने दायित्वों का निर्वहण नहीं करते उन्हें समाज में वह सम्मान नहीं मिलता, जो उन्हें उनकी योग्यता और प्रतिभा के लिए मिलना चाहिए।
कोई भी सभ्य समाज ऐसे नालायक बच्चों को सम्मानित नहीं करता जो स्वयं तो जीवन की सभी सुविधाओं का भोग करें, गुलछर्रे उड़ाएँ और उनके बेचारे माता-पिता दरबदर की ठोकरें खाएँ, बदतर जीवन व्यतीत करने के लिए विवश हो जाएँ, पैसे-पैसे के मोहताज होकर दो जून के खाने के लिए तरसें अथवा अपने ही नाती-पोतों से मिलने के लिए तड़पते रहें। ऐसे जीवन की कल्पना कोई नहीं करत
माता-पिता का सम्मान करना हर मनुष्य का नैतिक दायित्व है। भगवान गणेश की तरह उनके चरणों में सारे संसार को नाप लेने वाले और भगवान राम की तरह उनके आदेश को पत्थर पर लकीर मानने वाले श्रवण कुमार ही इस संसार में वास्तव में सुखी और समृद्ध कहलाते हैं।
उनके सुख के लिए वे क्या कह रहे हैं, इस बात पर ध्यान देते हुए उनकी राय को सम्मान पूर्वक स्वीकार करें। यदि अपने बच्चे उन्हें सम्मान नहीं देंगे तो अन्य लोग भी उनकी अवहेलना करेंगे, जिसे किसी भी तरह उचित नहीं ठहराया जा सकता।
यथासम्भव अपने समय में से थोड़ा समय निकालकर उनसे बातचीत करके उनकी परेशानियों को जानने का यत्न करना चाहिए। उनके दोस्त और प्रियजन यदि उनसे मिलने के लिए घर पर आएँ तो उनसे अच्छी तरह बोलें। उनके साथ अवांच्छित मेहमान की तरह व्यवहार नहीं करना चाहिए।
वृद्धावस्था में हर मनुष्य अपने अनुभवों या जीवन में घटित घटनाओ को बारबार साझा करना चाहता है। वह चाहता है कि सभी उसके अतीत से प्रेरणा लें, कुछ सीखें। इसलिए यदि वे एक ही कह
बात को बारबार दोहराएँ तो भी ऐसे सुनना चाहिए जैसे पहली बार सुन रहे हैं। इसके लिए उनकी उनकी हमेशा प्रशंसा करने में कंजूसी नहीं दिखानी चाहिए। माता-पिता सदा ही सन्तान के भले के लिए कार्य करते हैं। बच्चों का दायित्व बनता है कि वे उनके उपकारों को हमेशा याद रखें।
इस आयु में उन्हें उदास कर देने वाले बुरे समाचारों को उनसे साझा नहीं करना चाहिए बल्कि उनको अच्छे समाचार सुनाने चाहिए ताकि वे प्रसन्न रहें। उनके अतीत में घटित दुखदायी यादों को यदि वे याद भी करें तो उन्हें उन यादों से बाहर निकालने का प्रयास करना चाहिए। उन्हें बहलाने के लिए रिश्तेदारों या मित्रों से मिलवाना चाहिए। उन्हें बारबार अहसास कराना चाहिए कि वे उनके जीवन में महत्त्व रखते हैं। यदि वे निराश हों और स्वयं को किसी लायक न समझें तो भी उन्हें गौरवान्वित करना चाहिए। उनकी अमूल्य सलाह और निर्देश को स्वीकार करते हुए उन्हे घर के मुखिया ही मानते रहना चाहिए।
माता-पिता की आयु का सम्मान करते हुए उनके साथ ऊँची आवाज में बात नहीं करनी चाहिए। उनसे चर्चा करते समय फोन दूर रखना चाहिए और कानाफूसी नहीं करेनी चाहिए। उनकी बात काटकर या उनके विचारों को न घटिया बताकर उनकी आलोचना नहीं करनी चाहिए। न उनकी बुराई करने से बचना चाहिए और किसी अन्य यदि बुराई करे तो प्रतिरोध करना चाहिए। इसी तरह माता-पिता को भी किसी के सामने अपने बच्चो की बुराई नहीं करनी चाहिए। उन्हें घूरना या उनके सामने पैर नहीं पटकने चाहिए, अपने पैर या पीठ उनकी ओर करके भी नहीं बैठना चाहिए। ये सभी अवगुण बड़ों के अपमान करने के कारक कहलाते हैं
माता-पिता हमारे अपने हैं, हम उन्हीं का अंश हैं। इसलिए उन्हें अपने सुख, दुख और अपनी प्रार्थनाओं में शामिल करना चाहिए। चाहे वे हमारे लिए कुछ कर पाएँ या नहीं परन्तु उनको सम्मान देने का यह भी एक तरीका है। उनके शुभाशीषों से ही मनुष्य को यश और आत्मिक सुख मिलता है।
चन्द्र प्रभा सूद
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शनिवार, 27 फ़रवरी 2016
माता-पिता का सम्मान
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