दुख और सुख मनुष्य के अभिन्न मित्र हैं। कभी सुख साथ निभाने आता है तो कभी दुख दनदनाते हुए आ जाता है। इन दोनों पर मनुष्य का कोई वश नहीं चलता। उसके चाहने अथवा न चाहने से कोई अन्तर नहीं पड़ता। ये तो यथासमय आकर अपना मधुर और रौद्र रूप दिखा जाते हैं। इन दोनों के व्यूह में फंसा हुआ बेचारा मनुष्य मात्र मूक दर्शक बना सब कुछ सहन करने के लिए विवश हो जाता है।
सुख का समय आने पर मनुष्य के साथी अपने-पराए सभी लोग बनना चाहते हैं। उसकी समृद्धि को देखकर उसके इर्द-गिर्द गुड़ पर मक्खियों की तरह मंडराने वाले बहुत से लोग भी आ जाते हैं। उसका प्रशस्ति गान करके उसके दिमाग को वे सातवें आसमान पर चढ़ा देने में कोई कसर नहीं छोड़ते। बाद में उसकी निन्दा करने से बाज नहीं आते कि सुख-समृद्धि के आ जाने पर इसका दिमाग खराब हो गया है अथवा घमण्डी हो गया है। यह तो अपने बराबर किसी को नहीं समझता।
उनकी परीक्षा केवल दुख के समय की जा सकती है। तभी कहा है-
विपद कसौटी जो कसें ते ही साँचे मीत।
इस पंक्ति का अर्थ है मुसीबत में जो साथ निभाते हैं, वही वास्तव में अपने होते हैं। इसलिए इनकी परख दुख की कसौटी पर की जाती है।
उस समय वे स्वार्थी लोग अपना समय व्यर्थ गंवाए बिना शीघ्र किनारा कर लेते हैं। फिर ऐसा व्यवहार करते हैं मानो उनसे कभी जान-पहचान भी नहीं थी। वे हमारे सामने से नजरें चुराकर, कन्नी काटकर निकल जाते हैं। ऐसे स्वार्थी बन्धु-बान्धवों से सावधान रहना मनुष्य के लिए अत्यन्त आवश्यक होता है। आँखों से मोह-माया आदि की पट्टी हटा करके इन सबको पहचानने की आवश्यकता होती है ताकि कभी भी कोई उसकी भावनाओं के साथ खिलवाड़ न कर सकें, उसका शीशे की तरह नाजुक हृदय टूटकर चकनाचूर न हो सके।
जीवन में दुख को रोकने का एकमात्र उपाय यही है कि समय रहते यदि इस सच को स्वीकार कर लिया जाए कि इस असार संसार में सदा के लिए हमारा कुछ भी नहीं है, पहले भी हमारा कुछ भी नहीं था और भविष्य में भी हमारा कुछ नहीं रहेगा। यदि इस भाव को अपने अन्तस् में आत्मसात् कर लिया जाए तो फिर मन को कम कष्ट होता है। अन्यथा मनुष्य ऐसी विपरीत परिस्थितियों के आने पर अपनों द्वारा किए गए ऐसे अकल्पनीय व्यवहार से मानो टूटने लगता है।
इस प्रकार अपने विवेक का सहारा लेकर मनुष्य यह समझ जाता है कि संसार के ये सभी पदार्थ उसे केवल भोगने के लिए मिले हैं, दिल से लगाने के लिए नहीं मिले। जिसके ये सकल पदार्थ है वह कभी भी उन्हें वापिस ले सकता है। जैसे यात्रा करते समय हम उस स्थान विशेष का ध्यान रखते हैं और यात्रा समाप्त होते ही उससे निस्पृह होकर अपने रास्ते चल पड़ते हैं। तब उस स्थान अथवा वहाँ की वस्तुओं के प्रति हमें मोह नहीं रहता। उन्हें बिना किसी परेशानी के छोड़ देते हैं।
ओशो का कहना है कि दुख पर ध्यान दोगे तो हमेशा दुखी रहोगे, सुख पर ध्यान देना शुरू करो। दरअसल तुम जिस पर ध्यान देते हो वह चीज सक्रिय हो जाती है। ध्यान सबसे बड़ी पूँजी है।
ओशो के इस कथन का तात्पर्य है कि हम जिसको बारबार याद करते हैं, वह हमें मिल जाता है। यदि दुखों को पुन: पुन: स्मरण करेंगे तो वे रूलाने के लिए हमारे पास आएँगे। इसके विपरीत यदि सुखों का स्मरण करेंगे तो सुख हमें खुशियाँ देने आ जाएँगे। अत: ध्यान हमारी सबसे बड़ी पूँजी है। यदि हम उठते-बैठते, सोते-जागते चौबीसों घण्टे ही ईश्वर का ध्यान करेंगे तो उसे पा लेंगे। फिर चौरासी लाख योनियों के बन्धन से मुक्त होकर मुक्त हो जाएँगे।
सुख और दुख के क्रम को दिन और रात की तरह मानते हुए सहन करना चाहिए। मन में सदा यह विश्वास बनाए रखना चाहिए कि दुख के बाद सुख भी आएँगे। इसलिए सुख की आशा में दुख की काली घनी अंधेरी रात के बीत जाने की परीक्षा धैर्यपूर्वक करनी चाहिए और ईश्वर का धन्यवाद करना चाहिए।
चन्द्र प्रभा सूद
Twitter : http//tco/86whejp
सोमवार, 29 फ़रवरी 2016
दुःख से बचना
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें