अपनी एक स्वतन्त्र पहचान बनाना हर मनुष्य चाहता है। उसके लिए वह निरन्तर प्रयास करता रहता है। दिन-रात का अपना सुख-चैन बिसराकर वह अथक परिश्रम करता है, संघर्षरत रहता है। इसका कारण है कि दुनिया की भीड़ में कोई भी व्यक्ति खो जाना नहीं चाहता।
विचार करने का विषय यह है कि मनुष्य अपनी पहचान कैसे बना सकता है? वह क्या उपाय करे कि उसकी वह पहचान बनी रहे?
बच्चा जब छोटा होता है तब वह अपने माता-पिता के नाम से जाना जाता है। यानि मनुष्य की पहचान उसके कुल से, उसकी जाति से और उसके धर्म से होती है। जब वह थोड़ा बड़ा होता है तभी से वह अपनी स्वतन्त्र पहचान बनाने के लिए संघर्ष करने लगता है। वह चाहता है कि सब लोग उसको उसके नाम और कार्य से उसे पहचानें।
इसके लिए वह उच्च शिक्षा प्राप्त करके योग्य बनना चाहता है। अच्छी-सी नौकरी अथवा बड़ा-सा कारोबार करना चाहता है। वह चाहता है कि जिस भी किसी क्षेत्र में वह रहे, उसे वहाँ नम्बर वन की ही पोजिशन मिले।
ऐसी इच्छा करने में कुछ गलत नहीं है। उसे पाने के लिए प्रयास भी तो करना पड़ता है। यदि यह सब मात्र चाहत ही रहेगी और उसके अनुरूप परिश्रम व लगनशीलता नहीं होगी तो उस व्यक्ति की मनोकामना पूर्ण नहीं हो सकेगी। वह अपनी एक अलग पहचान बनाने में सफल नहीं हो सकेगा।
यदि कामना करने मात्र से और पलक झपकते ही सभी इच्छाएँ पूर्ण होने लगें तो उनका आनन्द ही नहीं रहेगा। वर्षों कठोर परिश्रम रूपी साधना करने के पश्चात ही मनुष्य को स्वयं उसकी पहचान रूपी श्रेष्ठ फल मिलता है। तब तक इन्सान आयु के बढ़ने के साथ-साथ परिपक्व हो जाता है। उसे तय की गई इस लम्बी यात्रा के सुखद व दुखद अनुभवों के पहलुओं पर विचार करने की समझ आ जाती है। तब अपनी बनाई हुई इस पहचान को वह आयुपर्यन्त सम्हालकर रखने पाने में समर्थ हो जाता है।
इसके विपरीत इस पहचान की सफलता का नशा जिनके सिर पर चढ़कर बोलने लगता है, इस संसार में पटखनी खाने से उन्हें कोई नहीं रोक सकता। यदि किसी भी क्षेत्र में नाम कमाया है तो अपने लिए और स्वयं अपनी प्रसन्नता के लिए। किसी दूसरे को तो उससे कोई अन्तर नहीं पड़ने वाला। यह निश्चित है कि कोई व्यक्ति आपके रौब में नहीं आएगा। हाँ, किसी को अपना स्वार्थ सिद्ध करना हो तो वह अलग विषय है। वह आगे-पीछे घूम सकता है, मिन्नत-चिरौरी कर सकता है और दिमाग खराब कर सकता है।
यह स्मरण रखना चाहिए कि इस विश्व में बहुत से नामचीन लोग हैं। उन बहुतों से यदि स्वयं की तुलना कर सकें तो फिर यह नशा सिर चढ़कर नहीं बोलता बल्कि पाँव जमीन पर रखने के लिए विवश कर देता है। इससे मनुष्य इस धरातल पर रहता है, गर्व में चूर होकर अनावश्यक ही उड़ान नहीं भरता। तब वह इस समाज में आलोचना का पात्र नहीं बनता अपितु एक सम्माननीय व्यक्ति बन जाता है।
हम इस बात को झुठला नहीं सकते कि कामयाबी में बहुत नशा होता है। मनुष्य को दम्भी बनने में जरा भी देर नहीं लगती। उस समय उसे सच्चे पथप्रदर्शक मित्रों की आवश्यकता होती है। हालांकि स्वार्थी लोगों का भ्रमजाल बहुत मजबूत होता है। वे अनावश्यक प्रशस्तियाँ गाते रहते हैं जो किसी को मोहित करने के लिए पर्याप्त होती हैं। उनके मायाजाल से बच निकलने वाला वास्तव में महान होता है। उस समय सच्चे और अच्छे मित्र चापलूसों की भीड़ में कहीं खो से जाते हैं या पीछे रह जाते हैं।
जब अपनी एक पहचान बन जाए तब उस मनुष्य को प्रयत्नपूर्वक अपने हितचिन्तकों को हमेशा अगली पंक्ति में रखने की आवश्यकता होती है। उनका साथ पाकर वह मनुष्य दिग्भ्रमित नहीं होगा तथा और अधिक उन्नति करता जाएगा।
चन्द्र प्रभा सूद
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सोमवार, 15 फ़रवरी 2016
स्वतन्त्र पहचान
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