सोमवार, 22 फ़रवरी 2016

रिश्तों की गरिमा

रिश्तों की अपनी ही गरिमा होती है। उनकी अनुपालना करना तलवार की धार पर चलने से कम नहीं होता। जहाँ कभी थोड़ी-सी चूक हुई वहीं रिश्ते लहुलूहान हो जाते हैं। उन्हें बड़े ही नजाकत से सम्हालना होता है।
           रिश्ते हमें जीवन में ईश्वर की ओर से दिया गया उपहार होते हैं। वे जन्म से ही हमारे पूर्वकृत कर्मों के अनुसार हमारे साथ जुड़े हुए होते हैं। उनके साथ जितना लेनदेन का सम्बन्ध होता है, उसी के अनुरूप उन रिश्तों का हमसे जुडाव होता है। ये सभी हमारे सुखों और दुखों में हमारे साथी बनते हैं। जितना जिसके साथ सम्बन्ध निश्चित होता है, उसे भोगकर वह रिश्ता हमसे विदा लेकर सदा के लिए बिछुड़ जाता है।
          मित्रों का चुनाव हम स्वयं करते हैं। हमें उन्हें अपने विवेक से परखना होता है। कुछ लोगों का मानना है कि रिश्ते वो बड़े नहीं होते जिनका सम्बन्ध जन्म से होता है। बल्कि रिश्ते वो बड़े कहलाते हैं जो दिल से जुड़ते हैं। ऐसे सम्बन्ध कुछ दूर तक साथ देते हैं। जहाँ दिलों में दरार आती है वहीं वे रिश्ते भी मन से उतर जाते हैं और वहाँ नफरत की दीवारें खड़ी हो जाती हैं।
             आज के भौतिकतावादी युग से  पहले लोग भावुक होते थे और रिश्तों का महत्त्व समझते थे। वे यही मानते थे कि मनुष्य अपने रिश्तेदारों से सुशोभित होता है। इसलिए वे उन्हें सहृदयता से निभाते थे। उसके बाद धीरे-धीरे लोग प्रैक्टिकल होने लगे, तब वे अपने रिश्तों से लाभ उठाने में दक्ष होने लगे। वहाँ उनके बीच स्वार्थ हावी होने लगे। आज इस भौतिक युग के लोग प्रोफेशनल हो गए हैं। इसलिए वे केवल उन लोगों के साथ अपना रिश्ता बनाना चाहते हैं जिनसे भविष्य में फायदा उठाया जा सकता है। दूसरे शब्दों में आज स्वार्थ की बुनियाद पर रिश्ते बनाए जाने लगे हैं।
यह स्मरण रखना चाहिए कि ऐसे रिश्ते बहुत सीमित समय तक जीवित रहते हैं। हमें उनका अन्त समीप ही मानकर चलना चाहिए।
            रिश्तों को निभाना कोई बच्चों का खेल नहीं है। रिश्ते शीशे की तरह नाजुक होते हैं, जरा-सी चोट लगने पर चटककर टूट जाते हैं और चकनाचूर हो जाते हैं। रिश्ते और शीशे दोनों ही में अन्तर होता है। शीशा हमारी मूर्खता अथवा लापरवाही से टूटता है परन्तु रिश्तों के टूटने में हम लोगों की गलतफहमी कारण होती हैं।
           रिश्ते अन्त तक हमारा साथ न छोड़ें उसके लिए हमें सबके साथ बराबरी का व्यवहार करना चाहिए। जब हम इनसे असमानता बरतते हैं तब मनमुटाव होने लगते हैं और दूरिया बढ़ने लगती हैं। यथायोग्य व्यवहार करना आवश्यक होता है।
             रिश्तों में एक-दूसरे की परीक्षा भी नहीं लेनी चाहिए। इससे सम्बन्धों की गरमाहट घटने लगती है। तब वे रिश्ते मात्र औपचारिक बनकर रह जाते हैं। हर रिश्ते में विश्वास होना भी आवश्यक होता है। माता-पिता का बच्चों पर विश्वास होना चाहिए। पति-पत्नी के रिश्ते में परस्पर विश्वास ही उन्हें जोड़कर रखता है। इसी प्रकार भाई-बहन में आपसी विश्वास की डोर उन्हें आजन्म बाँधे रखती है।
            ईश्वर के साथ हमारा रिश्ता सबसे अन्य सब से अलग तरह का होता है। वहाँ हम उस मालिक से गिला-शिकवा करते हैं और उससे नाराज हो जाने पर लानत-मलानत भी करते हैं। फिर भी वह रिश्ता बना रहता है। हम उसके बिना नहीं रह सकते। कुछ दिन की नाराजगी के बाद हम फिर उसकी शरण में चले जाते हैं।
            सांसारिक अथवा भौतिक रिश्तों में ऐसा नहीं होता। मनमुटाव या शिकवा-शिकायत की स्थिति में रिश्तों के टूटने में समय नहीं लगता। फिर सबका अहं आड़े लगता है और रिश्ते मृतप्राय: हो जाते हैं। अर्थात् केवल नाम के या दिखावे के रह जाते हैं। इसलिए प्रेम, विश्वास, आपसी भाईचारे और समव्यवहार से सभी रिश्तों को निभाना चाहिए।
चन्द्र प्रभा सूद
Twitter : http//tco/86whejp

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें