मानव मन की सोच जैसी होती है उसे यह संसार वैसा ही दिखाई देता है। यदि उसकी सोच का दायरा विस्तृत होगा यानि वह अच्छी, भली अथवा सुन्दर होगी तो उसे सारा संसार अच्छा, भला और सुन्दर नजर आएगा अन्यथा मन के भावों के विपरीत होने पर सब बदसूरत दिखाई देता है। उस बदसूरती में उसे अच्छाई कम और बुराई अधिक दिखेगी। तब उसे यह संसार रहने लायक नहीं प्रतीत होगा।
मनुष्य के मन में जब खुशी अथवा उल्लास होता है तब वह चाहता है कि हर व्यक्ति उसके साथ उसकी खुशी बाँटे और उसमें शामिल हो। उस समय उसे सारी कायनात अपनी तरह प्रसन्न प्रतीत होती है। उसे लगता है कि सारी प्रकृति उसका साथ दे रही है। उसके साथ रो रही है, हँस रही है, नाच-गा रही है अथवा चारों ओर अपनी खुशबू बिखेर रही है।
इसके विपरीत जब वह दुखों और परेशानियों से घिरा होता है तो उसे लगता है कि सारा जमाना उसका दुश्मन हो गया है। ईश्वर भी उससे नाराज होकर परेशान कर रहा है। सारी प्रकृति उसे उदास और बदरंग दिखाई देती है। उस समय उसे ऐसा लगता है मानो उसके साथ ही वह उत्साह रहित हो गई है।
मनुष्य के मन में ईर्ष्या, द्वेष, घृणा आदि भाव होते हैं तो उसे चारों ओर नफरत का व्यापार होता दिखाई देता है। तब उसे लगने लगता है कि आपसी भाईचारा सब खत्म हो गया है और सभी एक-दूसरे की टाँग खींचने में लगे हुए हैं। परस्पर नफरत के कारण कोई किसी को आगे बढ़ते हुए नहीं देखना चाहता, सबका खून सफेद हो गया है।
क्रोधित होने पर वह दुनिया को आग लगा देना चाहता है। मन में प्यार का भाव आने पर सभी उसे अपने लगने लगते हैं। उसे लगता है यह संसार मानो प्यार का सागर है जिसमें नहाकर सभी सराबोर हो रहे हैं। सब कुछ अच्छा और भला प्रतीत होता है। वह स्वयं भी सबसे प्रेम से मिल-जुलकर रहना चाहता है।
चोर को सभी लोग चोर दिखते हैं। हेराफेरी व चालबाजी करने वाले को सभी हेराफेरी करने वाले और चालबाज दिखाई देते हैं। भ्रष्टाचारी, चोरबाजारी करने वाले को सब भ्रष्ट लगते हैं।
सरल व सहज स्वभाव वालों को सभी सरल और सीधे लगते हैं। सज्जनों को सब सज्जन लगते हैं और मूर्खों को सब मूर्ख। पागल पूरी दुनिया को ही पागल समझते हैं। वीरों के लिए सभी वीर होते हैं और कायरों के लिए सब कायर होते हैं। सच्चे लोगों को सब सच्चे और झूठों को सब झूठे लगते हैं। इसीलिए असत्यवादी किसी पर विश्वास नहीं करते।
रैदास जी ने कहा था-
मन चंगा तो कठौती में गंगा।
अर्थात् यदि मन शुद्ध पवित्र हो तो उनके पास जो कठौती है, उसमें रखा हुआ पानी गंगाजल हो सकता है।
तुलसीदास जी ने भी मन के इन्हीं भावों के विषय में कहा था-
जाकी रही भावना जैसी प्रभु मूरत देखी तिन तैसी।
अर्थात् जैसी मनुष्य की भावना होती है उसे ईश्वर उसी रूप में दिखाई देता है।
तुलसीदास जी के कथन के अनुसार यदि हम विश्लेषण करें तो मनुष्य के मन के भावों के अनुसार ही उसे संसार और संसार के लोग दिखाई देते हैं।
इन सबसे अलग हटकर अन्य जीवों के विषय में देखें तो कह सकते हैं कि पशु-पक्षी आदि अन्य जीव भी प्रेम, घृणा और हिंसा की भावना समझते हैं। प्रेम की बदौलत शेर जैसे खूँखार, हाथी जैसे शक्तिशाली और साँप जैसे जहरीले जीव पालतू बनाए जा सकते हैं।
हम सार रूप में यही कह सकते हैं कि हमारे अन्तस् के भावों का प्रभाव दूसरे के ऊपर पड़ता है और उसी के अनुसार वे व्यवहार करते हैं।
चन्द्र प्रभा सूद
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बुधवार, 3 फ़रवरी 2016
मानव मन की सोच
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