चौबीसों घण्टे मनुष्य का यह मन सार्थक अथवा निरर्थक बहुत से विषयों पर कुछ-न-कुछ सोचता रहता है। जब वह अथक परिश्रम करके थक-हार जाता है तब चादर तानकर, गहरी नींद सोकर आराम करना चाहता है।
मनुष्य दिन-रात एक करके रोजी-रोटी कमाने के लिए बिना थके हाड़-तोड़ मेहनत करता है। वह अपने घर-परिवार के लिए दुनिया की सारी सुख और सुविधाएँ जुटाना चाहता है। बच्चों को अच्छी-से-अच्छी शिक्षा दिलाकर, अपने पैरों पर खड़ा करके, समाज में उन्हें एक स्थान दिलाना चाहता है। कभी वह अपने इस उद्देश्य में सफल हो जाता है और कभी उसे मुँह की खानी पड़ जाती है।
जब वह निराश होता है तब उसके मन में ये नकारात्मक विचार आने लगते हैं कि वह क्यों इतनी मेहनत करता है? हर रोज प्रात: होते ही प्रचुर धन कमाने की कामना को पूर्ण करने के लिए अपनी धुन में निकल जाता है?
अब बिना मेहनत किए तो कुछ भी नहीं मिल सकता। अपने स्वप्न को साकार करने के लिए हाथ-पर-हाथ रखकर नहीं बैठा जा सकता। एक छोटी-सी चींटी भी बारबार श्रम करती है और अन्तत: अपने लक्ष्य को पा लेती है। मनुष्य चींटी से भी गया-गुजरा है क्या? नहीं, वह विवेकशील प्राणि है। वह अपने जीवन में हार मानकर निराश कैसे हो सकता है?
यदि प्रतिदिन वह कमाने के लिए हाथ-पैर नहीं मारेगा तो अपना और अपने परिवार का भरण-पोषण नहीं कर सकेगा। सबकी आवश्यकताओं को पूरा नहीं कर सकेगा। उस समय घर-बाहर चारों ओर उसके नकारेपन या असफलता के कारण सभी उसे अपमानित करेंगे। यह असहनीय कष्ट उसके जीवन का नासूर बन जाएगा और उसे उद्वेलित करता रहेगा। यह कसक तब उसकी नींद चुरा लेती है कि वह अपने जीवन में सफलता के सोपान पर चाहकर भी नहीं चढ़ सका और न चाहते हुए हार गया।
यह बात ध्यान रखने योग्य है कि जब वह बिना परिश्रम किए खाली हाथ होगा तब उसकी सहायता करने के लिए कोई भी आगे नहीं आएगा। इसलिए अपने दायित्वों का निर्वहण करने के लिए धन का कमाना मनुष्य की मजबूरी है। कोई अन्य उसे पैसा, भोजन अथवा सुख-सुविधाएँ खैरात में नहीं देगा।
समय बीतते उसे जब यह ज्ञात हो जाता है कि वह मात्र एक कठपुतली है और उसकी डोर ऊपर वाले यानि ईश्वर के हाथ में है। पूर्व जन्मकृत कर्मों के अनुसार जो भी उसके भाग्य में है, वही उसे इस जन्म में मिलेगा। उसका परिश्रम करना भी तो एक प्रक्रिया है। कार्य तो उसे करना ही होगा क्योंकि वह निठल्ला नहीं बैठ सकता। यदि वह अकर्मण्य बन जाएगा तो रेस में पिछड़ जाएगा। ईश्वर ऐसे लोगों से प्रसन्न नहीं होता।
यद्यपि मनुष्य के वश में तो कुछ भी नहीं होता। वह अपनी इच्छा से स्वयं अपने लिए और अपने प्रियजनों के लिए सुख व सुविधाएँ तक नहीं खरीद सकता। एवंविध वह अपने दुखों का सौदा करके भी किसी अन्य को बेच नहीं सकता। यह सब कुछ उसके प्रारब्ध पर निर्भर करता है। इसी प्रकार दुनिया का यह सारा व्यापार उसके बस में नहीं है। उसके हाथ बंधे हुए हैं और वह लाचार है। वह मूक द्रष्टा बनकर सब कुछ घटित होते हुए देखता रहता है। उस सबका प्रतिकार करने की उसकी सामर्थ्य कदापि नहीं है।
यह कटु सत्य है कि समय से पहले और भाग्य से अधिक मनुष्य को कुछ भी नहीं मिल सकता। परन्तु इसके साथ यह भी सच्चाई है कि उसे परिश्रम तो करना ही पड़ेगा। बिना उद्यम के भाग्य फलदायी नहीं होता, ऐसा हमारे मनीषी हमें समय-समय पर समझाते रहते हैं। इस जीवन में अपना अस्तित्व बचाए रखने के लिए समय को बिना व्यर्थ गंवाए मनुष्य को चेत जाना चाहिए और कर्म करने में कोताही न बरतकर उद्यमशील बनना चाहिए।
चन्द्र प्रभा सूद
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शुक्रवार, 12 फ़रवरी 2016
धन से आवश्यकता पूर्ति
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