देखा है घर के
चिराग से जलते हुए
ऊँचे महलों को भी यहाँ
जिन्हें मान था अपनी शान पर
अंधेरों में गुम होते
उजालों के उन पलों को
जिनमें कैद है जिन्दगी की
खुशियाँ गम बनती सदा के लिए
ऐसे कुलदीपक तो
डुबो देते हैं माँ-पापा के
आशियानों को इस जग में
बेसहारा छोड़ते हैं तड़पने के लिए
सोचा है कभी तुमने
क्यों बन गए ये नौनिहाल
ज़ुल्म औ सितम करने वाले
वे भी थे कभी भोले बाबा की तरह
आँखों पर बंधी थी
यह मोह की काली पट्टी
जिसने बनाया नैनो से अंधा
तब भटके हम भटके ये मासूम बच्चे
चल पड़े थे अनकहे
अनजानी दुश्वार राह पर
पथ के थपेड़ों को झेलते हुए
नया कुछ और नया करने की चाह में
कर दिया हवाले औ
खो दिया उन सपूतों को
जिन पर फोड़ा था सबने
अपनी ही गलतियों का ठीकरा खुद
उदास हैं वे खुद
हताश हैं जिन्दगी की
हसीन वादियों से दूर हो
कानून की बेड़ियों में जकड़े आज हैं
और कहीं कोई
ले रहा दुनिया से विदा
अपनो ही के भीतरघात से
कुमार्गगामी छले गए अनजान बने
काश समय रहते
जाग जाते माता-पिता
समझा देते जग की रीत
न रोते और न होते यूँ लाचार बेबस।
चन्द्र प्रभा सूद
Twitter : http//tco/86whejp
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