परस्पर मिल-जुलकर और प्रेमपूर्वक रहना चाहिए। इससे एकता बढ़ती है और सौहार्द फैलता है। यदि किसी के भी साथ घृणा या ईर्ष्या की जाए तब चारों ही ओर परस्पर नफरत की आग भड़कती है जिसकी चपेट में बहुत कुछ जलकर खाक हो जाता हैं। इससे सबकी हानि होती है।
ईश्वर ने मनुष्य को सहृदय प्राणी बनाकर भेजा है। वह नहीं चाहता कि उसके बनाए हुए जीवों से कोई नफरत करे। वह स्वयं सबसे प्रेम करता है किसी से नाराज नहीं होता। इसलिए वह चाहता है कि सभी मिल-जुलकर रहें।
यदि किसी व्यक्ति की कोई बात पसन्द न आए तो उसे यह अहसास करवा दिया जाए कि उसकी अमुक बात अच्छी नहीं लगी। उसके बाद फिर अपने मन को एक-दूसरे की ओर से साफ कर लेना चाहिए। अपने मन में कलुषित भाव लाकर अनावश्यक पिष्टपेषण करने से सदा बचना चाहिए।
अपनी नाराजगी को केवल शब्दों तक रखना चाहिए, दिल की गहराई में बसाकर नहीं बैठ जाना चाहिए। कुछ कह लिया और कुछ सुन लिया, मन की भड़ास निकल गई। फिर ऐसे हिसाब बराबर करके हाथ मिला लेना चाहिए। दुश्मनी पालने से किसी का भला नहीं होता। अपनों को यदि इस तरह हम दिन-प्रतिदिन नाराज करते जाएँगे तो शत्रुओं की संख्या बढ़ाते जाएँगे। उस समय अपना कहने के लिए हमारे पास कौन रहेगा?
धीरे-धीरे अकेले हो जाने से जीवन यात्रा दुष्वार हो जाती है। कहते हैं-
'अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ सकता।'
अर्थात् अकेला मनुष्य तो कुछ भी नहीं कर सकता। हर कार्य को करने के लिए उसे बहुत से लोगों की आवश्यकता पड़ती है।
'एकता में बल है' कहकर इसीलिए मिलकर रहने के लिए प्रेरित किया जाता है। इसी भाव को इस तरह भी कहकर समझाया जाता है कि 'एक अकेला और दो ग्यारह।' यानि सामाजिक प्राणि समाज से कटकर अलग-थलग होकर अकेला नहीं रह सकता।
अकेले रहना किसी भी व्यक्ति विशेष के लिए अभिशाप से कम नहीं होता। ऐसा व्यक्ति सब परिजनों से कटकर मात्र दुखी ही रहता है। माना कि ऋषि-मुनि अकेले रह सकते हैं पर केवल तब, जब वे साधना कर रहे हों। हमेशा के लिए तो वे भी अकेले नहीं रह सकते।
ईश्वर भी अकेला नहीं रह सकता। यदि उसे अकेलापन न सताता तो वह इस सृष्टि की रचना करके स्वयं को व्यस्त न रखता। वह बस बैठा हुआ दुनिया के लोगों के खेल देखकर अपना मनोरंजन करता रहता है।
दूसरो को आकर्षित करने अथवा अपना बनाने का एकमात्र जादू है प्रेम का व्यवहार करना। इससे शेर जैसे खूँखार, हाथी जैसे शक्तिशाली और साँप जैसे जहरीले जीवों को वश में किया जा सकता है। कहने का तात्पर्य है कि संसार के सभी जीव प्यार की भाषा बखूबी समझते हैं। इसलिए किसी को भी अपना बनाना हो तो उससे प्यार और अपनत्व का ही व्यवहार करना चाहिए।
मन को थोड़ा-सा विशाल बनाने से उसमें छिपे घृणा, द्वेष आदि शत्रु स्वयं ही निकलकर भाग जाते हैं। मनुष्य की वृत्तियाँ सात्विक हो जाती हैं। उसके पास आने वाला हर जीव स्वाभाविक रूप से स्वयं ही उसके प्यार से सराबोर हो जाता है।
प्यार से सब कुछ आसान हो जाता है। मनुष्य के सभी कार्य स्वत: ही सिद्ध हो जाते हैं। इसका कारण यही है कि प्यार करने वाले व्यक्ति के बहुत से साथी अपने आप बन जाते हैं। इस तरह उसके अपनों की संख्या में बढ़ोत्तरी हो जाती है। जब बहुत से हाथ एकसाथ आगे बढ़ने लगते हैं तब दुनिया का कोई भी ऐसा कार्य नहीं है जो पूरा नहीं हो सकता।
जहाँ तक हो सके चारों ओर प्यार की वर्षा होती रहनी चाहिए। इस दुनिया से नफरत, आतंक और अन्य बुराइयों को दूर करने के लिए और स्वच्छ समाज के निर्माण के लिए इसकी महती आवश्यकता है। इसलिए प्रेम की गंगा बहाते रहिए और धरती पर ही स्वर्ग जैसी सुख एवं शान्ति का आनन्द लेते रहिए।
चन्द्र प्रभा सूद
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सोमवार, 8 फ़रवरी 2016
मिल-जुलकर रहना
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