यह दुनिया चला चली का मेला है। निश्चित समय के लिए हम इस संसार में आते हैं। अपना-अपना समय पूर्ण करके हम यहाँ से विदा ले लेते हैं और नयी यात्रा की शुरूआत करते हैं। पुनः पुनः वही क्रम जब तक संसार में अपने आने के लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर लेते। वह लक्ष्य है मोक्ष की प्राप्ति। जब तक अपना लक्ष्य हम पा नहीं जाते तब तक जन्म-मरण के चक्र में फंसे रहते हैं। चौरासी लाख योनियों में भटकते रहते हैं।
इसे एक कथा से समझते हैं। एक बड़ा सा कक्ष है जहाँ बहुत से द्वार हैं। उन सभी द्वारों में केवल एक ही द्वार खुला हुआ है। एक अंधा मनुष्य उस कमरे में बंद है। वह बाहर निकलने के लिए छटपटा रहा है। कमरे की दीवारों को टटोल कर खुले हुए द्वार को ढूँढकर बाहर निकालने का यत्न कर रहा है। बार-बार वह दीवारें टटोलता हुआ ज्योंहि वह खुले हुए दरवाजे तक पहुँचता है उसे खुजली हो जाती है। वह खुजाने लगता है और उसका हाथ दीवार से छूट जाता है। इस तरह वह दरवाजे से आगे निकल जाता है। फिर से वही भटकाव और नयी यात्रा। इस तरह बारंबार उसके साथ घटता है। वह परेशान है, रोता है, चिल्लाता है पर उसकी पुकार सुनने वाला वहाँ कोई नहीं है जो उसे कक्ष से बाहर निकाल सके।
इस कथा को पढ़कर अंधे पर गुस्सा आ रहा है न। यदि एकांत में बैठकर मनन करें तो हम समझ जाएंगे कि वह अंधा व्यक्ति कोई और नहीं हम स्वयं हैं। चौरासी लाख योनियों वाले कक्ष में काम, क्रोध, अहंकार, मोह-माया आदि की पट्टी बांध कर हम बार-बार चक्कर लगा रहे हैं। जब एक खुला हुआ मोक्ष का द्वार पास आता है अर्थात् मानव जन्म मिलता है तो विषय-वासनाओं की खुजली के कारण उस द्वार को पारकर आगे निकल जाते हैं। फिर जन्मजन्मान्तर तक इस संसार में भटकते रहते हैं।
समय रहते यदि हम न जागे तो पता नहीं कब हम उस अवसर को प्राप्त कर सकेंगे जब हम हाथ बढ़ाकर अपना लक्ष्य छू सकेंगे। इस जन्म-मरण के चक्र से हम ईश्वर की सच्चे मन से की गई प्रार्थना से ही मुक्त हो सकते हैं। अन्ततोगत्वा वही हमारी शरणस्थली है। उसकी गोद में जाकर ही हम सच्चा सुख और शांति पा सकते हैं।
चन्द्र प्रभा सूद
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शुक्रवार, 19 फ़रवरी 2016
दुनिया चला चली का मेला
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