'इस हाथ दो और उस हाथ लो' यह एक सार्वभौमिक नियम है जो सब पर लागू होता है। दूसरे शब्दों में कह सकते हैं- 'जैसा बोओगे वैसा काटोगे।'
किसी भी व्यक्ति को यहाँ छूट दिए जाने का कोई प्रावधान नहीं है। बिना किसी पक्षपात के ईश्वर निर्दिष्ट नियमों से ही यह संसार चलता है। हर जीव को भरपूर अवसर मिलता है। यदि उस मौके का वह लाभ उठा लेता है तो सर्वविध सुखों का खजाना उसे प्राप्त होता है। इसके विपरीत आचरण करने वालों के हिस्से बेशुमार कष्ट और परेशानियाँ आती हैं।
बहुत वर्षों पहले किसी फिल्म में एक गाना आया था-
गरीबों की सुनो वह तुम्हारी सुनेगा।
तुम एक पैसा दोगे वह दस लाख देगा।
इसका यही अर्थ हुआ कि वह मालिक हमारे लिए खजाने लुटाने को तैयार बैठा है। हम अपने को उसके योग्य सिद्ध करेंगे तभी तो वह हमारी झोलियाँ भरेगा। हमें बस अपनी झोली के छेदों को सिलकर उसे मजबूत बनाना है।
मनुष्य दूसरों से बहुत अपेक्षाएँ रखता है। वह भूल जाता है कि दूसरों से जो वह चाहता है पहले उसे वही दूसरों को देना होता है। तभी तो ईश्वर अनन्त गुणा करके उसे मनुष्य को वापिस लौटा देता है। यदि मनुष्य दूसरों से सेवा करवाना चाहता है तो उसे निस्वार्थ भाव से, बिना पक्षपात के सबकी सेवा करनी होती है। यदि मनुष्य दूसरों से मान की अपेक्षा करता है तो उसे सबको समान रूप से मान देना होगा। यदि मनुष्य दूसरों से यश की कामना करता है तो उसका कर्त्तव्य बनता है कि वह सबको यश दे। यानि यथायोग्य व्यवहार उससे अपेक्षित है।
इस बात को गाँठ बाँध लो कि जब शुभकर्म का फल हमारे लिए शुभ होगा तब अशुभकर्म का फल हमारी आशा के सर्वथा विपरीत अशुभ ही होगा। इस अशुभ फल को भोगते समय मनुष्य को नानी याद आ जाती है। कितने भी हाथ-पैर मार लो उससे बचने का कोई भी रास्ता नहीं मिल पिता। इसलिए किसी दूसरे के रास्ते में काँटे बिछाने पर फूलों की अपेक्षा करना अनुचित है। अर्थात दूसरों को दुख देने पर उसके बदले दुख ही मिलेंगे, सुख कदापि नहीं। किसी का अपमान करने के बदले में मनुष्य को भी अपमान ही सहन करना पता है। उसे प्रशंसा नहीं मिल सकती।
यदि भ्रष्टाचार, अन्याय, आतंक, रिश्वतखोरी आदि के बीज मनुष्य बोएगा तो अपने जीवन में उसे सुख-शान्ति के पलों की कामना नहीं करनी चाहिए।
इस संसार में हम अपने आसपास देखते हैं और बन्धु-बान्धवों को परामर्श भी देते हैं। जब किसी व्यक्ति की सन्तान उसकी आशा के विपरीत सामाजिक तौर से नालायक निकल जाए, अपने दुर्व्यवहार से उसका जीना दूभर कर दे, समाज विरोधी गतिविधियों में शामिल हो जाए अथवा धोखे से उसका सब धन, सम्पत्ति या व्यापार हथिया ले तब वे माता-पिता उस बच्चे से निराश होकर उससे कानूनी तौर पर सारे रिश्ते समाप्त कर लेते हैं अर्थात उसे disown कर देते हैं। इसका अर्थ यह हुआ कि अब उनका वह बच्चा उनके लिए अजनबी के समान है, उससे उनका कोई सम्बन्ध नहीं रहा।
पारस्परिक भौतिक सम्बन्धों में जब ऐसा व्यवहार किया जा सकता है तो फिर सामाजिक सम्बन्धों में भी यह न्याय हो सकता है। सरल भाषा में हम कह सकते हैं कि जैसा व्यवहार अपने लिए मनुष्य को दूसरों से चाहिए उसे वैसा ही व्यवहार दूसरों के साथ करना चाहिए।
दूसरों के साथ अच्छा या बुरा व्यवहार हमारे सामने कर्मफल बनकर आता है। उसे भोगना हमारी मजबूरी होती है, वहाँ शार्टकट अथवा बचाव का कोई उपाय कारगर नहीं होता। ये कर्मफल जन्म-जन्मान्तरों तक हमारे साथ-साथ चलते हैं, इन्हीं से हमारा इहलोक और परलोक प्रभावित होता है।
चन्द्र प्रभा सूद
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रविवार, 1 मई 2016
काँटे बिछाने वालों को फूल नहीं
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