शिक्षक अथवा अध्यापक का कार्य अपने विद्यार्थियों को सुसंस्कारित करना होता है। ताकि वे देश और समाज का गौरव कहला सकें। उनसे अपेक्षा की जाती है कि वे समाज के समक्ष अपना उदाहरण प्रस्तुत करें और अपने उच्च चरित्र का परिचय दें। उसके लिए पहली शर्त है उन शिक्षकों का चरित्रवान होना और उन विद्यार्थियों का आज्ञाकारी होना। शिक्षक को अपने छात्रों को सन्तान तुल्य मानकर एक पिता के समान उनके साथ व्यवहार करना चाहिए। यदि वह ऐसा करने मे असमर्थ रहता है तो वह इस गौरवशाली पद के कदापि योग्य नहीं है।
एक शिक्षक अपने विद्यार्थियों को जीवन में सफलता के सोपानों पर चढ़ते देखता है तो उसे वैसी ही प्रसन्नता मिलती है जैसी उस बच्चे के माता-पिता को। वह स्वयं तो अपने उसी स्थान पर मील के पत्थर की तरह खड़ा रहता है परन्तु अपने छात्रों को ऊँचाइयों पर पहुँचाने का कार्य बखूबी निभाता है। जिस प्रकार सड़क अपने स्थान पर स्थित रहकर यात्रियों को उनके गन्तव्य, उनकी मंजिल तक पहुँचा ही देती है। इसीलिए शिक्षक को भगवान का दर्जा दिया जाता है।
हमारी भारतीय सभ्यता ने गुरु और शिष्य दोनों को जहाँ संस्कार दिए हैं, वहीं उन्हें मर्यादाओं में भी बाँधा है। एक ओर जहाँ छात्रों को सिखाया कि अपने गुरु का सम्मान ईश्वर की तरह करो तो वहीं दूसरी ओर गुरु को भी शिक्षित किया कि अपने सभी शिष्यों के साथ समानता का व्यवहार करते हुए उन पर पुत्रवत् स्नेह रखे। उसके पास जो भी ज्ञान है उसे अपने छात्रों में बाँट देने में हिचकिचाए नहीं।
यद्यपि आज इस भौतिक युग में कुछ अध्यापक दुराचरण में लिप्त होकर इस पद की गरिमा को ठेस पहुँचा रहे हैं। कुछेक ने बलात्कार जैसे जघन्य अपराध को भी अन्जाम दे दिया है। छात्रों के साथ मारपीट व दुर्व्यवहार की घटनाएँ भी यदाकदा सुनने को मिल जाती हैं। उन मुट्ठी भर लोगों के कारण इस गुरु-शिष्य परम्परा को कलंकित नहीं किया जा सकता।
आजकल प्राइवेट सेक्टर की स्वार्थी प्रकृति और महत्त्वाकाँक्षा के कारण इस शिक्षक वर्ग का बहुत ही शोषण हो रहा है। जिसके कारण कम तनख्वाह पर भी काम करना उनकी मजबूरी बनती जा रही है। इसलिए अपना व परिवार का खर्च चलाने के लिए प्राइवेट ट्यूशन का सहारा भी उन्हें लेना पड़ रहा है। शिक्षा के इस पावन क्षेत्र में यद्यपि नई पीढ़ी की कोई रुचि नहीं है। वे शिक्षक बनने के स्थान पर दफ्तरों में अधिक वेतन पर कार्य करना चाहते हैं। अतः यहाँ इस क्षेत्र में गुणवत्ता की कमी बहुत अखरती है।
कुछ सरकारी नीतियों के चलते अभी तक साक्षरता दर का आँकड़ा अपेक्षाकृत कम है। देश में निरक्षर लोग बहुत बड़ी संख्या में हैं। पूरे देश में लाखों विद्यालय आज भी बिना अध्यापक के हैं अथवा उनकी संख्या नगण्य है। इस इक्कीसवीं सदी में आज भी हमारे देश में लाखों बच्चे ऐसे मिल जाएँगे जिन्होंने दुर्भाग्यवश कभी स्कूल का मुँह नहीं देखा।
जमीनी सच्चाई तो यही है कि एक अध्यापक अपने विद्यार्थियों को सदा ही अपना बेस्ट यानि सर्वश्रेष्ठ देने का प्रयास करता है। अपने मार्गदर्शन से उसके भावी कैरियर को बनाने में यथासम्भव प्रयास करता है।
सब विपरीत स्थितियों के चलते हुए भी शिक्षक वर्ग को उसकी जिम्मेदारी से मुक्त नहीं किया जा सकता। उसे अपने ज्ञान का समुचित उपयोग करना ही होगा और समय-समय पर उसे अपग्रेड भी करना होगा। जिससे अपने विद्यार्थियों के सर्वांगीण विकास में उनकी भूमिका पूर्ववर्ती आचार्यों की तरह महत्त्वपूर्ण रहे। वे अपने छात्रों के जीवन में मील के पत्थर की तरह सिद्ध हो सकें।
चन्द्र प्रभा सूद
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शनिवार, 14 मई 2016
शिक्षक दायित्व से मुँह न मोड़ें
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