मनुष्य अपनी खुशी धन-वैभव में ढूँढता है। वह भूल जाता है कि दुनिया के सारे ऐश्वर्य केवल साधन मात्र हैं वे साध्य कदापि नहीं बन सकते। हम अपने लिए दिन -रात एक करके परिश्रमपूर्वक साधन जुटाते जाते हैं, वे हमें क्षणिक सुख का अहसास देते हैं। उन्हें भोगने के पश्चात वे हमारे लिए सामान्य जैसे हो जाते हैं, विशेष नहीं रहते। कभी उन्हें पाने के लिए हम मरे जा रहे थे और अब उनकी परवाह भी नहीं करते।
यह इन्सानी स्वभाव है कि वह हर वस्तु से शीघ्र ही उकता जाता है अर्थात् बोर हो जाता है। प्रसन्नता पाने के लिए या सुखी रहने के लिए केवल धन, दौलत, प्रापर्टी आदि की आवश्यकता नहीं होती, मनुष्य इनके अभाव में भी मस्त रह सकता है। सच्ची खुशी का कारण मन है जो सदा भटकाता रहता है।
इसी बात को एक बोध कथा के माध्यम से समझते हैं। एक शहर में बहुत अमीर व्यक्ति रहता था। अत्यधिक धनी होने पर भी वह सदा दुखी रहता था। एक दिन वह महात्मा के पास गया और उन्हें अपनी समस्या बताई।
उन्होने सेठ की बात ध्यान से सुनी और कहा कि कल इसी समय मेरे पास आना। मैं तुम्हारी सारी समस्या का हल बता दूँगा। सेठ खुशी-खुशी घर गया। जब अगले दिन वह महात्मा के पास आया तो उसने देखा कि वे सड़क पर कुछ ढूँढने में व्यस्त हैं।
सेठ ने उस खोई वस्तु के बारे में पूछा जिसे वे ढूँढ रहे हैं। उन्होंने बताया कि उनकी एक अंगूठी गिर गयी है और वे उसी ढूँढ रहे हैं पर वह अंगूठी मिल ही नहीं रही। यह सुनकर वह सेठ भी अंगूठी ढूँढने में लग गया। सेठ ने महात्मा से कुछ समय बाद पूछा कि उनकी अंगूठी गिरी कहाँ थी। उन्होंने जवाब दिया कि अंगूठी मेरे आश्रम में गिरी थी पर वहाँ बहुत अंधेरा है अतः वे यहाँ सड़क पर ढूँढ रहे हैं।
सेठ ने चौंककर पूछा कि जब अंगूठी आश्रम में खोई है तो वहाँ कैसे मिल सकती है। महात्मा ने मुस्कुराते हुए कहा कि यही तुम्हारे कल के प्रश्न का उत्तर है, खुशी तो अपने मन में छुपी रहती है लेकिन उसे धन में खोजने की कोशिश करते हैं। इसीलिए दुखी रहते हैं। यह सुनकर सेठ महात्मा के पैरों में गिर गया।
यही बात हम सभी पर लागू होती है। जीवन भर पैसा इकट्ठा करने के बाद भी इंसान खुश नहीं रहता क्योंकि हम पैसा कमाने में इतना मगन हो जाते हैं कि बाकी सब कुछ भूल जाते हैं। बच्चा जैसे किसी खिलौने के लिए हठ करता है और जब उसे वह दिला दिया जाता है तब वह दीन- दुनिया भूल जाता है। कुछ ही समय उससे खेलकर उस खिलौने से उसका मन भर जाता है तो उसे फैंक देता है। उसे इस बात का कोई क्मतलब नहीं होता कि वह कितना कीमती खिलौना था। वही हाल हम सभी का भी है।
प्रयास यही करना चाहिए कि अपने बच्चों को धनवान होना सिखाने के स्थान पर खुश रहना सिखाना चाहिए ताकि बड़े होने पर वे रिश्तों की अहमियत समझ सकें और वस्तुओं की उपयोगिता समझ सकें, न कि उनके मूल्य को।
खुशियों के पल खोजने होते हैं। हम बड़ी-बड़ी खुशियों को पाने की फिराक में रहते हैं। यह भूल जाते हैं कि बड़ी खुशियाँ तो जीवन मे गिनी-चुनी आती हैं। इसलिए छोटे-छोटे खुशियों के पल यत्नपूर्वक खोजने चाहिए।
स्वामी विवेकानंद का इस विषय में कथन है कि 'समस्त ब्रह्माण्ड हमारे इस शरीर के अंदर ही विद्यमान है जबकि हम जीवनभर इधर-उधर भटकते रहते हैं। सत्य बोलना, परोपकार करना, अच्छी सोच रखना आदि बहुत बड़े सुख हैं।'
स्वामी विवेकानन्द का कथन सर्वथा उपयुक्त है कि वास्तविक सुख और शान्ति मनुष्य को शुभकार्य करके ही मिलती है। किसी भूखे को भरपेट खाना खिलाने पर जो खुशी मिलती है वह करोड़ों रूपए खर्च करके भी नहीं मिल सकती। इसलिए सच्चा सुख खोजना हो तो शुभकर्म करते हुए मन को शुद्ध और पवित्र बनाना चाहिए। ईश्वर की शरण में जाने पर परम सुख मिलता है।
चन्द्र प्रभा सूद
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बुधवार, 18 मई 2016
ख़ुशी धन-वैभव में नहीं
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