ईश्वर की पूजा-अर्चना यानि प्रार्थना करना मनुष्य के लिए बहुत आवश्यक होता है। इससे मनुष्य का लोक-परलोक दोनों ही सुधरते हैं। उसका आत्मिक बल बढ़ता है और उसे मानसिक शान्ति मिलती है।
प्रभु की प्रार्थना करना और उसका ध्यान करना इंसान के लिए बहुत जरूरी होता हैं। जब मनुष्य सच्चे मन से प्रार्थना करता है तब भगवान उसकी प्रार्थना को सुनकर देर-सवेर उसे पूरा करते हैं। वह मालिक मनुष्य के भाव को चाहता है। उसे किसी भी प्रकार का प्रदर्शन अच्छा नहीं लगता।
जब मनुष्य भगवान का ध्यान करता है तब वह उसकी बात सुनते हैं। ध्यान की अवस्था में मनुष्य ईश्वर के करीब होता है। संसार के सारे कार्य-व्यवहार से दूर रहकर वह मालिक के पास बैठता है। इस प्रकार वह उसके साथ एकात्म होने का प्रयास करता है। दोनों ही स्थितियों में मनुष्य का ही लाभ होता है।
इस सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को बनाने वाला परमात्मा है और हर जीव के लिए वही सब प्रकार की व्यवस्थाएँ भी करता है। जब तक मनुष्य इस सत्य को स्मरण रखता है तब तक वह सावधान रहता है। वह कुमार्ग पर नहीं चल सकता। अपने जीवन में वह हर कदम फूँक-फूँककर रखता है ताकि उससे कोई अपराध न हो जाए।
जब वह अपने अहं में चूर हो जाता है तब स्वयं को उस परमात्मा से भी महान् समझने लगता है। उस समय वह अहंकारी बनकर वह अपनी औकात भूल जाता है। अपने दुष्कर्मो के कारण उसे भी उस परम न्यायकारी परमेश्वर से सजा तो मिलती है जैसे हम गलती करने पर बच्चों या अपने अधीनस्थों को देते हैं। कहते हैं कि ईश्वर की लाठी बेआवाज होती है और उसका प्रहार बहुत ही कठोर होता है। जब अपने दुष्कृत्यों का फल मानव को भोगना पड़ता है तब वह उसकी सहनशक्ति से परे हो जाता है।
संसार में विद्यमान नानाविध पदार्थ वह मालिक हमें बिनमाँगे झोलियाँ भरकर देता है। अब सबके समक्ष यह समस्या उठती है कि हम उसे क्या अर्पित कर सकते हैं? कहते हैं कि एक बार एक व्यक्ति ने ईश्वर से प्रश्न किया था कि वह उसे किस प्रकार रिझा सकता है और उसे क्या अर्पित कर सकता है?
वास्तव में यह प्रश्न केवल उस व्यक्ति कआ नहीं हम सभी का भी है। इस संसार में कोई ऐसी वस्तु नहीं हैं जो उस प्रभु को समर्पित की जा सके। ईश्वर ने इस प्रश्न को सुनकर उत्तर दिया कि संसार की हर वस्तु उसी ने ही मनुष्य को दी है। मनुष्य के पास अपनी एक ही चीज है, वह है सिर्फ उसका अहंकार। वह उसे मालिक ने नहीं दिया। प्रभु का कहना है कि मनुष्य वही अहंकार यदि उसे अर्पित कर दे तो उसका जीवन सफल हो जाएगा।
इसका तात्पर्य यही है कि मनुष्य को सरल, सहज और सहृदय बनना चाहिए, अहंकारी कदापि नहीं। ईश्वर को घमण्डी लोग बिल्कुल पसन्द नहीं है। वह स्वयं दयालु, प्यार करने वाला और सभी जीवों का हितचिन्तक है। उसे सदाचारी और परोपकारी लोग ही भाते हैं। अहंकारी का सिर कभी-न-कभी नीचा हो ही जाता है।
ओशो का कथन है कि आस्तिक के बजाय नास्तिक के लिए परमात्मा को पाने की ज्यादा सभावना है क्योंकि आस्तिक तो झूठ से ही ईश्वर को पाने की शुरूआत करता है। ईश्वर का उसे पता नहीं है और उसने ईश्वर को मान लिया। यहीं पर तो बेईमानी हो गई। जब मान ही लिया तो अब खोज क्या खाक होगी? जब उसे झूठा ही मान लिया, तो फिर खोज का तो अन्त हो गया।
इसलिए परमात्मा को पाने के लिए, उसको जानने और समझने का सदा प्रयास करना चाहिए। उसकी निष्काम उपासना करनी चाहिए। उसके गुणों का अंशमात्र भी यदि मनुष्य अपना ले तो उसके इहलोक और परलोक दोनों संवर सकते हैं।
चन्द्र प्रभा सूद
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शुक्रवार, 20 मई 2016
ईश्वर की पूजा-अर्चना
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