मनुष्य को अपने जीवनकाल में इस बात की चिन्ता छोड़ देनी चाहिए कि कौन उसे दुख पहुँचाता है या उससे नफरत करता है बल्कि उसकी चिन्ता करनी चाहिए कौन उसे प्यार करता है। क्योंकि मनुष्य की सारी खुशियाँ उसी प्यार से जुड़ी होती हैं यानि मौजूद होती हैं। जिन्दगी में जितना अधिक हसीन पलों को याद किया तो जीना उतना ही सुखद व सुगम हो जाता है।
परस्पर प्यार व आपसी विश्वास दुनिया का वह सबसे खूबसूरत पौधा है जो जमीन पर नहीं दिलों में उगता है। जिस प्रकार कड़वी गोलियाँ चबाई नहीं निगल ली जाती हैं। उसी प्रकार ही अपमान, धोखे, असफलता जैसी कड़वी बातों को भी सीधे गटक लिया जाए तो आपसी कड़वाहट समय रहते समाप्त हो जाती है। यदि उन्हें चबाते रहेंगे यानि पिष्टपेषण करते रहेंगे तो जीवन दुष्वार हो जाता है और जीने का आनन्द नहीं रहता। अपना मन ही कलुषित होता रहता है।
मनुष्य यदि यही सोचता रहे कि फलाँ व्यक्ति ने उसको उस समय यथोचित मान-सम्मान नहीं दिया अथवा यही विचार करके हलकान होता रहे कि उसने मुझे नहीं पूछा तो मैं सम्बन्ध क्यों रखूँ, तो जीना मुहाल हो जाता है।
सम्बन्धों अथवा रिश्तों की सिलाई यदि भावनाओं के पक्के धागे से की जाए तो उनका टूटना मुश्किल होता है। दूसरे शब्दों में कहें तो कोई कितना भी यत्न कर ले उन रिश्तों को नहीं तोड़ सकता। यदि रिश्तों की बुनियाद स्वार्थ पर रखी गई है तो उनका लम्बे समय तक टिकना मुश्किल है। स्वार्थों की पूर्ति होते ही वे रिश्ते समाप्त हो जाते हैं। तब फिर वहाँ एक-दूसरे को पहचानना भी नागवार हो जाता है।
इस क्षणभंगुर जीवन का कोई भरोसा नहीं है। कौन इस संसार से पहले विदा लेगा और कौन बाद में, इसके विषय में कोई नहीं जानता। सब भविष्य के गर्भ में छुपा हुआ है। बाद में अपनों को खोकर बहुत आघात लगता है और मानसिक सन्ताप होता है। उस समय केवल हाथ मलते हुए रह जाना पड़ता है। इसलिए पश्चाताप करने से अच्छा है रिश्तों में अनावश्यक आने वाली दूरियों को पाट दिया जाए। सम्बन्धों की गरिमा को बनाए रखने के लिए सबसे सामञ्जस्य बनाए रखना चाहिए।
मन को लघु अथवा उदार बनाना होता है। यदि मन को लघु बना दिया तो मनुष्य की चिन्तन शक्ति संकीर्ण हो जाती है। वह मैं, मेरा घर, मेरे परिवार आदि तक ही सिमटकर रह जाता है। उसकी स्वार्थी प्रवृत्ति उस पर हावी होने लगती है। उसमें किसी अन्य के लिए कोई जगह नहीं बच पाती। ऐसे लोग आत्मकेन्द्रित हो जाते हैं और पूर्वाग्रहों को पाल लेते हैं। इनके लिए सभी रिश्ते-नाते बस नाममात्र के ही रह जाते हैं।
इसके विपरीत मन को थोड़ा उदार या विशाल बना लेने से बहुत-समस्याएँ स्वयं ही समाप्त हो जाती हैं। सबको साथ लेकर चलने की इनकी प्रवृत्ति इन्हें सबका प्रिय बना देती है। रिश्तों को तोड़ने के बजाय उन्हें बनाए रखने में ये लोग अधिक विश्वास रखते हैं। दूसरों से होड़ करने के स्थान पर उन्हें साथ लेकर चलना ही समझदारी होती है। ऐसा व्यवहार करने से मनुष्य की आत्मा प्रफुल्लित रहती है और उसमें उत्साह बना रहता है।
सकारात्मक सोच रखने वाले लोग हर हाल में अपेक्षाकृत अधिक सुखी रहते हैँ। नकारात्मक सोच रखने वालों को सदा ही मानसिक पीड़ा का अनुभव होता है। वे जीवन से हमेशा निराश रहते हैं।
जहाँ तक हो सके रिश्तों को फटने मत दो और यदि दुर्भाग्य से कभी ऐसा हो जाए तो उनको इतनी खूबसूरती से रफू कर दो कि किसी को कभी पता ही न चल सके कि कभी उनमें कभी पैबन्द लगाने की आवश्यकता हुई थी।
चन्द्र प्रभा सूद
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मंगलवार, 17 मई 2016
कौन दुःख देता है की चिन्ता छोड़ो
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