अपने घर-परिवार और नौकरी-व्यापार आदि के दैनन्दिन दायित्वों को पूरा करने की फिराक में मनुष्य उस परमात्मा को बिल्कुल ही भूल जाता है जिसने उसे इस संसार में भेजा है। वह रोजी-रोटी जुटाने के चक्कर में दिन-रात एक कर देता है पर मालिक की याद उसे नहीं आती।
इस संसार में आने से पूर्व अंधेरे से घबराकर वह बार-बार मालिक से प्रार्थना करता है कि उसे अंधकार से मुक्ति देकर उजाले की ओर ले चलो। दुनिया में जाकर वह प्रभु का स्मरण करेगा, उसे पलभर के लिए भी नहीं भूलेगा। और इसी प्रकार इस जगत से विदा लेते समय दाता से रो-रोकर प्रार्थना करता है कि आगे मानव तन देना ताकि इस जन्म में पूरी तरह से जो तेरी भक्ति नहीं कर पाया, तब करूँगा। मैं अपना अगला जीवन पूर्णरूप से तुझे समर्पित करूँगा।
पुराना तन पीछे छूट गया और नया चोला भी मनुष्य को मिल गया, अब क्या? बचपन से बुढ़ापे की ओर तेजी से कदम बढ़ाता जा रहा है पर उस मालिक को याद करना तो फिर से पीछे छूटता जा रहा है। दुनिया के सारे व्यापार अपनी गति से चलते जा रहे हैं पर केवल उसकी भक्ति की गाड़ी अभी तक स्टार्ट ही नहीं हो पाई। वाह रे इन्सान! क्या यही है तेरी वचनबद्धता?
इस एक जुबान के भरोसे पर अरबों-खरबों के व्यापार तो मनुष्य कर लेता है किन्तु ईश्वर को दी गई यह जबान क्योंकर हार जाता है, आज तक समझ नहीं आया। सारी आयु इन्सान सोचता रहता है बड़ा हो जाऊँगा तब प्रभु का भजन करूँगा। सारी आयु बीत जाती है, दुनिया से विदा लेने का समय भी पास आ जाता है परन्तु तब भी हरि भजन की वेला नहीं आती।
भक्ति के पथ पर चलने के लिए वृद्ध होने का इन्तजार नहीं करना चाहिए। किसी भी आयु में उसका नाम ले सकते हैं। जो सारी उम्र उसका स्मरण नहीं कर पाया, वह निश्चित ही बुढ़ापे में भी ईश्वर को नहीं भज सकेगा। कुछ लोग कहते हैं कि बासी फूल तो प्रतिमा पर भी नहीं चढ़ाए जाते, फिर बूढ़ा अशक्त शरीर ईश्वर को कैसे अर्पित किया जा सकता है? इस विषय पर विचार आवश्य करना चाहिए।
मालिक ने यह मानव तन दिया है। हमें अब मौका मिल गया है कि जिसको पाने के लिए अगणित जन्म गँवा दिए हैं, उसे पाने का प्रयास करें। अब भी यदि अनजान बने रहे तब उसे किसी सूरत नहीं पा सकेंगे। अगला जन्म मनुष्य का मिलेगा या नहीं मिलेगा, इसका कोई भरोसा नहीं है।
ईश्वर की पूजा-अर्चना सच्चे मन से करनी चाहिए। उसमें लेशमात्र भी प्रदर्शन नहीं होना चाहिए। ईश्वर जो बारम्बार हमें बिनमाँगे झोलियाँ भर-भरकर खजाने देता है, उसे हम क्या दे सकते हैं? उसे केवल श्रद्धा अथवा भावना से की गई भक्ति ही चाहिए और कुछ नहीं। प्रार्थना का ढोंग करना स्वयं को छलना है। ऐसा करके दुनिया से वाहवाही तो लूटी जा सकती है पर उसकी नजर में ऐसी भक्ति का मूल्य शून्य से अधिक कुछ नहीं होता।
पक्षी एक-एक दाना करके चुगता है और सौ-सौ बार अपना शीश झुकाता है। हम इन्सान क्या उन बेजुबान पक्षियों से भी गए गुजरे हैं कि सौ-सौ नेमते पाकर भी उस मालिक का अहसान नहीं मानते। उसका धन्यवाद करने में भी कंजूसी करते हैं।
जब तक यह शरीर स्वस्थ है, मृत्यु दूर है, तब तक हरि भजन की ओर ध्यान दे देना चाहिए।हम नहीं नहीं जानते कि भविष्य के गर्भ में क्या लिखा है? कब हमारी आँखें मुँद जाएँ और एक बार फिर हम रो-रोकर हरि भजन करने के लिए कुछ समय की प्रार्थना करने लगें। उस समय एक अतिरिक्त पल की भी मोहलत नहीं मिलेगी। इसलिए जो कुछ हैं, जीवन के यही अनमोल पल हैं। इनका सदुपयोग उस मालिक को सच्चे मन से सिमरण करने में बिता सकें तो हमारा इहलोक और परलोक दोनों ही संवर जाएँ।
चन्द्र प्रभा सूद
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मंगलवार, 3 मई 2016
ईश्वर भक्ति बिसरा दी
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