जातियों में बटा मनुष्य
बहुत दुर्भग्य की बात है कि मनुष्य समाज जातियों में बटा हुआ है। इन्सान-इन्सान में आज अन्तर किया जा रहा है। हम लोग इक्कीसवीं शताब्दी में जी रहे हैं। एक ओर संसार चन्द्रमा आदि ग्रहों पर अपने कदम रख रहा है, तो दूसरी ओर मनुष्य-मनुष्य से भेदभाव कर रहा है। इसे दिन-प्रतिदिन बढ़ावा दिया जाता है। कहने को तो लोग जातियों में बटे हुए समाज की प्रत्यक्ष रूप से आलोचना करते हैं।
समय आने पर मनुष्य अपनी जाति पर गर्व करने से नहीं चूकते। जब शादी-ब्याह का समय आता है, वे गैर जाति में सम्बन्ध नहीं करना चाहते। समाचार पत्रों के साप्ताहिक मेट्रीमोनियल पृष्ठों पर तथा मेट्रीमोनियल साइड्स पर इसे प्रमुखता से देखा जा सकता है। वहाँ पर अपनी जाति का बखान पढ़ा जा सकता है। साथ ही अपनी जाति में सम्बन्ध करने की बात को प्रमुखता दी जाती है।
रैदास जी ने इस जाति में बटे हुए समाज के विषय में अपने विचार रखते हुए कहा है-
जाति-जाति में जाति हैं, जो केतन के पात।
रैदास मनुष न जुड़ सके जब तक जाति न जात।।
अर्थात् रैदास जी कह रहे हैं कि केले के पेड़ में पत्ते के नीचे पत्ता और फिर पत्ता ही पाया जाता है। इस तरह छीलते रहने पर खोखला तना मिलता है और अन्त में पेड़ नष्ट हो जाता है। ठीक उसी तरह इन्सान भी जातियों में बँटा हुआ है, इन्सान का अन्त हो जाता है, लेकिन ये जातियाँ समाप्त नहीं होती। आगे रैदास जी कहते हैं कि मनुष्य तब तक एक-दूसरे से मिलकर अथवा एक होकर नहीं रह सकते, जब तक जाति का बन्धन समाप्त नहीं हो जाता अथवा जाति को समाप्त न किया जाता।
इस लेख के माध्यम से मैं कोई राजनीति नहीं करना चाहती। राजनैतिक विषयों पर मेरी लेखनी नहीं चलती। इस दोहे में कवि के हृदय का दर्द छलकता है। इसके माध्यम से वे जातियों में बटे हुए समाज पर व्यंग्य करते हैं। जातियों में बटे हुए इस समाज का अन्त कब होगा? दूसरे शब्दों में कहें तो इस समाज से जाति प्रथा का अन्त कब होगा? यह प्रश्न बहुत ही कठिन है।
ब्राह्मणों की तो पूछो ही मत, वे तो अपने नशे में रहते हैं। वे सोचते हैं कि उनके बराबर कोई भी अन्य जाति नहीं हो सकती। उनकी सत्ता ही सर्वोच्च है। ईश्वर के बाद उनका ही स्थान आता है। इसलिए सब जातियों का शोषण करने का उन्हें जन्मसिद्ध अधिकार है। क्षत्रिय और वैश्य अपनी ही जाति का मान करते हैं। अपनी ही जाति में रच बसकर वे आत्ममुग्ध बने रहते हैं।
अन्तिम जाति को शेड्यूल कास्ट और शेड्यूल ट्राइब में बाँट दिया है। उन लोगों पर मनमाने अत्याचार धड़ल्ले से किए जाते हैं। वे बेचारे बस आरक्षण की लाठी पकड़कर संसार सागर को तर जाना चाहते हैं। परन्तु आरक्षण का झुनझुना उन्हें सामाज में स्थान नहीं दिला सकता। कई राजनीतिक पार्टियाँ उनके तथाकथित उत्थान के दिखावा करती हैं, पर वे केवल वोटबैंक बनकर ही रह जाते हैं। स्वतन्त्रता के इतने वर्ष के उपरान्त भी उनकी स्थिति जस की तस है।
हमारा भरतीय संविधान एक ओर जातिप्रथा का विरोध करता है, तो दूसरी और इन्हें प्रश्रय भी देता है। आरक्षण के नाम पर राजनीति इसी का ही परिणाम है। लोग आज भी कुछ लोगों को नीची जाति का कहकर तिरस्कार करते हैं। उनके साथ सम्बन्ध नहीं रखना चाहते। उन्हें हेय दृष्टि से देखते हैं। टी वी, समाचारपत्रों और सोशल मीडिया पर इन पर होने वाले अत्याचारों के विषय में प्रकाशित होता रहता है।
ईश्वर ने सभी इन्सानों को एक जैसा बनाया है। उसकी नजर में जाति का कोई भेद नहीं है। हम मनुष्यों को भी इस जाति भेद से ऊपर उठकर, हर इन्सान को एक समान समझना चाहिए। ईश्वर उन लोगों से रुष्ट होता है, जो उसके बनाए लोगों से भेदभाव करते हैं। उन्हें अपने से हीन या तुच्छ समझते है। जाति रहित समाज की परिकल्पना बड़ी सुखद है। इस विषय पर उसी के अनुसार आचरण करना चाहिए, तभी हमारा यह समाज एकसूत्र में बँध सकेगा।
चन्द्र प्रभा सूद
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