सोमवार, 24 अगस्त 2020

शुभाशुभ कर्मों का फल

शुभाशुभ कर्मों का फल

मनुष्यता यही सिखाती है कि जहाँ तक हो सके दूसरों के दुख बाँटने चाहिए। इससे सामने वाले का दुख कम तो नहीं होता, पर उसका मन हल्का अवश्य हो जाता है। मनुष्य के दुख का बोझ कम होने से उसे उस समय सुखद अनुभूति होती है। परन्तु यदि मनुष्य भूख से व्याकुल हो रहा हो, तो उस भूख को कोई भी व्यक्ति बाँटकर उसका कष्ट कम नहीं कर सकता। कोरी सान्त्वना देने से भी उसकी वह पीड़ा कम नहीं हो पाती।
          किसी कवि ने उदाहरण सहित इसे समझाने का प्रयास किया है-
         मस्तकन्यस्तभारादे:   
                  दु:खमन्यैर्निवार्यते।
         क्षुदादिकृतदु:खं तु 
               विना स्वेन न केनचित्॥ 
अर्थात् सिर पर रखे हुए बोझ के दुःख को, अन्य लोग उस भार को बाँटकर उसके दुःख  का निवारण कर सकते हैं। लेकिन उसके भूख-प्यास के दुःख को दूसरों के खाने-पीने से नहीं मिटाया जा सकता, वह तो स्वयं को ही मिटानी होती है। 
           मनुष्य के वस्तुजन्य बोझ के दुख को दूसरे लोग बाँटकर दूर कर सकते हैं। पर इसके विपरीत यदि मनुष्य भूख और प्यास से व्याकुल है, तो जब तक वह स्वयं खाना नहीं खाएगा और पानी नहीं पिएगा, तब तक उन्हें मिटाया नहीं जा सकता। इस भार को कोई नहीं बाँट सकता। मनुष्य स्वयं ही इस दुख को समाप्त कर सकता है, अन्य कोई नहीं। कहने का तात्पर्य यह है कि मनुष्य को अपने दुखों-परेशानियों को स्वयं ही भोगकर दूर करना होता है।
           वेदान्त शास्त्र 'विवेकचूड़ामणि:' में आदि शंकराचार्य ने कहा है-
          पथ्यमौषधसेवा च 
                 क्रियते येन रोगिणा। 
          आरोग्यसिद्धिर्दृष्टाऽस्य 
                   नान्यानुष्ठितकर्मणा॥ 
अर्थात् जो रोगी पथ्य और औषधि का सेवन करता है, उसी को ही आरोग्य की सिद्धि प्राप्त होती है, किसी और के द्वारा किए गए पथ्य कर्म से कोई दूसरा व्यक्ति नीरोग नहीं होता।
          इस श्लोक के कहने का तात्पर्य यह है कि जो व्यक्ति रोगी है, उसे ही पथ्य यानी जो भोजन उसके लिये लाभदायक हो, वही खाना चाहिए। इसी प्रकार यदि वह डॉक्टर द्वारा बताई गई औषधी का नियमित सेवन करता है, तभी वह स्वस्थ हो सकता है। इसके विपरीत यदि रोगी के स्थान पर दवाई कोई अन्य खा ले या परहेज कोई और कर ले और वह स्वस्थ हो जाए, ऐसा सम्भव नहीं हो सकता। 
          इन उदाहरणों से यह स्पष्ट होता है कि जब तक मनुष्य स्वयं पुरुषार्थ न करे, तब तक वह सफल नहीं हो सकता। कोई दूसरा चाहकर भी उसके लिए साघ्य नहीं बन सकता। अपने हिस्से का कार्य मनुष्य को स्वयं ही करना पड़ता है। यदि वह किसी सहारे की तलाश कर रहा है, तो यह उसका भ्रम है। कोई बन्धु-बान्धव अथवा कोई सहारा मनुष्य की सहायता नहीं कर सकता। यदि कोई ऐसा आश्वासन देता है, तो वह छल करता है।
         मनुष्य जो भी शुभाशुभ कर्म करता है, उनका मीठा-कड़वा फल वही भोगता है। ऐसा कदापि नहीं हो सकता कि अशुभ कार्य मनुष्य स्वयं करे और उनका दुखदायी फल कोई और चखे। इसी प्रकार शुभ कर्म कोई अन्य मनुष्य करे, पर उनका मधुर फल अन्य कोई व्यक्ति खा ले। ये तो नासमझ लोगों की बातें हैं। मनीषी लोग समय-समय पर मनुष्य को जगाने के प्रयास में दिन-रात लगे रहते हैं।
         अतः परमार्थ हेतु पुरुषार्थ व्यक्ति को स्वयं ही करना होता है। यानी ब्रह्मज्ञान पाने के लिए किसी मनुष्य को स्वयं ही प्रयास करना पड़ता है। जो मनुष्य इस सत्य से अनजान रहते हैं, वे चौरासी लाख योनियों के मकड़जाल में जन्म-जन्मान्तरों तक उलझे रहते हैं। इसके विपरीत जो इस सार को समझकर उसका अनुसरण कर लेते हैं, वे इहलोक और परलोक दोनों को सँवार लेते हैं।
चन्द्र प्रभा सूद

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