मन की दूरी
दिल मिलने की बात बड़ी होती है, समय या स्थान की दूरी मनुष्य के लिए कोई मायने नहीं रखती। अपना प्रियजन कहीं भी रहता हो, वह सदा मनुष्य के हृदय में निवास करता है, मानो वह आसपास ही होता है। इसके विपरीत जिस बन्धु-बान्धव से मनुष्य के मन जुड़ाव न हो और उससे सम्बन्ध न के बराबर हों, तो वह पड़ोस में रहकर भी दूर हो जाता है। ऐसा प्रतीत होता है, मानो वह अजनबी है।
'चाणक्यनीति:' में आचार्य चाणक्य ने बताया है-
दूरस्थोऽपि न दूरस्थो
यो यस्य मनसि स्थित:।
यो यस्य हृदये नास्ति
समीपस्थोऽपि दूरत:॥
अर्थात् जो हृदय में बसता है, वह दूर होकर भी दूर नहीं होता और जिससे मन से सम्बन्ध नहीं होता, वह पास होकर भी दूर ही होता है।
आचार्य चाणक्य का मत है कि सम्बन्धों में दूरी कोई मायने नहीं रखती। असल बात है प्यार की, खिंचाव की या कसक की। व्यक्ति के दिल में जो बसता है, वह भले ही कितनी ही दूरी पर क्यों न रहता हो, वह सदा अपने समीप ही रहता है। इसके विपरीत जो व्यक्ति बिल्कुल पास रहता हो, पर उससे यदि दिल न मिले, तो वह कितना भी नजदीक क्यों न निवास करता हो, हो दूर ही होता है।
मनुष्य के अपने बच्चे या प्रियजन आसपास रहते हों या अपने देश में कहीं भी रहते हों अथवा विश्व के किसी भी कोने में बसते हों, वे सदा समीप रहते हुए प्रतीत होते हैं। मनुष्य उनसे फोन पर प्रतिदिन बात कर लेता है। उसे वह दूरी बिल्कुल नहीं खटकती। वह सोचता है कि जब समय और परिस्थितियाँ अनुकूल होंगी उनके यहाँ जाकर मिल लेंगे अथवा वे मिलने आ जाएँगे। इस तरह वे एक-दूसरे की प्रतीक्षा में समय व्यतीत कर लेते हैं।
दूसरी ओर जिन बन्धु-बान्धवों से मनुष्य का दिल नहीं मिलता या किसी भी कारण से उनमें परस्पर मनमुटाव हो जाता है, वे यदि अपने से अगले घर में भी रहते हों, तो उनसे सम्पर्क नहीं साधा जाता। उन्हें बुलाना तो दूर की बात है, वे लोग यदि पास से भी निकल जाएँ, तो मनुष्य मुँह फेर लेता है। मनुष्य उन लोगों का चेहरा तक नहीं देखना चाहता। सुख-दुख में यदि उनका आमना-सामना हो जाए, तो वे कन्नी काट लेते हैं।
सदा यही प्रयास करना चाहिए कि रिश्तों को सहेजकर रखा जाए। वे सदा ही अपने मन के समीप रहें। उनमें दूरी न होने पाए, बल्कि इतना आकर्षण होना चाहिए कि एक-दूसरे के बिना रहने की वे कल्पना ही न कर सकें। यदि कोई छोटी-मोटी बात हो जाए, तो उसे अनदेखा कर देना चाहिए। इससे मन में आने वाला सारा कालुष्य मिट जाता है। रिश्ते फिर से पहले की तरह सहज हो जाते हैं।
जब सभी बन्धुजन दूध में शक्कर की भाँति मिलजुलकर रहेंगे, तब वे किसी के दिल से नहीं उतर सकेंगे। मनुष्य अपने बन्धु-बान्धवों से ही सुशोभित होता है। वे तो मानो उसकी भुजाएँ होती हैं। वे सभी एक-दूसरे के सुख-दुख के साथी होते हैं। अपनों के होते हुए कष्ट-परेशानियों के पल पलक झपकते दूर हो जाते हैं। मनुष्य की खुशियाँ मानो कई गुणा बढ़कर सुखदायी हो जाती हैं।
आपसी सम्बन्धों में कटुता अथवा खटास न आने पाए, इसके लिए सभी बन्धु-बान्धवों को मिलकर प्रयास करना चाहिए। समय का कोई भरोसा नहीं है, वह किसी की प्रतीक्षा नहीं करता। कौन इस संसार को पहले अलविदा कह जाएगा, किसी को कुछ पता नहीं। बाद में पश्चाताप करने से कोई लाभ नहीं होता। समय रहते सबको चेत जाना चाहिए। विचार भेद हों तो कोई बात नहीं, पर मन भेद नहीं होना चाहिए। सभी सम्बन्धों में दूरी रुकावट न बनने पाए, इससे बढ़कर और कुछ नहीं हो सकता।
चन्द्र प्रभा सूद
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