मोक्ष प्राप्ति का प्रयास
जब तक मनुष्य स्वयं प्रयास नहीं करता, वह अपनी मनचाही सफलता कदापि नहीं प्राप्त कर सकता। फिर चाहे मनुष्य की इहलौकिक कामना पूर्ति की चाहत हो या फिर पारलौकिक कामना की बात हो। वास्तव में जीवन की सच्चाई भी यही है कि जब तक इन्सान अपने हाथ-पैर नहीं चलाता, तब तक उसे बैठे-बिठाए कुछ भी नहीं मिल सकता। अतः कुछ भी पाने के लिए कष्ट तो उठाना पड़ता है।
इसीलिए हमारे सयाने कहते हैं-
'आप न मरिए ते स्वर्ग कित्थे जाइए?'
अर्थात् जब तक मनुष्य स्वयं मृत्यु का वरण नहीं करेगा यानी मरेगा नहीं, तब तक वह स्वर्ग में नहीं जा सकता। स्वर्ग को पाना है, तो पहले मरना आवश्यक है। सशरीर कोई भी मनुष्य स्वर्ग में नहीं जा सकता, अन्यथा उसे त्रिशंकु बनना पड़ता है। यदि मनुष्य कुछ भी प्राप्त करना चहरा है, तो उसे पुरुषार्थ करना पड़ेगा।
'विवेकचूड़ामणि:' ग्रन्थ में आदी गुरु शंकराचार्य जी ने की में बताया है-
वस्तुस्वरूपं स्फुटबोधचक्षुषा
स्वेनैव वेद्यं न तु पण्डितेन।
चन्द्रस्वरूपं निजचक्षुषैव
ज्ञातव्यमन्यैरवगम्यते किम्॥
अर्थात् विवेकी पुरुष को किसी वस्तु का स्वरूप स्वयं अपने ज्ञाननेत्रों से ही जानना चाहिए, किसी अन्य के द्वारा नहीं। चन्द्रमा का स्वरूप अपने ही नेत्रों से देखा जाता है, दूसरों के द्वारा क्या जाना जा सकता है? अर्थात् उसे नहीं जाना सकते।
चाँद को देखने के लिए स्वयं की आँखों का उपयोग करना पड़ता है। तभी उसके आकार व चाँदनी का आनन्द ले सकते हैं, दूसरों की आँखों के माध्यम से मनुष्य को कुछ पता नहीं चलेगा। ठीक उसी प्रकार ज्ञानवान पुरुष वस्तु स्वरुप ब्रह्मतत्त्व को अपने ज्ञानचक्षुओं से देख सकता है, दूसरों के द्वारा प्रयत्न करने पर वह उस सारतत्त्व को नहीं जान सकता। अतः मोक्ष प्राप्ति का साधन स्वयं को ही करना होता है।
'पञ्चरात्ररागम:' में कवि ने इसी प्रकार बताया है-
अविद्याकामकर्मादि-
पाशबन्धं विमोचितुम्।
कः शक्नुयाद्विनात्मानं
कल्पकोटिशतैरपि॥
अर्थात् जब तक व्यक्ति इस संसाररूपी अविद्या, कामना और कर्मादि के जाल से मुक्त नहीं होगा। तो वह कल्प-कल्पातर तक बन्धनों में फँसा ही रहेगा।
इस श्लोक के माध्यम से कवि कह रहा है कि मनुष्य को संसारिक अविद्या, कामना और कर्म के बन्धन से मुक्त होना आवश्यक है। विद्या उसे कहते जो मोक्ष का मार्ग दिखाए यानी-
या विद्या या विमुक्तये।
जिस विद्या या ज्ञान को मनुष्य अर्जित करता है, उसे अविद्या कहते हैं। वह मनुष्य को भौतिक ज्ञान से समृद्ध करती है। वह आत्मोन्नति का मार्ग नहीं दिखाती। इस अविद्या शब्द का प्रयोग माया के अर्थ में किया जाता है। इसके पर्याय भ्रम तथा अज्ञान कहे जाते हैं।
इस अवस्था को चेतन अवस्था कहा जा सकता है, परन्तु जिस वस्तु का भान इस स्थिति में होता है, वह मिथ्या होती है। सांसारिक मनुष्य अहंकारवश अविद्या से ग्रस्त होकर रहता है। इस कारण वह इस जगत को ही सत्य मान लेता है। यानी मनुष्य विद्या और अविद्या में भेद नहीं कर सकता। इसीलिए वह वस्तु के वास्तविक स्वरूप, ब्रह्म अथवा आत्मा को अनुभव नहीं कर सकता।
भौतिक कामनाओं की पूर्ति करने में मनुष्य इतना उलझा रहता है कि वह वास्तविकता को भूल जाता है। उसे स्मरण ही नहीं रहता कि सारी भौतिक वस्तुएँ उसकी मृत्य के उपरान्त इसी संसार में रह जाती हैं, उसके साथ परलोक में नहीं जा सकतीं। यही उसकी अज्ञानता का मूल कारण होता है। इस मोह माया के बन्धन में बँधा मनुष्य पारलौकिक उन्नति के विषय से परे होता जाता है।
मनुष्य को वही कर्म करने चाहिए जो उसके बन्धन का कारण न बनें। वह है कि अपनी अज्ञता के कारण शुभकर्मों को करने से चूक जाता है। अशुभ कर्म उसे बार-बार ललचाते हैं, अपने जाल में फँसाते हैं। वह उनके जाल में उलझकर रह जाता है। उनसे छूटने के लिए वह छटपटाता रहता है। शुभ कर्मों का मार्ग कठिन और लम्बा होता है, पर अन्ततः सुखदायी होता है। यही मनुष्य को सदा स्मरण रखना चाहिए।
जिस व्यक्ति को आत्म कल्याण की कामना है, उसे उसके लिए खोज करनी अनिवार्य है। जब तक वह स्वयं मोक्ष हेतु प्रयत्न नहीं करेगा, उसे नहीं प्राप्त कर लेगा, तब तक वह मनुष्य चौरासी लाख योनियों के चक्र में फँसा हुआ जन्म-जन्मान्तरों तक इस संसार में भटकता रहता है।
चन्द्र प्रभा सूद
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