गुरुवार, 20 अगस्त 2020

संयम से जीत

संयम से जीत

मनुष्य के शरीर में श्रोत्र, त्वचा, चक्षु, रसना और घ्राण ये पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ होती हैं। उसकी श्रवण इन्द्रिय (कान) शब्द का ग्रहण करती है, उसकी त्वचा से स्पर्श का ज्ञान होता है, उसके चक्षु (आँखें) सौन्दर्य का पान करते हैं, उसकी रसना (जिह्वा) रस का आस्वादन करती है और उसका घ्राण (नासिका) गन्ध को ग्रहण करता है। इस प्रकार मनुष्य इन पाँचों इन्द्रियों से विभिन्न कार्य करता हुआ जीवन के आनन्द का उपभोग करता है।
           मनुष्य को इन इन्द्रियों के वश में नहीं रहना चाहिए। उसे यथासम्भव इन इन्द्रियों को नियन्त्रित करना चाहिए। उसे प्रयास यही करना चाहिए कि वह इन विषय-वासनाओं के जाल में न फँसे, बल्कि इन सबसे दूरी बनाकर रहे। पाँच विषयों यानी शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध में जब मनुष्य आसक्त हो जाता है अथवा दुनिया को भूलकर उनमें ही उलझा रहता है, तब उसका विनाश निश्चित हो जाता है। तब कोई उसे बचा नहीं सकता।
            आदि शंकराचार्य द्वारा विरचित 'विवेकचूड़ामणि:' में इस विषय को उदाहरण सहित समझाया है-
          शब्दादिभिः पञ्चभिरेव पञ्च
                पञ्चत्वमापुः स्वगुणेन बद्धाः।
         कुरंगमातंगपतंगमीन- 
                भृंगा नरः पञ्चभिरञ्चितः।।
अर्थात् हिरण शब्द, हाथी स्पर्श, पतंगा रूप, मछली रस और भँवरा सुगन्ध के वशीभूत होकर अपनी-अपनी जान गवाँ बैठते हैं। इन पाँचों की तो पाँच विषयों में से एक-एक विषय में अनुरक्ति के कारण यह दशा होती है। मनुष्य को तो पाँचों विषयों ने जकड़ रखा है। फिर वह मृत्यु से कैसे बच सकता है? अर्थात् पाँचों विषयों में आसक्त मनुष्य मृत्य से किसी तरह नहीं बच सकता।
           हिरण शिकारी की बाँसुरी के शब्द को सुनकर मन्त्रमुग्ध हो जाता है। वह अपनी सुधबुध खो बैठता है। तब शिकारी उसका शिकार कर लेता है। हाथी का शिकार करने के लिए मादा हथिनी की मूर्ति गड्ढे में बनाकर खड़ी कर दी जाती है। फिर उसके स्पर्शसुख के कारण उसका शिकार किया जाता है। पतंगा दीपक की लौ पर मुग्ध होकर उस पर मण्डराता है, अन्ततः उसी में जलकर मर जाता है। 
        मछली रसना के चक्कर में काँटे में फँसे चारे को खाने का प्रयास करती है, तब वह काँटे में फँस जाती है और अपनी जान गँवा बैठती है। भँवरा प्रातःकालीन खिले हुए कमल के फूल की सुगन्ध में मदहोश हो जाता है। सायंकाल जब को सूर्यास्त होता है, तब वह कमल का फूल बन्द हो जाता है और उसमें बन्द होकर उस भँवरे की मृत्यु हो जाती है।
          इस प्रकार हिरण, हाथी, पतंगा, मछली और भँवरा पाँचों अपनी एक इन्द्रिय की वासना के वश में होकर या उलझकर अपने प्राणों से हाथ धो बैठते हैं। अब विचार यह करना है कि जो एकसाथ इन पाँचों इन्द्रियों के दास बन जाते हैं, उनकी क्या स्थिति होने वाली है? इनके वश में होने वाले मनुष्य की दुर्दशा तो निश्चित होनी ही है। उसे कोई नहीं बचा सकता। केवल वह स्वयं ही है, जो इनसे अपनी रक्षा करने में समर्थ है।
           इस श्लोक में शंकराचार्य जी ने मनुष्य को ज्ञान देते हुए समझाया है कि शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध में से एक भी विषय में जब जीव जकड़ा जाता है, तब वह अपने अमूल्य प्राणों से हाथ धो बैठता हैं। इन विषयों की पकड़ बहुत ही मजबूत होती है। इन विषयों में फँसने के बाद जीव बस छटपटाता रह जाता है, उससे बचने का वह कोई उपाय नहीं कर पाता। फिर वही क्षणिक सुख उसकी मृत्यु का कारण बन जाता है।
           इसलिए ऋषि-मुनि मनुष्य को आत्मसंयम का पाठ पढ़ाते हैं। उनके अनुसार इस संसार में केवल एक मनुष्य ही है, जो अपनी इन इन्द्रियों को नियन्त्रित करके जितेन्द्रिय बन सकता है। तब मनुष्य उनके पीछे नहीं भागता, बल्कि ये सभी इन्द्रियाँ उसकी इच्छानुसार कार्य करती है। तब मनुष्य इनके कारण दुखी और परेशान नहीं होता। ऐसा संयमी मनुष्य ही इहलोक और परलोक में सभी प्रकार के सुखों को प्राप्त करता है।
चन्द्र प्रभा सूद

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