शनिवार, 1 अगस्त 2020

वृद्धावस्था की विडम्बना

 वृद्धावस्था की विडम्बना

वृद्धावस्था के आने से पूर्व ही मनुष्य को अपने बुढ़ापे के विषय  में सोचना आरम्भ कर देना चाहिए। मनुष्य को प्रयास यही करना चाहिए कि वृद्धावस्था में उसके पास सिर पर छत और इतना धन हो कि उसे किसी के आगे उसे हाथ न फैलाने पड़ें और न ही किसी से अपमानित होना पड़े। जिन लोगों को पेंशन मिलती है, उनकी बात अलग है। उनका शेष सारा जीवन आराम से कट जाता है।
            रिटायरमेन्ट पर मिले पैसे को बैंक में या पोस्ट ऑफिस में एफ डी करवाकर सुरक्षित कर लेना चाहिए। अधिक ब्याज के लालच में धन को इधर-उधर इन्वेस्ट नहीं करना चाहिए। इस बार को सदा स्मरण रखना चाहिए कि पैसा वही अपना है, जो अपने पास है। किसी को दिया हुआ धन कभी अपना नहीं होता क्योंकि वह समय आने पर मिल नहीं पाता। उसके लिए दूसरों की दया पर रहना पड़ता है।
           जिनको नौकरी के पश्चात इकट्ठा पैसा नहीं मिलता, उन्हें युवावस्था से ही अपने भविष्य के लिए नियोजित तरीके से धन का संग्रह कर लेना चाहिए। एल आई सी की पेंशन योजना इसके लिए लाभदायी है। लोग किसी बैंक में या पोस्ट ऑफिस में अपना पी पी एफ अकाऊंट खुलवाकर प्रतिवर्ष अपनी सामर्थ्यानुसार पन्द्रह वर्ष तक धन जमा करवा सकते हैं। इस प्रकार वे स्वयं को अपनी वृद्धावस्था में सुरक्षित कर सकते हैं। 
          प्रयास यही करना चाहिए कि वृद्धावस्था के लिए बचाकर रखे गए धन को अपने जीवनकाल में बच्चों को भी न दें। इसके अतिरिक्त किसी बन्धु-बान्धव को भी उधार न दें। जो धन दूसरे के हाथ में दे दिया जाता है, वह अपना नहीं रह जाता। कहने का तात्पर्य यह है कि समय आने पर वह दिया गया धन मनुष्य को वापिस मिल ही जाएगा, इसकी कोई गारण्टी नहीं ली जा सकती।
         अपने बच्चों को धन-सम्पत्ति और व्यवसाय उत्तराधिकार में अवश्य सौंपना चाहिए। परन्तु अपनी वृद्धावस्था के लिए धन-सम्पत्ति अवश्य सम्हालकर रखनी चाहिए। धोखे से भी अपने बच्चों या अपने किसी पार्टनर को धन-सम्पत्ति या व्यवसाय हथियाने न दें। इसके लिए सावधान रहना बहुत आवश्यक है। अतिमोह में आकर बच्चों की अपना सर्वस्व सौंपकर खाली हाथ नहीं रह जाना चाहिए।
         निम्न श्लोक में कवि में यही समझाते हुए कहा है-
वृद्धकाले मृता भार्या बन्धुहस्तगतं धनम्।
भोजनं च पराधीनं तिस्रा: पुंसां विडम्बना।।
अर्थात् वृद्धावस्था में यदि कोई व्यक्ति अपनी पत्नी की मृत्यु हो जाने से अकेला हो जाए, उसकी धन-सम्पत्ति भी उसके बन्धुजनों के हाथों में चली गयी हो तथा अपनी दैनिक भोजन  की व्यवस्था के लिए भी उसे पराधीन रहना पडे, तो यह तीनों परिस्थितियाँ उसके लिये एक विडम्बना के समान है ।
            अपने पास धन न हो तो मनुष्य को पराधीनता का मुँह देखना पड़ता है।मनीषी कहते हैं-
      "पराधीन सपनहुं  सुख नाहीं।" 
अर्थात् पराधीनता में मनुष्य को सुख नहीं मिलता। उसे कदम-कदम पर अपमानित होना पड़ता है। किसी को दिया हुआ ऋण उसे कब वापिस मिलेगा, कोई नहीं कह सकता। यह स्थिति मनुष्य के लिए अत्यन्त विषम, हताश करने वाली और कष्टदायक होती है।
           वृद्धावस्था में मनुष्य का अकेला हो जाना ही अभिशाप है। उसका ध्यान कोई रखे तो उसका सौभाग्य अन्यथा दुर्भाग्य। उस समय धन भी उसके पास न हो और वह खाली हाथ हो जाए तो बहुत दुष्कर हो जाता है। तब उसे खाने के भी लाले पड़ जाते हैं। सदा दूसरों को देने वाले को अपनी दैनन्दिन आवश्यकताओं को पूर्ण करने के लिए दूसरों का मुँह देखना इन अवस्था में बहुत कष्टकर होता है।
         मनुष्य को हर कदम फूँक-फूँककर रखना चाहिए। अपनी वृद्धावस्था के लिए उसे समय रहते तैयारी कर लेनी चाहिए। पति-पत्नी दोनों में से जो भी पीछे बच जाए, उसे पैसे की चिन्ता तो कम से कम न होने पाए। अपने अकाउंट को ज्वाइन्ट करवा लेना चाहिए। इससे पीछे बचे साथी को परेशानी नहीं होती। यदि इस तरह की सावधानियाँ बरती जाएँ, तो वृद्धावस्था में कठिनाइयाँ कम आती हैं।
चन्द्र प्रभा सूद

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