मनुष्य की शुद्धि
अपने तन और मन को शुद्ध करना ही शुद्धि कहलाता है। शरीर को शुद्ध करना बहुत सरल कार्य है। शरीर पर साबुन मला और जल लेकर स्नान कर लेने से मनुष्य का शरीर शुद्ध हो जाता है। परन्तु हमारा जो यह मन है, वह है कि शुद्ध और पवित्र होने का नाम ही नहीं लेता। इसे साबुन और जल से कदापि शुद्ध नहीं किया जा सकता। कितने ही जतन कर लो, पर यह धत्ता बता ही देता है। अब प्रश्न यह है कि मन को किस प्रकार शुद्ध किया जाए?
'मनुस्मृति:' में भगवान मनु निम्न श्लोक में कहते हैं-
अद्भिर्गात्राणि शुध्यन्त मनः सत्येन शुध्यति।
विद्यातपोभ्यां भूतात्मा बुद्धिर्ज्ञानेन शुध्यति॥
अर्थात् जल से शरीर शुद्ध होता है, सत्य से मन पवित्र होता है। विद्या और तप से जीवात्मा की शुद्धि होती है। ज्ञान से बुद्धि निर्मल होती है।
कहने का तात्पर्य यह हैं कि शरीर बहुत से स्थानों पर जाता है। वह पूजा के स्थान पर भी जाता है। श्मशान में जाकर अपवित्र माना जाता है। इसी प्रकार परिश्रम करके पसीने से तरबतर हो जाता है, गर्मी से परेशान हो जाता है। यानी किसी भी कारण से शरीर में से गन्ध आने लगती है। ऐसी स्थिति में जल से स्नान कर लो तो वह शुद्ध हो जाता है। उसके बाद स्वच्छ वस्त्र धारण कर लो तो उसकी गन्दगी दूर हो जाती है।
मनुष्य का मन जन्म-जन्मान्तरों के मल को लिए हुए है। इस मन को शुद्ध करना असम्भव तो नहीं पर कठिन अवश्य है। मनुष्य जितना सत्याचरण करता है, उतना ही यह शुद्ध होता जाता है। दूसरे शब्दों में कहें तो सत्य की साधना करने से ही यह तपकर कुन्दन बनता है। समस्या यह है कि मन बहुत चञ्चल है। वायु से भी तीव्र गति से कहीं भी भागता चला जाता है। मन की गति रोके नहीं रुकती।
संसार के आकर्षण इसे आकर्षित करते रहते हैं और मनुष्य का यह मन है जो विषय वासनाओं और मोहमाया के जाल में उलझता रहता है। इस उलझन को सुलझाने में महान मनीषी और साधु-सन्त लगे रहते हैं। यह दुष्ट मन बहुत ही कठिनाई से वश में होता है। 'श्रीमद्भगवद्गीता' में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है कि इस मन को अभ्यास और वैराग्य के द्वारा ही वश में किया जा सकता है।
मनुष्य के शरीर में विद्यमान यह जीवात्मा विद्या और तप से शुद्ध होता है। परमात्मा का अंश आत्मा का ज्ञान विद्या से ही प्राप्त किया जा सकता है। तप से ही इसे साधा जा सकता है। जब तक मनुष्य अपनी इन्द्रियों को नियन्त्रित नहीं करता तब तक वह अपने लक्ष्य मोक्ष तक नहीं पहुँच सकता। यह सारा ज्ञान विद्या से ही प्राप्त होता है। इस बात को निम्न उदाहरण से समझते हैं।
'कठोपनिषद' में आत्मा को यात्री बताया गया है, जिसका रथ यह शरीर है। इन्द्रियाँ इस रथ के घोड़े हैं, मन इसकी लगाम है और बुद्धि सारथी है। जब सारथी रूपी बुद्धि मन रूपी लगाम से इन्द्रियों रूपी अश्वों को ठीक से नियन्त्रित करके, उचित मार्ग पर नहीं ले जाएगा, तब तक यात्री आत्मा अपने गन्तव्य मोक्ष तक नहीं पहुँच सकेगा। यह सब विद्या और तप से ही सम्भव हो सकता है।
मनुष्य की बुद्धि ज्ञान से शुद्ध होती है। मनुष्य बाल्यकाल से युवावस्था तक विद्यार्जन करता है। उसका उद्देश्य योग्यता प्राप्त करना होता है। मनुष्य जितना ज्ञान अर्जित करता है, उतनी ही उसकी बुद्धि तीव्र होती है। यही बुद्धि की शुद्धता होती है। यदि मनुष्य ज्ञानार्जन न करे तो वह अज्ञ या मूर्ख कहलाता है। इस संसार का सार जानना आवश्यक है, जो केवल ज्ञान के द्वारा ही सम्भव है।
इस चर्चा का सार यही है कि मनुष्य को इस शरीर, मन, आत्मा और बुद्धि को सदा शुद्ध रखना चाहिए। इन्हें शुद्ध करने के लिए जल, सत्य, विद्या, तप और ज्ञान की आवश्यकता होती है। शरीर के शुद्ध होने पर मनुष्य के पास बैठने वाले व्यक्ति को कठिनाई नहीं होती। मन शुद्ध हो जाए तो मनुष्य किसी से ईर्ष्या, द्वेष, घृणा नहीं कर सकता। इसके अतिरिक्त मनुष्य स्वयं भी नहीं भटकता।
तप और विद्या से आत्मा के शुद्धिकरण से वह अपने मोक्ष के पथ पर अग्रसर होती है। तब उसे चौरासी लाख योनियों में आवागमन से छुट्टी मिल जाती है, अर्थात् उस समय आत्मा मुक्त हो जाती है। बुद्धि को ज्ञान के द्वारा शुद्ध किया जाता है, जिससे वह कुमार्ग का त्याग करके सदा सन्मार्ग पर चलती है। इसलिए इन चारों को मनुष्य को शुद्ध करते रहना चाहिए, ताकि इनमें विकार न आने पाए।
चन्द्र प्रभा सूद
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