पिता-पुत्री का प्यार
पुत्री या बेटी अपने पिता की बहुत लाडली होती है। पापा और बेटी का रिश्ता दुनिया का सबसे खूबसूरत रिश्ता होता है। हर पापा के लिए बेटी उसकी जिन्दगी होती है। हर बेटी के लिए उसका पापा उसके लिए दुनिया की सबसे बड़ी हिम्मत और मान होता है। जब तक उसके पापा जीवित रहते हैं, तब तक सब कुछ उसका अपना होता है। बेटी अपने पाप के दम पर ही अपनी हर जिद को पूरा करती है।
छोटी बेटी जब तुतलाकर बोलती है, तो घर के सभी सदस्यों के साथ उसका पिता भी बहुत हर्षित होता है। जब वह अपने छोटे-छोटे हाथों से पिता के काम करती है, तब वह बेटी पर बलिहारी जाता है। उस समय उसे गर्व होता है, अपनी नन्ही-सी बेटी पर। बेटी जब फुर्सत के पलों में अपने पापा के साथ खेलती है, रूठती है, मानती है, तो तब मानो पिता को स्वर्गिक आनन्द मिल जाता है।
बेटी को घर का कोई सदस्य यदि कुछ कहता है, तो वह अपने पिता पर गर्व करते हुए एकदम कह उठती है, शाम को पापा को ऑफिस से वापिस घर आने दो फिर बताती हूँ। बेटी अपने घर में माँ की ममता के आँचल की छाया में रहती है, पर उसकी शक्ति पापा के बलबूते पर ही होती है। वह अपने पापा की बस लाडली रानी बिटिया होती है और पाप भी हर समय उसकी ढाल बनकर खड़े रहते हैं।
बेटी को पढ़ा-लिखाकर योग्य बनाने का स्वप्न हर पिता देखता है। इस दायित्व को पिता बहुत प्रसन्नता से वहन करता है। वह अपनी बेटी की हर इच्छा को पूर्ण करने का भरसक प्रयास करता है। वह स्वयं अभावों में जी लेता है, पर अपनी बेटी के सपनों को पूरा करने में जी-जान लगा देता है। अपनी बेटी की हर छोटी-बड़ी सफलता को देखकर पिता का सीना गर्व से चौड़ा हो जाता है।
पिता अपनी बेटी की आँखों में कभी आँसू नहीं देख सकता। उसके उदास होने पर पिता परेशान हो जाता है। अपनी बेटी के आँखों में आँसू देखकर पिता स्वयं अन्दर से बिखर जाता है। उसके चहकने पर पिता खिल उठता है। पिता और पुत्री का प्यार ही कुछ इस प्रकार का होता है कि किसी को भी ईर्ष्या होने लग जाए। बेटी सारी आयु अपने माता और पिता की चिन्ता से मुक्त नहीं हो पाती। चाहे वह पास रहती हो अथवा दूर, उनके बारे में ही सोचगी रहती है।
वह पिता स्वयं को इस दुनिया का सबसे अधिक भाग्यशाली इन्सान समझता है, जिसकी बेटी बड़ी होकर अपने पिता की आशानुरूप अच्छी नौकरी प्राप्त कर लेती है और अपने पैरों पर खड़ी हो जाती है। उसे ऑफिस जाते देख पिता अपने खुशी के आँसुओं को अपनी आँखों से बाहर नहीं आने देता। बेटी भी इस खुशी को भली भाँति समझती है। बेटी जब अपनी पहली तनख्वाह पिता के हाथ में रखती है, तो उसकी खुशी का पारावार नहीं रहता।
हमारी भारतीय संस्कृति में बेटी का कन्यादान करना यानी विवाह करना बहुत सौभाग्य माना जाता है। पिता यथाशक्ति अपनी बेटी का विवाह करता है। वह कोई कसर नहीं छोड़ना चाहता। बेटी की विदाई का पल सबसे कठिन समय होता है। वह बेटी के बचपन से विदाई तक के सभी पलों को याद करके रोता है और बेटी की पीठ थापथपाकर हिम्मत देता है कि बेटा चार दिन बाद तुम्हें लेने आ जाऊँगा।
जब तक पिता जीवित रहता है बेटी बड़े हक से मायके में आती है। अपने पापा के दम पर घर में आकर जिद भी कर लेती है। पिता की मृत्यु के पश्चात बेटी हिम्मत हार जाती है। उसका मान-मनौव्वल करने वाला पिता उस घर में नहीं रहता। पिता के रहते जो अधिकार वह मायके घर पर समझती है, वह भाई के होते हुए नहीं रह जाता। चाहे भाई कितना भी अच्छा हो, पर उसे हक से वह कुछ नहीं कह पाती।
बेटी जिस घर में होती है, वह घर सदा महकता रहता है। उसकी पायल की रुनझुन से वहाँ जीवन्तता रहती है। उसके होने से घर में एक प्रकार का अनुशासन रहता है। पिता-पुत्री का यह रिश्ता किसी अनजानी गहरी डोर से बँधा हुआ होता है। इसमें कोई सन्देह नहीं कि आयुपर्यन्त पिता अपनी बेटी के विषय में और बेटी अपने पिता के विषय में चिन्तित रहते हैं। दोनों के प्राण एक-दूसरे में बसते हैं।
चन्द्र प्रभा सूद
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