पिता-पुत्र का सम्बन्ध
पिता और पुत्र का रिश्ता इस संसार में बहुत गहन होता है। पिता अपने संस्कारों की थाती अपने पुत्र को सौंपता है। पुत्र उन्हें आत्मसात कर लेता है। पुत्र की हर इच्छा को पूरा करना पिता का दायित्व होता है। वह अपने मुँह का निवाला निकालकर पुत्र को देने में नहीं हिचकिचाता। हर पिता अपने पुत्र के लिए हीरो होता है, जो चुटकी बजाते ही उसकी सारी समस्याओं को हल कर देता है।
यदि माता दैहिक साँसारिक यात्रा के आविर्भाव पर प्राण को चेतना प्रदान करती है, तो उस जड़ स्वरूप को पोषित करने वाला पिता होता है। पिता की अँगुली पकड़कर पुत्र स्वयं को सबसे भाग्यशाली इन्सान समझता है। वह अपने पिता के कन्धों पर चढ़कर स्वयं का कद बड़ा कर लेता है। उसके सारे सपनों को पूरा करने वाला, उसका पिता ही होता है।
हर पिता अपने बेटे को गाली देता है, डाँटता है और मारता भी है। इसका यह अर्थ नहीं कि वह उससे प्यार नहीं करता। बच्चे के उज्ज्वल भविष्य के लिए यह सब करना आवश्यक हो जाता है। बेटे ने कुछ माँग रखी तो आवश्यक नहीं कि उसे पूरा कर दिया जाए। बच्चे को न सुनने की आदत भी होनी चाहिए। बच्चे को यह पता होना चाहिए कि पिता वही वस्तु खरीदकर देंगे, जिसकी उसे आवश्यकता होगी। अनावश्यक वस्तु उसे नहीं मिलेगी।
आचार्य चाणक्य अपनी पुस्तक 'चाणक्यनीति:' में कहते हैं-
लालयेत्पञ्च वर्षाणि दस वर्षाणि ताडयेत्।
प्राप्ते तु षोडशे वर्षे पुत्रं मित्रवदाचरेत्।।
अर्थात् पाँच वर्ष तक पुत्र को लाड-प्यार करना चाहिए। दस वर्ष तक ताडना-वर्जना करनी चाहिए और जब पुत्र सोलह वर्ष की अवस्था में पहुँच जाए, तब उसके साथ मित्र जैसा व्यवहार करना चाहिए।
चाणक्य के अनुसार पाँच वर्ष की बाल्यावस्था तक बेटे के साथ लाड़ लड़ाने चाहिए। उसके बाद दस वर्ष की अवस्था तक उसे अनुशासित करने के लिए, उसके साथ कठोरता का व्यवहार करना चाहिए। परन्तु जब पुत्र सोलह वर्ष का युवक हो जाए, यानी पिता का जूता पुत्र के पैरों में पूरा आने लगे, तब उसके साथ मित्रवत व्यवहार करना चाहिए। उसके पश्चात उसे अपना मित्र ही मानना चाहिए। तब उससे विचार-विमर्श करना चाहिए।
हर पिता चाहता है कि उसका पुत्र उससे अधिक योग्य बने। उससे अधिक तरक्की करे। वह पुत्र के बड़े होकर योग्य बनने का स्वप्न देखता है। जब उसका पुत्र पढ़-लिखकर, अच्छी नौकरी प्राप्त कर लेता है, तो वह स्वयं को संसार का सबसे भाग्यशाली इन्सान समझता है। यदि वह व्यवसाय करता है, तो पुत्र को व्यापार में रुचि लेते देख और उसे बढ़ाते देखकर वह हर्षित होता है।
पिता जब आयुप्राप्त होने लगता है, तब वह चाहता है कि उसका पुत्र अब सारी जिम्मेदारियाँ सम्हाले। उसके पास अपनी जो भी धन-सम्पत्ति होती है, उसे धीरे-धीरे अपने पुत्र को सौंपकर वह निश्चिन्त हो जाता है। पिता सदा अपने पुत्र को सफलता की सीढ़ियाँ चढ़ते देखना चाहता है। वह चाहता है कि उसके जीते जी उसका पुत्र और और उन्नति करता जाए। इसके लिए वह स्वयं भी प्रयास करता है।
ऐसे पिता के ऋण से मनुष्य कभी उऋण नहीं हो सकता, जो उसे इस धरती पर लेकर आया है। उसी पिता से ही पुत्र का अस्तित्व होता है। इसीलिए पिता को देवता कहा जाता है। पुत्र का दायित्व बनता है कि ऐसे देवता की पूजा करे। यानी उसके मुँह से निकलने से पहले उसकी जरूरतों को समझकर पूरा करे, जैसे पिता उसके बचपन में किया करता था। इसमें बदले की भावना जैसी कोई बात नहीं है, अपितु यह बेटे का फर्ज है।
जो बेटा अपना कर्त्तव्य मानकर अपने पिता की सेवा प्रसन्नता से करता है, उसकी सराहना सभी लोग करते हैं। ऐसे बेटे को लोग श्रवण पुत्र कहते हैं। उसका यश चहुँ दिशि प्रसारित होता है। उसका इहलोक और परलोक दोनों सुधर जाते हैं। जैसे बेटे को अपने पिता पर कभी मान होता था, वैसे ही अब पिता उस पर मान कर सके, ऐसा ही एक पुत्र का व्यवहार होना चाहिए।
चन्द्र प्रभा सूद
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें