अपनों का साथ
स्वजन अल्पज्ञ हों या गुणी, उनका साथ सदा सुखदायक होता है। जब कभी कोई आवश्यकता पड़ती है, तब अपने लोग ही काम आते हैं, वे ही सहारा देते हैं, पराए नहीं। पूरा शहर बसे, पर साथ अपनों का ही मिलता है, पूरे शहर का नहीं। अतः स्वजनों का साथ मनुष्य को कभी भी और किसी भी परिस्थिति में नहीं छोड़ना चाहिए। उन अपने बन्धु-बान्धवों पर मनुष्य को मान करना चाहिए।
निम्न श्लोक में किसी कवि ने बहुत ही सुन्दर शब्दों में कहा है-
गुणवान् वा परजन: स्वजनो निर्गुणोपि वा।
निर्गुण: स्वजन: श्रेयान् य: पर: पर एव च।।
अर्थात् गुणीजनों से कम गुणों वाले स्वजन बेहतर हैं क्योंकि जरूरत पड़ने पर अपने निर्गुणी नजदीकी स्वजन ही श्रेयस्कर होते हैं या वही काम आते हैं, अनजान गुणी काम नहीं। अपना अपना ही होता है और पराया पराया ही होता है।
इस श्लोक के कहने का अर्थ यही है कि गुणवान पराए से हजार गुणा श्रेष्ठ अपना बन्धु ही होता है, चाहे वह गुणहीन ही है। अपना यदि गुणहीन भी होगा तो हमारे हित के विषय में ही चिन्तन करेगा, परन्तु पराया यदि गुणवान् भी होगा तो अपने गुणों का प्रयोग हमारे अहित के लिए ही करेगा। इसलिए अपनों बन्धुजनों का साथ छोड़कर परायों से घुल-मिल जाना बुद्धिमानी नहीं कहलाती।
सयाने कहते हैं- 'अपना यदि मरेगा तो छाया हैं फेंकेगा।' कहने का तात्पर्य यह है कि अपने किसी सम्बन्धी से यदि शत्रुता हो जाए और किसी बात पर कहा-सुनी हो जाए। तब मारपीट को नौबत आ जाए, तो वह धूप में नहीं छाया में फेंकेगा। वहाँ भी वह अपने सम्बन्ध को स्मरण करके, दया ही दिखाएगा। इसलिए सदा इस बात को स्मरण रखना चाहिए और सम्बन्धों में दरार नहीं आने देनी चाहिए।
मनुष्य अपने बन्धु-बान्धवों से ही सुशोभित होता है। उनके बिना वह अकेला पड़ जाता है। उस समय ऐसा प्रतीत होता है मानो उसका कोई अस्तित्व ही नहीं रह गया है। जिनते अधिक उसके सम्बन्धी होंगे, उतना ही मनुष्य स्वयं को सुरक्षित महसूस करता है। वे उसके सुख-दुख के साथी होता हैं। उन्हें उसकी भुजाएँ भी कहा जा सकता है। उन्हें खोने की मनुष्य को सोचना ही नहीं चाहिए।
अपनों को खोकर या फिर उनसे बिछुड़कर मनुष्य कभी सुखी नहीं रह सकता। यह मनुष्य की गलतफहमी होती है कि वह साधन-सम्पन्न है और अकेला जी सकता है। उसे किसी की आवश्यकता नहीं है। परन्तु यह कदापि सम्भव नहीं हो सकता। संसार में जीने के लिए मनुष्य को अपनों के सहारे या साथ की कदम-कदम पर जरूरत होती है। उनके बिना वह अधूरा रहता है।
अपनों के साथ से रहित मनुष्य संसार सागर में खो सा जाता है। उससे बाहर निकलने के लिए अपनों का सहारा तो चाहिए ही। अपनों का सहारे की अहमियत उन लोगों से जाननी चाहिए जो किसी कारण से अकेले हो जाते हैं। कोई भी उनको सहारा देने वाला नहीं होता। वे बेचारे तरसते हैं कि काश, कोई तो उनका अपना होता, जिसके साथ वे अपने सुख और दुख साझा कर सकते।
जितने अपने बन्धु-बान्धव होते हैं, उतनी ही मनुष्य की भुजाएँ होती हैं। उनके दम पर ही मनुष्य सिर उठाकर चलता है। अपनों के होते हुए उसे किसी बाहर वाले की उतनी आवश्यकता नहीं रह जाती। ऐसे मनुष्य का मनोबल हमेशा ऊँचा रहता है। वह संसार सागर के थपेड़ों को सरलता से सहन कर जाता है। इसलिए अपनों का साथ मिलता रहे, इसके लिए मनुष्य को सदा प्रयत्नशील रहना चाहिए।
यदि रिश्तों को बचाने के लिए मनुष्य को थोड़ा झुकना भी पड़ जाए, तो यह सौदा मँहगा नहीं कहा जा सकता। अपनों के ज्ञान से अधिक उनके गुणों, अपनेपन और प्यार को महत्त्व देना चाहिए। जीवन जीने का यह एक महामन्त्र है। इसको अपनाकर कोई भी व्यक्ति निराश नहीं हो सकता।
चन्द्र प्रभा सूद
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