पिता के प्रसन्न होने पर देवता प्रसन्न
पिता की महानता को वही मनुष्य समझ सकता है, जो सन्तान का पालन-पोषण करते हुए पिता की गई साधना को अनुभव करता है। दूसरे शब्दों में कहें तो सन्तान का पोषण करते समय पिता अपना सुख-चैन होम कर देता है। उसकी दुनिया। अपने बच्चों के इर्द-गिर्द घूमती है। उनकी सारी आवश्यकताओं को पूर्ण करने के लिए वह कोल्हू के बैल की तरह दिन-रात एक कर देता है।
पिता वह स्वयं भूखे रहकर अपने बच्चों के लिए भोजन का प्रबन्ध करता है। पिता अपनी सन्तान को कभी अभावग्रस्त नहीं देखना चाहता। अपनी शक्ति से भी बढ़कर एक पिता बच्चों के सुख के लिए परिश्रम करता है। वह अपने बच्चों को इतना योग्य बना देखना चाहता है कि वह अपने पैरों पर खड़ा होकर समाज में सिर उठकर चल सके और अपना स्थान प्राप्त कर सके।
जो व्यक्ति अपने पिता के इस तप का साक्षी बनता है और उसे समझता है, वह कभी उसका तिरस्कार नहीं कर सकता। वह निम श्लोक के भाव को आत्मसात कर सकता है। किसी कवि ने बहुत सुन्दर शब्दों में पिता के विषय में कहा है-
पिता धर्मः पिता स्वर्गः पिता हि परमं तपः।
पितरि प्रीतिमापन्ने प्रीयन्ते सर्व देवताः।।
अर्थात् पिता धर्म है, पिता स्वर्ग है, पिता परम तप है। पिता के प्रसन्न हो जाने पर सभी देवता प्रसन्न हो जाते हैं।
कवि के अनुसार पिता धर्म है, तप है और तप है। यानी जो अपने पिता की आज्ञा का पालन करना अपना धर्म अथवा कर्त्तव्य समझता है, उसके लिए उससे बड़ा धर्म और कोई नहीं है। बच्चा जब युवा होकर कमाने-खाने लगता है। तब वह अपना परिवार बनाता है। उस समय उसका पिता आयुप्राप्त करने लगता है। यह उसके पिता की रिटायरमेण्ट की आयु कही जा सकती है।
दूसरे शब्दों में पिता अपना कदम वृद्धावस्था में रखता है। यह वह समय होता है, जब मनुष्य का शरीर अशक्त होने लगता है। उसे बच्चों के मजबूत कन्धों के सहारे की आवश्यकता होती है। उस समय उनका ध्यान रखना, उनकी समुचित सेवा-सुश्रुषा करना, उनकी आज्ञा का पालन करना हर बच्चे का दायित्व बनता है। इन सबका पालन करना ही बच्चे का धर्म भी कहा जा सकता है।
जो बच्चा अपना धर्म समझकर इनका पालन करता है, उसे किसी मन्दिर आदि में जाकर पूजा करने की आवश्यकता नहीं होती। वह अपने जीवित देवता यानी अपने माता-पिता की पूजा-अर्चना करता है। ऐसा करने से उसकी कीर्ति दूर-दूर तक प्रसारित होती है। उसके माता-पिता जब प्रसन्न होते हैं, तब उनका घर स्वर्ग के समान सुखदायक बन जाता है। माता-पिता के चरणों में ही स्वर्ग कहा जाता है।
यह सब इसी तपश्चर्या से प्राप्त होता है। पिता के तप से बच्चा योग्य बनकर समाज में एक मुकाम प्राप्त करता है। पिता की तपस्या का ही परिणाम उसकी सन्तान होती है। उसकी सफलता उसके पिता के अथक परिश्रम की ही देन होती है। जो बच्चे इस बात को स्मरण रखते हैं, उनके घर में सुख-शान्ति का वास होता है। उनकी सुगन्ध को चारों ओर फैलने से कोई नहीं रोक सकता।
इसके विपरीत जो बच्चे स्वार्थ में अन्धे हो जाते हैं, वे अपने माता-पिता की सुध नहीं लेते। वे बेचारे इस वृद्धावस्था में दर-बदर की ठोकरें खाते हैं, दाने-दाने को मोहताज हो जाते हैं। उनकी सेवा नहीं होती और न ही दवा-दारू होती है। उनकी कोई जरूरत पूरी नहीं होती। ऐसे अवज्ञाकारी बच्चों के सभी धर्म-कर्मों का पुण्य नष्ट हो जाता है क्योंकि उन्होनें अपने घर में बैठे हुए जीवित भगवान की पूजा नहीं की होती।
पिता का स्थान आकाश से भी ऊँचा है। सन्तान को संसार में लाने के कारण उसे देवता कहा जाता है। ऐसा पिता जब प्रसन्न होता है, तो सभी देवता प्रसन्न हो जाते हैं। है न यह छोटा-सा गणित। बहुतों को खुश करने में इन्सान परेशान हो जाता है। एक खुश होता है, तो दूसरा नाराज हो जाता है। कवि कहता है कि केवल अपने पिता को प्रसन्न कर लो, सभी बन्धु-बान्धव, समाज और सभी देवता प्रसन्न हो जाते हैं। इसलिए उसकी प्रसन्नता का ध्यान प्रत्येक मनुष्य को यत्नपूर्वक करना चाहिए।
चन्द्र प्रभा सूद
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