शुभकर्मों का संग्रह
मनुष्य को ऐसे कार्य करने चाहिए, जिनको करने से उसे सुख-समृद्धि मिले। उनके लिए उसे कभी प्रायश्चित न करना पड़े। प्रश्न यह उठता है कि मनुष्य को कौन से कार्य करने चाहिए और कौन से नहीं? इसके उत्तर में हम यह कह सकते हैं कि देश, धर्म, परिवार और समाज के नियमानुसार किए जाने वाले सभी करणीय कार्य होते हैं। इन सभी कार्यों को मनुष्य को यत्नपूर्वक करना चाहिए, अन्य कार्यों को कदापि नहीं करना चाहिए।
मनुष्य को यथासम्भव श्रेष्ठ कार्य ही करने चाहिए। ये कार्य मनुष्य को मानसिक सन्तोष देते हैं। वह इन कार्यों को करने से निश्चिन्त रहता है। उन्नति के पथ पर अग्रसर होने वालों के लिए इन नियमों का पालन करना बहुत आवश्यक होता है। इसी से मनुष्य को समाज में सम्मननीय स्थान प्राप्त होता है। लोग अच्छे कार्य करने वालों की ही सदा प्रशंसा करते हैं और उन्हीं को ही चाहते हैं।
देश, धर्म, परिवार और समाज के नियम के विरुद्ध किए जाने वाले सभी कार्य अकरणीय होते हैं। मनुष्य को यथासम्भव उन कार्यों का त्याग करना चाहिए। जो लोग स्वार्थवश या लालचवश ऐसे दुष्कृत्य करते हैं, समाज के लिए वे त्याज्य होते हैं। इन लोगों को हेय दृष्टि से देखा जाता है। समाज इन लोगों से किनारा करने में अपना भला समझता है। ऐसे लोगों को कहीं भी मान नहीं मिलता।
'विदुरनीति:' में महात्मा विदुर ने निम्न श्लोक में यह कहा है-
दिवसेनैव तत् कुर्याद्येन रात्रौ सुखं वसेत्।
यावज्जीवं च तत्कुर्याद्येन प्रेत्य सुखं वसेत्।।
अर्थात् दिन भर में मनुष्य को ऐसे कार्य करने चाहिए, जिससे रात में अच्छी तरह से नींद आ जाए। ठीक उसी तरह से जीवन भर में मनुष्य को ऐसे कृत्य करने चाहिए, जिससे मरणोपरान्त आत्मा को शान्ति प्राप्त हो सके।
यही इस मानव-जीवन का मुख्य उद्देश्य है। यदि मनुष्य दिन भर शुभ कर्म करेगा, तो उसे ग्लानि नहीं होती। उसका मन सन्तुष्ट रहता है। इसलिए उसे रात को अच्छी नींद आती है। इसके विपरीत दुष्कृत्य करने वाले सारा दिन मारामारी में व्यतीत करते हैं। उन्हें न्याय व्यवस्था का भय भी सताता रहता है। दिन भर परेशान रहते हैं, इसलिए रात को भी करवटें बदलते रहते हैं।
महात्मा विदुर का कथन है कि जिस प्रकार मनुष्य सत्कृत्य करता हुआ रात्रि को चैन की नींद सोता है। उसी प्रकार उसे अपने जीवन में ऐसे सुकृत्य कर लेने चाहिए, जिससे मरणोपरान्त उसकी आत्मा को शान्ति प्राप्त हो सके। इसका अर्थ यही है कि उसे जीवनभर किए गए शुभ कर्म, अन्त समय के लिए दुख का कारण न बनकर आत्म सन्तुष्टि दें। वह नए जन्म में सुखपूर्वक प्रवेश कर सके।
यदि मनुष्य जीवनभर विरोधी कर्म करता है, तो उसे सारा समय दुख और कष्ट मिलते हैं। अन्त समय में उसका सुधरना कठिन होता है। उस समय उसे पश्चाताप होता है कि जीवन में उसने अच्छे काम क्यों नहीं किए। उसके मन पर यह बोझ रहता है। उस अन्तकाल में उसकी आत्मा उसे धिक्कारती है, पर उस समय कुछ भी नहीं किया जा सकता। अगले जन्म में जाते समय वह दुखी रहता है।
मनुष्य चौरासी लाख योनियों के क्रम में भटकता हुआ श्रेष्ठ मानव चोला प्राप्त करता है। अपने अहं के कारण यदि मनुष्य इस जन्म में नेक कर्म नहीं करता, तो कोई गारण्टी नहीं कि पुनः उसे मानव जन्म ही मिलेगा। तब पता नहीं अपने कर्मों के अनुसार वह किस किस योनी में जाएगा और कब उसे फिर से मानव बनने का सौभाग्य प्राप्त होगा। यह सब मनुष्य के किए गए उन शुभाशुभ कर्मों पर निर्भर करता है।
इस सम्पूर्ण चर्चा का सार यही है कि जहाँ तक हो सके मनुष्य को अपने जीवन में शुभकर्मों का संग्रह करना चाहिए। उसे अशुभकर्मों के फेर में जकड़े जाने से बचना चाहिए। इस संसार से विदा लेते समय उसके चेहरे पर विषाद के स्थान पर हर्ष होना चाहिए। उसके मन मे कोई पश्चाताप का भाव नहीं होना चाहिए। तभी मनुष्य इहलोक से विदा लेकर परलोक प्रसन्नता से जा सकता है।
चन्द्र प्रभा सूद
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