वन्दनीय व्यक्ति
वन्दनीय व्यक्ति समाज मे वही कहलाता है, जो स्व से ऊपर उठकर पर के विषय में सोचे। परोपकारी मनुष्य सबकी आँख का तारा होते हैं। उनके सारे कार्य कलाप देश और समाज के हितार्थ होते हैं। सबके साथ वे समानता का व्यवहार करते हैं। उनके लिए कोई मनुष्य छोटा-बड़ा, छूत-अछूत, काला-गोरा नहीं होता। वे धर्म और जाति से परे होते हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि सभी मनुष्य बिना भेदभाव के उनकी दृष्टि में एकसमान होते हैं।
किसी कवि ने निम्न श्लोक में इन महानुभावों के विषय मे लिखा है-
वदनं प्रसादसदनं
सदयं दयं सुधामुचो वाच:।
करणं परोपकरणं
येषां केषां न ते वन्द्या:॥
अर्थात् जिसके मुख पर मुस्कान के साथ तेज हो, दिल दया से भरा हो, अमृत के समान वचन मुख से निकलते हों और वह परोपकार में तल्लीन हो। ऐसे व्यक्ति किसके वन्दनीय नहीं होते यानी वे सबके वन्दनीय होते हैं।
यदि मनुष्य इस व्यक्तित्व का बन जाए तो इस मानव-सभ्यता का वर्तमान बहुत बेहतर हो जाएगा। ऐसे महानुभाव जो सदा मधुर मुस्कान से स्वागत करें, दयालु हों, सबसे प्यार से बोलें, वे चिराग लेकर ढूंढने पर भी बड़ी कठिनता से मिलते हैं। समाज की भलाई के लिए इन लोगों को यत्नपूर्वक खोजना चाहिए। इन्हीं महान परोपकारी लोगों की बदौलत ही यह संसार गतिमान हो रहा है।
'विदुरनीति:' के निम्न श्लोक में महात्मा विदुर पुण्यात्माओं के विषय में इस प्रकार कहते हैं-
पुण्यं प्रज्ञा वर्धयति क्रियमाणं पुन:पुन:।
वृद्ध प्रज्ञा पुण्यमेव नित्यमारभते नर:॥
अर्थात् बार बार पुण्य कार्य करने से बुद्धि बढ़ती है। जिसकी विवेक बुद्धि बढ़ती है, वह व्यक्ति पुण्य ही करता है।
विदुर जी का मत है कि बार बार पुण्य कार्यों के सम्पादन से मनुष्य की बुद्धि विकसित होती है। ऐसी विवेकी बुद्धि वाला मनुष्य पुण्यात्मा होता है। कहने का अर्थ है कि मनुष्य पुण्यात्मा तभी बनता है, जव वह शुभ कर्म करता है। ऐसा मनुष्य स्वयं तो शुद्ध एवं पवित्र बनता है, साथ ही सब लोगों को भी उसी राह पर चलने की प्रेरणा देता है। लोग इस प्रेरक व्यक्ति के दिखाए मार्ग पर चलकर अपनेजीवन सफल कर लेते हैं।
'मनुस्मृति:' में भगवान मनु साधू या सज्जन लोगों के विषय में इस श्लोक में कह रहे हैं-
न प्रहृष्यति सम्माने नापमाने च कुप्यति।
न क्रुद्धः परुषं ब्रूयात् स वै साधूत्तमः स्मृतः॥
अर्थात् जो व्यक्ति सम्मानित किये जाने पर बहुत प्रसन्न नहीं होते हैं और अपमानित किये जाने पर क्रोधित नहीं होते, तथा क्रोधित होने पर भी अपशब्द या कठोर वचन नही बोलते हैं। ऐसे ही लोगों को महान साधु के रूप में सदैव याद किया जाता है।
इस श्लोक में महान लोगों के बारे में यह कहा है कि वे सम्मानित किए जाने पर उछलते नहीं और अपमानित किए जाने पर क्रोध या उठा-पटक नहीं करते। क्रोध आने पर भी कड़वा नहीं बोलते। यह बहुत बड़ी विशेषताएँ हैं उनके जीवन की। यानी वे हर स्थिति में सम रहते हैं। वे अपनी कमियों को दूर करते हैं। उन्हें स्वयं पर नियन्त्रण रहता है। इसीलिए वे सब सहन कर पाते हैं।
वास्तव में ये महानुभाव अपने दिव्य गुणों के कारण ही वन्दनीय होते हैं। इन्हें ही भगवान श्रीकृष्ण के शब्दों में स्थितप्रज्ञ की श्रेणी में रखा जा सकता है। सभी द्वन्द्वों को सहन करते हुए अपने जीवन को साधते हैं। मनुष्योचित कमजोरियों को दूर करके ही, समाज में विशेष स्थान प्राप्त करके ये लोग आम से खास बन जाते हैं। सम्माननीय बनकर ही ये समाज को दशा और दिशा प्रदान करते हैं।
परोपकार करने वाले महान सज्जन सामने वाले से सहृदयतापूर्वक व्यवहार करके उसे जीत ही लेते हैं। इस प्रकार पुण्य कार्यों के करने से वे धीरे-धीरे पुण्यात्मा बन जाते हैं। अपने विवेक का सहारा लेते हुए ये निरन्तर आत्मोन्नति की ओर अग्रसर होते रहते हैं। सबके साथ मधुर व्यवहार करने ओर दया-ममता रखने के कारण संसार में ये पूजनीय बन जाते हैं। इनके मार्ग का अनुगमन करने मनुष्य के कल्मष दूर हो जाते हैं।
चन्द्र प्रभा सूद
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