चिन्ता चिता के समान
मनीषी चिन्ता को चिता के समान कहते हैं। वे कहते हैं कि चिन्ता करने से मनुष्य पर विपरीत प्रभाव पड़ता है। चिता पर रखा हुआ मनुष्य का शरीर एक बार जलकर भस्म हो जाता है पर यह चिन्ता मनुष्य को पल-पल जलाती है। चिन्ता मनुष्य को चैन से नहीं बैठने देती। मनुष्य सदैव उदास, परेशान-सा दिखाई देता है। उसे लगता है कि मानो खुशियॅं उससे रूठ गई है। उन्होंने अपना रास्ता बदल लिया है, वे मेरे घर का रास्ता भूल गई हैं। यह स्थिति व्यक्ति के लिए वास्तव में बहुत कष्टकारी होती है।
'नराभरणम्' ग्रन्थ में चिन्ता के विषय में कहा है-
चिन्तायाश्च चितायाश्च बिन्दुमात्रं विशेषत:।
चिता दहति निर्जीवं चिन्ता जीवन्तमप्यहो॥
अर्थात् चिन्ता और चिता में केवल एक बिन्दु का अन्तर है परन्तु चिता निर्जीव को जलाती है और चिन्ता जीवित को।
हम सब जानते हैं कि चिन्ता करने से कोई लाभ नहीं होता। इससे कोई हल भी नहीं निकलता। पर फिर भी हम मनुष्य हैं कि किसी भी कारण से परेशान होकर चिन्ता करने लगते हैं। इसे हम मानवीय कमजोरी भी कह सकते हैं। इस चिन्ता के समान शरीर को सुखाने वाली और कोई वस्तु नहीं है। होनी तो होकर ही रहती है और हमारे कहने से वह टलने वाली भी नहीं है। इसलिए अनावश्यक चिन्ता करने का कोई लाभ नहीं होता।
यह इनसानी कमजोरी हरपल मनुष्य को घेर कर रखती है। उसका सुख-चैन सब हर लेती है। यद्यपि घर-परिवार के सदस्यों का एक दूसरे के प्रति चिन्तित रहना उनके परस्पर प्रेम का परिचायक माना जाता है। तथापि अनावश्यक चिन्ता करना कभी-कभी अकारण ही विवाद का रूप ले लेती है। आजकल बच्चे-बड़े सभी इस कारण नाराज रहते हैं। इसे अपने कार्यों में दखलअंदाजी समझते हैं। वे सोचते हैं कि हम समझदार हो गए हैं फिर हम किसी के प्रति जवाबदेह क्यों बनें?
'पद्मपुराण' में चिन्ता के विषय में यह कहा गया है - 'कुटुम्ब की चिन्ता से ग्रसित व्यक्ति के श्रुत ज्ञान, शील और गुण उसी प्रकार नष्ट हो जाते हैं जिस प्रकार कच्चे घड़े में रखा हुआ जल।'
चिन्ता के कई कारण हो सकते हैं- बच्चों की पढ़ाई, उनका सेटल होना, उनकी शादी, स्वास्थ्य सम्बन्धी समस्या, किसी सदस्य का घर देर से आना, पड़ोसी की समृद्धि या उनके घर किसी नई वस्तु का आना, घर में धन-समृद्धि की कमी अथवा घर के सदस्यों में अनावश्यक ही खटपट रहना आदि। अब इन परेशानियों में इन्सान चिन्ता ही कर सकता है। वह यह भी जानता है कि चिन्ता करने से कुछ भी नहीं होने वाला। पर इन्सानी स्वभाव ही ऐसा है कि हर बात पर वह चिन्तित हो जाता है।
हमारे नेताओं को देखिए जिन्हें देश और जनता की बहुत चिन्ता रहती है। उस चिन्ता में घुलते हुए वे बेचारे दिन-प्रतिदिन दुबले होते जा रहे हैं। व्यवसायियों को हमेशा कर्मचारियों और हर प्रकार के टैक्स की चिन्ता रहती है जो स्वाभाविक भी है। इस समस्या से उन्हें झूझना पड़ता है।
भूतकाल में जो हो चुका है उसे छोड़ देना चाहिए। उससे शिक्षा अवश्य लेनी चाहिए पर उसको पकड़कर घुलते रहना या चिन्ता करना बुद्धिमानी नहीं कहलाती। इसी प्रकार भविष्य के गर्भ में क्या है? कोई भी सांसारिक व्यक्ति नहीं जानता। इसलिए उसे ईश्वर पर छोड़ देना चाहिए। नाहक चिन्ता करके सभी परिजनों को कभी व्यथित नहीं करना चाहिए। अत: भविष्य में आने वाले सम्भावित अनिष्टों की चिन्ता करने वालों की शान्ति भंग हो जाती है। जो बहुत अमूल्य है।
बस केवल उसी के विषय में विचार करना चाहिए जो हमारे सामने प्रत्यक्ष विद्यमान है। वर्तमान की तथाकथित चिन्ता ही बहुत है सन्तप्त रहने के लिए। मनुष्य को नदी की तरह गम्भीर होना चाहिए। नदी को पार करने में जो मनुष्य लगा हुआ है, वह जल की गहराई की चिन्ता कभी नहीं करता। उसी तरह जिस व्यक्ति का चित्त स्थिर है, वह इस संसार सागर के नानाविध कष्टों का सामना करने पर भी उनसे नहीं घबराता। उनका दृढ़ता पूर्वक सामना करता है।
यह सिद्धान्त हमेशा स्मरण रखना चाहिए कि समय से पहले और भाग्य से अधिक न किसी को मिला है और न ही मिलेगा। फिर हमारे कर्म ही प्रधान हैं जो हमें अपने जीवनकाल में सुख-दुख, लाभ-हानि, जय-पराजय, सुख एवं समृद्धि देते हैं। तो फिर चिन्ता करके बदहाल क्यों होने का क्या लाभ है?
अपनी सारी चिन्ताएँ उस जगत जननी माता के हवाले करके निश्चिन्त हो जाइए। जैसे बच्चे अपनी माता से अपने दुख बाँटकर चैन की नींद सो जाते हैं। उसी प्रकार उस मॉं पर विश्वास रखिए। शेष ईश्वर सब शुभ करेगा, यही विचार अपने मन में सदा रखना चाहिए।
चन्द्र प्रभा सूद
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