ज्ञानाचरण की आवश्यकता
ज्ञान अर्जित करके ज्ञानाचरण तो करना चाहिए परन्तु उसका मद कदापि नहीं। मनुष्य को अपने अर्जित ज्ञान पर आचरण अवश्य करना चाहिए। अन्यथा पुस्तकीय ज्ञान के कोई मायने नहीं रह जाते। अपने अल्प ज्ञान पर मनुष्य को कदापि अहंकार नहीं करना चाहिए। ज्ञानार्जन की पहली शर्त होती है विनम्रता। हमारे शास्त्र यही शिक्षा देते हैं कि विद्या प्राप्ति की पहली शर्त है -
विद्या ददाति विनयं, विनयाद्याति पात्रताम्।
पात्रत्वाद्धनमाप्नोति, धनाद्धर्मं ततः सुखम्।।
अर्थात् विद्या विनय (विनम्रता) देती है, विनय से पात्रता (योग्यता) आती है, पात्रता से धन मिलता है, धन से धर्म और धर्म से सुख मिलता है।
यानी विद्या विनम्रता देती है। जो व्यक्ति विनम्र नहीं है, उसे विद्वान या ज्ञानी कहलाने का कोई अधिकार नहीं है। यह श्लोक शिक्षा के महत्व को दर्शाता है। यह बताता है कि शिक्षा मनुष्य को न केवल ज्ञानी बनाती है बल्कि उसे विनम्र, योग्य और सुखी भी बनाती है।
इसी प्रकार निम्न श्लोक यह कहता है-
नमन्ति फलिनो वृक्षा: नमन्ति गुणिनो जना:।
शुष्कवृक्षाश्च मूर्खाश्च न नमन्ति कदाचन॥
अर्थात् फलदार वृक्ष झुकते हैं और गुणवान लोग झुकते(विनम्र) होते हैं। परन्तु मूर्ख और ठूँठ कभी नहीं झुकते। कहने का अर्थ है कि पेड़ जो ठूँठ बन गया है और मूर्ख मिथ्या अभिमान में टूट जाते हैं पर झुक जाने में अपना अपमान समझते हैं।
मनुष्य को सदा यह सोचना चाहिए कि इस ब्रह्माण्ड में अनन्त ज्ञान का भण्डार है। अनेक विषय हैं। प्रत्येक मनुष्य के पास केवल थोड़ा-सा ज्ञान होता है। उस पर उछलते रहना बुद्धिमत्ता नहीं होती। कुछ सीमित पुस्तकें पढ़ लेने या शोध कर लेने से कोई मनुष्य ज्ञानी नहीं बन जाता। सागर से यदि एक गागर भर पानी ले लिया जाए तो क्या उस गागर को अपने भरे होने पर अहंकार कर लेना चाहिए? नहीं, कदापि नहीं। वे तो उस सागर की कुछ बूँदें मात्र हैं, सम्पूर्ण सागर नहीं हैं।
इसी प्रकार ज्ञानी व्यक्ति को भी ऐसा ही समझना चाहिए कि ब्रह्माण्ड के विशाल ज्ञान के भण्डार की कुछ ही बूँदों के बराबर ही उसका ज्ञान है। यदि वह इसे आत्मसात कर लेता है तो वह कभी भी मिथ्या अभिमान नहीं कर सकेगा। तब वह किसी के अल्प ज्ञान का उपहास नहीं करेगा। वह स्वयं को सर्वज्ञ समझने की भूल कभी नहीं करेगा।
प्रत्येक ज्ञानवान व्यक्ति को सदैव यही सोचना चाहिए कि हर व्यक्ति की गुण-ग्रहण करने की शक्ति(grasping power) एक जैसी नहीं हो सकती। यदि एक जैसी शक्ति होती तो पूरे विश्व में सभी वैज्ञानिक या इंजीनियर या सेवा कार्य करने वाले या व्यापारी या राजनेता होते आदि। सभी की बुद्धि की क्षमता अलग होती है। इसीलिए ईश्वर की ओर से ये ही विभिन्नता है। हमें भी इसका मान रखना चाहिए।
ईश्वर की बनाई हुई इस सृष्टि में बहुत ही विविधता है। उसने सभी को उनके गुण और कर्म के अनुसार कार्य सौंपा है ताकि वह सृष्टि को सुचारू रूप से चला सके। एवंविध सब लोग मिल-जुलकर सबके साथ व्यवहार करें। अतः संसार में डॉक्टर, इंजीनियर, नेता, अभिनेता, वकील, अध्यापक, सैनिक, सीए, एम बी ए, धोबी, नाई, लुहार, सुनार, बढ़ई, मिस्त्री आदि विभिन्न कार्यों को करने वाले लोग हैं। हर व्यक्ति को समाज में रहते हुए दूसरे की आवश्यकता पड़ती है। किसी व्यक्ति को भी हेय समझकर उसका तिरस्कार करना, उस परमपिता को कभी पसन्द नहीं आता।
विद्वान को चाहिए कि यदि वह किसी भी मनुष्य को अहं में डूबा देखे तो उसे सन्मार्ग दिखाए जिससे उसका अज्ञान दूर हो सके। ज्ञानी यदि ज्ञान के बल पर स्वयं को ईश्वर की तरह समझने लगे तो उसके जैसा अधम कोई अन्य नहीं हो सकता। तब तो यही कहा जा सकता है कि वह मूर्ख है अथवा ढोंगी है जो दूसरों को मूर्ख समझ कर अपना उल्लू सीधा कर रहा है।
इस ज्ञान मद के विषय में भर्तृहरि जी 'नीतिशतकम्' में कहते हैं-
यदा किंचिज्ज्ञोsहं गजैव मदान्ध: समभवम्।
यदा सर्वज्ञोsस्मीत्यभवदवलिप्तं मम मन:।।
यदा किंचित्किंचद् बुधजनसकाशादवगतम्।
तदा मूर्खोsस्मीति ज्वर इव मदों में व्याप्त:।।
अर्थात् जब मैं अल्पज्ञ था तो हाथी की तरह मदान्ध था। मैं सर्वज्ञ हो गया हूँ, इस अभिमान से मेरा मन भरा हुआ था। जब ज्ञानियों के संसर्ग में थोड़ा बहुत जाना तब मैं ने समझा कि मैं तो अभी तक अज्ञ था, मूर्ख था। इस तरह ज्वर की तरह मेरा गर्व दूर हो गया।
इस प्रकार यदि हम नित्य अपना विश्लेषण करते रहेंगे तो यह जान पाना कठिन नहीं होगा कि हमारा अपने ज्ञान का अभिमान करना हमारी बड़ी नासमझी थी। इसलिए जब भी जाग गए तभी समझो जीवन सफल हो जाएगा।
चन्द्र प्रभा सूद
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