मंगलवार, 30 सितंबर 2025

जो ब्रह्माण्ड में वही शरीर में

जो ब्रह्माण्ड में वही शरीर में

यजुर्वेद के एक मन्त्र में कहा गया है -
          यथा पिण्डे तथा ब्रह्माण्डे, 
         यथा ब्रह्माण्डे तथा पिंडे
अर्थात् जैसा मानव शरीर है और वैसा ही ब्रह्माण्ड है। जैसा ब्रह्माण्ड है और वैसा ही मानव शरीर है। यहॉं 'पिण्डे' का अर्थ है सूक्ष्म जगत और 'ब्रह्माण्डे' का अर्थ है स्थूल जगत है।
           चरक संहिता का यह श्लोकांश हमें यही बात समझा रहा है - 
            यथा ब्रह्माण्डे तथा पिण्डे
अर्थात् जो-जो इस ब्रह्माण्ड में है वही सब हमारे शरीर में भी है। 
            यह एक गहरा दार्शनिक और आध्यात्मिक विचार है जो मानव शरीर और ब्रह्माण्ड के बीच के सम्बन्ध को दर्शाता है। यह एकता और परस्पर सम्बन्ध के सिद्धान्त पर बल देता है।           
           'योगदर्शन' में इस विचार का उपयोग शरीर और मन को जोड़ने और आत्म-साक्षात्कार प्राप्त करने के लिए किया जाता है। यह दर्शाता है कि शरीर और ब्रह्माण्ड की चेतना एक ही है। व्यक्तिगत आत्मा(आत्मा) ब्रह्माण्डीय आत्मा(परमात्मा) का ही हिस्सा है। यानी हिन्दूदर्शन और योगदर्शन में कहा जाता है कि मानव शरीर ब्रह्माण्ड का एक छोटा संस्करण है। ब्रह्माण्ड और मानव शरीर एक दूसरे से जुड़े हुए हैं और दोनों एक ही सिद्धान्त पर कार्य करते हैं। 
          यह भौतिक संसार पंचमहाभूतों से बना है-  आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी। उसी प्रकार हमारा हमारा यह शरीर भी इन्हीं पाँचों महाभूतों से बना हुआ है। जब जीव की मृत्यु होती है तो उसके उपरान्त ये पाँचों महातत्त्व अपने-अपने तत्त्व में जाकर मिल जाते हैं।
              इन पंचमहाभूतों की पंचतन्मात्राएँ हैं। मनुष्य में भी ये सभी पंचतन्मात्राएँ  विद्यमान हैं-  आकाश की तन्मात्रा शब्द है। मनुष्य अपने कानों से सुनता है। वायु की तन्मात्रा स्पर्श है। मनुष्य अपने शरीर पर स्पर्श का अनुभव करता है। अग्नि की तन्मात्रा ताप है। अग्नि तत्त्व मनुष्य के शरीर में है जिससे वह भोजन पचाता है और अग्नि जैसा तेज उसके चेहरे पर रहता है। जल की तन्मात्रा रस है। मनुष्य के मुँह से निकलने वाला रस भोजन को स्वादिष्ट बनाता है और शरीर को पुष्ट करता है। पृथ्वी की तन्मात्रा गन्ध है। पृथ्वी में हर स्थान पर गन्ध बिखरी हुई है। मनुष्य अपनी घ्राण शक्ति (नाक) से गन्ध को सूॅंघता है और आनन्द का अनुभव करता है।
             इन पंचमहाभूतों के पाँच गुण हैं जो मनुष्य शरीर में भी होते हैं- आकाश का गुण अप्रतिघात (non resistance) है। आकाश की तरह पूरे शरीर पर त्वचा का आवरण(covering) है। हमारे शरीर के सूक्ष्म छिद्रों से जहाँ प्रतिघात होता है उसे आकाश तत्त्व से उपचार से रोका जाता है। वायु का गुण चलत्व (mobility) है। हमारा शरीर भी वायु की तरह चलायमान है। वह सदा इधर से‌ उधर आता-जाता रहता है। 
           अग्नि का गुण उष्णत्व (heating) है। अग्नि के समान उष्णता मनुष्य में होती है तभी वह जीवित रहता है। यदि उसकी उष्णता समाप्त हो जाए तो वह इस दुनिया से कूच कर जाता है। जल का गुण द्रवत्व (fluidity) है। जल के समान ही मनुष्य में आर्द्रता होती है। तभी दया, ममता, करुणाआदि गुणों के कारण वह दूसरों के दुख को सुनकर द्रवित हो जाता है। पृथ्वी का गुण ठोसपन (solidification) है। पृथ्वी की तरह मनुष्य भी ठोस है अन्यथा वह टिक नहीं सकता हवा में झूलता रहेगा। पृथ्वी की तरह शरीर में भी अनेक प्रकार के खनिज पदार्थ एवं लवण कैलशियम, पोटाशियम, फासफोरस, सोडियम, लोहा, तांबा, सल्फर आदि विद्यमान हैं। 
            ब्रह्माण्ड और शरीर में समानता है पर अन्तर केवल स्थूल व सूक्ष्म का है। जितने मूर्तिमान भाव विशेष इस लोक में हैं वे सब मनुष्य में हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो लोक या प्रकृति तथा पुरुष में समानता है। चरक संहिता इसी कथन को हमारे लिए कहती है- 
     यावन्तो  हि  लोके  मूर्तिमन्तो  भावविशेषा:।
     तावन्त: पुरुषे यावन्त: पुरुषे तावन्तो लोके॥
अर्थात् लोक और पुरुष (पुरुष और लोक) का यह समता सम्बन्धित ज्ञान, दोनों में अन्तर करने वाली विभेदक बुद्धि नष्ट हो जाती है। मनुष्य में सत्य बुद्धि का उदय होता है, इससे संसार के सम्पूर्ण प्राणिमात्र में अपनत्व उत्पन्न होता है।
          ब्रह्माण्ड में चेतनता है तो मनुष्य भी चेतन है। एक स्थान से दूसरे स्थान तक चलता फिरता रहता है। परन्तु जब यह किसी कारण से रोगी हो जाता है और चलने-फिरने में अक्षम हो जाता है तो इसमें जड़ता आने लगती है। ईश्वर ने बुद्धि के रूप में  सबसे अच्छा उपहार इसे दिया है। इस बुद्धि से वह चमत्कार करता है।
          इस प्रकार पंचमहाभूतों के सभी गुण मनुष्य में हैं। जिसे दूसरे शब्दों में कह सकते हैं कि जो इस ब्रह्माण्ड में है वही इस शरीर में भी है।
चन्द्र प्रभा सूद 

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें