शुक्रवार, 5 सितंबर 2025

ईश्वर की उपासना का प्रदर्शन

ईश्वर की उपासना का प्रदर्शन 

ईश्वर की उपासना का प्रदर्शन या ढोंग करने वाले मनुष्यों को आम भाषा मे बगुला भक्त कहा जाता है। बगुला भक्तों के लिए प्रायः यह कहा जाता है- 
             मुँह में राम बगल में छुरी।
इस उक्ति का अर्थ है कि मुॅंह से तो राम का नाम जपते हैं अपनी बगल में दूसरों को काटने के लिए छुरी रखते हैं। 
            मुझे कुछ ऐसा लगता है कि ईश्वर की उपासना करो तो सच्चे मन से। वहाँ दिखावा नहीं होना चाहिए। आप किससे अपने भक्त होने का सर्टिफिकेट या तमगा चाहते हैं। इस भौतिक संसार से यदि यह प्रशंसा पा ली कि अमुक व्यक्ति बड़ा भक्त है या बहुत बड़ा दानी है तो उससे क्या फर्क पड़ेगा? जिसकी उपासना के लिए सब ढोंग कर रहे हो यदि उसने अस्वीकृत कर दिया तो सब व्यर्थ हो जाएगा। हमें तो बस ईश्वर की नजर में सच्चा भक्त बनना है, दुनिया की नजर में नहीं।
              बगुले को भक्त क्यों कहते हैं? पहले यह जानना आवश्यक है तभी जान सकेंगे कि मनुष्य को बगुला भक्त क्यों कहा गया है? कहते हैं कि जब बगुला जब मछली पकड़ने में असमर्थ हो गया है तब उसने एक तरकीब सोची। वह तालाब में एक टॉंग पर खड़ा हो गया। उसे देखकर मछलियों ने सोचा अब यह भक्त बन गया है। इसलिए इससे डरने की कोई आवश्यकता नहीं। वे बेचारी मछलियाँ उसके षडयन्त्र को समझ नहीं सकीं। मस्ती से तालाब में इधर-उधर अठखेलियाँ करने लगीं। अब बगुले की मौज हो गई। जो मछली उसके पास आती तो वह सबकी नजर बचाकर उसे खा लेता। तो यह थी भक्त बने बगुले की सच्चाई।
           मनुष्यों में जो मनुष्य अपने आचार-व्यवहार एवं चरित्र से वास्तव में ईश्वर का भक्त है, उसे यह बताने या दिखाने की कोई आवश्यकता नहीं होती कि वह सच्चा भक्त है। जैसे हीरे को अपने मूल्यवान होने का प्रमाण किसी को भी नहीं देने की जरूरत नहीं होती। उसका पारखी जौहरी उसका मूल्य स्वयं ही लगा लेता है। और जान लेता है वह हीरा कितना कीमती है।
             जो लोग आयुपर्यन्त लूट-खसौट करते हैं, चोरी, रिश्वतखोरी, भ्रष्टाचार आदि कुकर्मों में लिप्त रहते हैं, वे मन्दिर में जाकर कितनी भी घण्टियाँ बजा लें, ईश्वर उनसे कभी प्रसन्न नहीं होता। बेशक वे सुखी होने का दिखावा करें परन्तु मन में हर समय ही भयभीत रहते हैं। कभी उन्हें अपनी सफेदपोशी को बचाए रखने का डर सताता है तो कभी कानून के शिकंजे में जकड़े जाने का भय परेशान करता है। अपने घर-परिवार के सदस्यों के मनमाने व्यवहार से ये लोग प्रायः पीड़ित रहते हैं। इसीलिए मनीषी हमें समझाते हैं- 
         जैसा खाओ अन्न वैसा होगा मन।
यानी नाजायज तरीके से कमाए धन का सभी लोग दुरूपयोग करते हैं।
        मन्दिरों या धार्मिक स्थानों पर गुप्त दान के नाम लाखों रूपयों नकद रूप में या सोने-चाँदी के आभूषण एक ही व्यक्ति क्या ईमानदारी व सच्चाई की कमाई से कभी दे सकता है? इसका उत्तर सभी न में ही देंगे। ईश्वर अन्याय और बेइमानी से कमाए ऐसे धन को दान में प्राप्त करके कभी प्रसन्न नहीं होता। यह भी सत्य है कि ऐसे लोगों की कमाई में कभी बरकत भी नहीं होती।
               पूजा, अर्चना और दान उन्हीं लोगों का फलीभूत होता है जो ईमानदारी व सच्चाई से अपनी आजीविका कमाते हैं। ऐसे लोगों के पैसे में बहुत बरकत होती है। मेरी बात पर विश्वास न करके अपने आसपास इसको कसौटी पर परख लें तभी मानें। इन लोगों के धन का दुरुपयोग न के बराबर होता है। हो सकता है कि ऐसे लोग बहुत अधिक धन नहीं कमा सकते, भौतिक संसाधनों को नहीं जुटा पाते हों परन्तु इनके जीवन में सुकून और शान्ति रहती है। 
              कुछ लोग अपने जीवन में दुष्कर्मों की ओर प्रवृत्त रहते हैं और घण्टों-घण्टों पूजापाठ करते हैं। बड़े दुख की बात है कि उनका यह सब निष्फल हो जाता है। वे शायद सोचते हैं कि पूजापाठ करने से उनके पाप कट जाएँगे पर ऐसा नहीं होता। वे इस सत्य को भूल जाते हैं- 
       अवश्यमेव भोक्तव्यं कृतं कर्म शुभाशुभम्।
अर्थात् जो भी अच्छे या बुरे कर्म मनुष्य करता है उन दोनों का ही फल उसे भोगना पड़ता है। दूसरे शब्दों में कहें तो इस दण्ड विधान में उन लोगों की इच्छा नहीं पूछी जाती।
           अपने आपको ईश्वर की दृष्टि में श्रेष्ठ सिद्ध करना चाहिए। दुनियावी प्रदर्शन से बचना चाहिए। जिस मालिक के नाम पर सारे आडम्बर कर रहे हैं वह तो सर्वज्ञ है। कबूतर के आँखें बंद कर लेने से जैसे बिल्ली नहीं भाग जाती, उसी प्रकार अपने कर्मों से भी जीव नहीं बच सकता। फल भोगते समय बहुत कष्ट होता है। घर-परिवार सहित सारी दुनिया से मनुष्य छल कर सकता है पर स्वयं से भागकर कहीं नहीं जा सकता। उसका मन उसे कचोटता रहता है, फिर भी वह समझता नहीं है।अतः बगुला भक्त न बनकर ईश्वर का सच्चा भक्त बनना चाहिए।
चन्द्र प्रभा सूद 

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