जिन्दगी के साथ छुपन छुपाई का खेल
बच्चों की भाँति हम जिन्दगी के साथ आँख मिचौली या छुपन छुपाई का खेल खेलते रहते हैं। हम अपनी आँखें बन्द कर लेते हैं और यह सोचते हैं कि हमें कोई नहीं देख रहा इसलिए हम अपनी मनमानी कर सकते हैं परन्तु यह किसी सूरत नहीं हो सकता।
इस खेल में एक बच्चा आँखें बंद करके सौ तक गिनती गिनता है और बाकी सभी बच्चे ऐसी जगह छिपने की कोशिश करते हैं जहाँ बारी(den) देने वाला उनको आसानी से ढूँढ न सके। वह गिनती पूरी करके ढूँढने निकलता है। जिसे वह पकड़ लेता है उसे अपनी बारी देनी होती है। इस प्रकार यह खेल चलता रहता है। इस खेल में बच्चे के आँख बन्द कर देने के बाद उसे कोई नहीं दिखाई देता। इसका यह अर्थ कदापि नहीं कि वह मनमर्जी करे या सबको झाँसा देकर भाग जाए। अपना कार्य उसे करना पड़ता है तभी इस खेल को खेलने का आनन्द आता है।
संसार में रहकर हम सबको खोजने में सारा समय व्यतीत करते रहते हैं। जितना हम अपनों की तलाश में इधर-उधर भटकते रहते हैं, उतना ही वे हमारी पहुँच से दूर होते जाते हैं। यदि हम सबके साथ मिलकर रहें तो क्योंकर अपनों की खोज-खबर लेने के लिए हमें मारा मारा फिरना पड़े? सीधा व सरल सा गणित है जिसे अपना बनाओगे वह पराया होकर भी अपना बन जाएगा। इसके विपरीत यदि अपनों से दुर्व्यवहार करके पराया बना दोगे तो वे अपने हमसे ही छिटककर दूर चले जाएँगे। इसलिए अपना कौन है और पराया कौन है? हमारी बुद्धि पर निर्भर करता है।
हम अपने रिश्ते-नातों, भाई-बन्धुओं, सज्जनों-दुश्मनों के साथ जीवन पर्यन्त यह खेल खेलते रहते हैं। कभी अपनी आर्थिक मजबूरियों के चलते तो कभी सामाजिक, धार्मिक व राजनैतिक कारणों के चलते। कुछ समस्याओं का कारण सचमुच हमारी अपनी विवश्ताएँ होता है और कुछ हमारी मौजमस्ती में डूबकर दूसरों को अनदेखा करने से बन जाते हैं।
मानव जीवन हमें ईश्वर ने ऐसा दिया है कि हमें सबकी आवश्यकता होती है। हमें छोटी-से-छोटी और बड़ी-से-बड़ी हर वस्तु व हर सम्बन्ध चाहिए होता है। किसी के भी न होने की स्थिति में हम पर मानो दुखों का पहाड़ टूट पड़ता है।
इसी प्रकार जीवन में सुख-दुख की भी आँख मिचौली चलती रहती है। न तो हम सुखों को नजर अंदाज कर सकते हैं और न ही दुखों से मुँह मोड़ सकते हैं। दोनों को कर्मानुसार भोगना हमारा प्रारब्ध है। छुटकारा हमारे चाहने से हमें नहीं मिलेगा बल्कि भोगकर ही मिलेगा।
जब हम अपने अहं में प्रकृति के साथ यह खेल खेलने की बेवकूफी करते हैं तो उसका भयंकर दण्ड या प्रकृति का कोप प्राकृतिक आपदाओं के रूप में हमें सहना पड़ता है। ये आपदाऍं अतिवृष्टि, अनावृष्टि, भूकम्प, बाढ़, सुनामी आदि किसी रूप आकार हमारे जीवन को अस्त-व्यस्त कर देते हैं। हम बस कठपुतली की तरह मूक बने इन समस्याओं से दो-चार होते रहते हैं।
हमारा वश चले तो हम जीवन व मृत्यु के साथ भी आँख मिचौली खेल लें। पर ईश्वर ने यह अधिकार अपने पास रखा हुआ है। मनुष्य की यह हस्ती नहीं है कि वह मालिक के न्याय में अपनी नाक घुसा सके। उसे हर हाल में परास्त होना ही होता है। यही विधि का विधान है जिसे हम लोगों को सिर झुकाकर स्वीकार करना होता है। यही इस जीव की नियति है।
इस खेल को खेलते समय अपनी सीमाओं को हमें नहीं भूलना चाहिए। ईश्वर के न्याय को सिर झुकाकर स्वीकार कर लेंगे तो हम सुखी रहेंगे अन्यथा दुखों की चक्की में पिसते रहेंगे। ईश्वरीय विधान को मानने के अतिरिक्त हमारे पास और कोई चारा भी तो नहीं है। हम अपनी मनमर्जी ईश्वर के समक्ष नहीं चला सकते। इस विषय पर हमें स्वयं ही मनन करना है।
चन्द्र प्रभा सूद
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