कौन-सा गुरु दण्डनीय
गुरु बनाने से पहले उसकी सघन परीक्षा कर लेनी चाहिए। मनुष्य जब बाजार में एक मिट्टी का मटका भी खरीदने जाता है, तो अच्छी तरह ठोक बजाकर देख लेता है। जब पूरी तसल्ली कर लेता है, तभी उस मटके को खरीदता है। फिर गुरु तो मनुष्य के जीवन भर का साथी होता है। यदि मनुष्य को ज्ञानी, तत्त्वदर्शी, धीर-गम्भीर, संयमी, व्रतधारी, शान्त प्रकृति का गुरु मिल जाए, तो उसका सौभाग्य होता है।
अज्ञानी, लोलुप, क्रोधी गुरु के मिल जाने पर मनुष्य के जीवन का कोई भला नहीं होने वाला। गुरु की चिकनी चुपड़ी बातों के झाँसे में नहीं आना चाहिए। ऐसे गुरु कभी मनुष्य के पथप्रदर्शक नहीं बनते। उनकी संगति में रहकर अच्छा-भला इन्सान भी स्वयं भ्रष्ट हो जाता है। निकृष्ट कार्य करने वाले व्यक्ति को यदि गुरु मान लिया जाए, तो मनुष्य का पतन निश्चित होता है। ऐसा गुरु एक अच्छे इन्सान को कुमार्गगामी बना देता है।
'वाल्मिकीरामायणम्' में महर्षि वाल्मीकि ने कहा है-
गुरोरप्यवलिप्तस्य कार्याकार्यमजानत:।
उत्पथं प्रतिपन्नस्य न्याय्यं भवति शासनम्।।
अर्थात् यदि आत्माभिमान से उत्फुल्ल कोई गुरु किए जाने योग्य और न किए जाने योग्य कार्य में भेद कर पाने मे अक्षम है और अनुचित मार्ग का अनुगामी हो जाता है तो उसको दण्डित करना न्यायपूर्ण होता है।
यह श्लोक बता रहा है कि यदि कोई गुरु कहा जाने वाला व्यक्ति करणीय और अकरणीय का अन्तर करने में असमर्थ होता है, तो वह दण्डनीय है। वह गुरु ही क्या जो उचित और अनुचित का भेद न कर सके? आज के तथाकथित गुरु इसी श्रेणी में आते हैं। इसीलिए वे न्याय-व्यवस्था के दोषी बनकर वर्षों से कारावास की सजा भुगत रहै हैं। जब वे अपराध करते थे, उस समय उन्हें अपने गुरुत्व का बिल्कुल ध्यान नहीं रहता था।
ऐसे गुरु जिनके पवित्र कहे जाने वाले आश्रमों में अत्याचार, अनाचार, हत्या आदि जैसे दुष्कर्म होते हैं, उस स्थान पर जाना किसी भी मनुष्य के लिए शास्त्र सम्मत नहीं होता। ऐसे स्थानों से जितनी दूरी बनाकर रखी जाए उतना ही अच्छा है। न ये लोग गुरु कहलाने के योग्य होते हैं और न ही इनके आश्रम पवित्र स्थान होते हैं। ये तो कोरे व्यवसायी एवं ठग होते हैं। जो गुरु स्वयं दुर्व्यसनों में आकण्ठ डूबे हुए होते हैं, वे अपने शिष्यों को क्या धर्म का मार्ग दिखा सकते हैं? इन गुरुओं से किनारा करने के लिए मनीषी कहते हैं।
वास्तव में गुरु वह होता है, जो अपने शिष्य के अन्तस् में विद्यमान अँधकार को दूर करके उसे प्रकाशित करता है। उसकी आध्यात्मिक भूख को शान्त करने का यथासम्भव करता है। उसके हर प्रश्न का उत्तर बहुत धैर्यपूर्वक व सहजता से देता है। उसकी कथनी और करनी एक होती है। तभी उसकी कही गई बात का मूल्य होता और उसकी बताई गई हर बात का सामने वाले पर प्रभाव पड़ता है।
परन्तु जिन तथाकथित गुरुओं की कथनी और करनी में अन्तर होता है, उनकी कही किसी भी बात का प्रभाव सामने वाले पर नहीं पड़ता। ये लोग स्वयं भ्रष्ट होते हैं, इसलिए ये सदा अवसर की तलाश में रहते हैं। इनके दिए गए भाषण का भी कोई असर नहीं होता। इन लोगों की संगति में रहने वाले मनुष्यों के विचार भी दूषित होने लगते हैं। वे आध्यात्मिक उन्नति तो नहीं कर सकते, पर उनका भौतिक पतन अवश्य होने लगता है।
इसीलिए शास्त्र कहते हैं कि जो गुरु शिष्य की कसौटी पर खरा न उतरे, उसका परित्याग कर देना चाहिए। इसके अतिरिक्त जो व्यक्ति गुरु के नाम पर कलंक हो, उस तथाकथित पाखण्डी गुरु के चंगुल से शीघ्र ही बच निकलने का प्रयास करना चाहिए। समाज के इन शत्रुओं को देश, धर्म और समाज का दोषी मानते हुए उन्हें न्याय-व्यवस्था के हवाले कर देना चाहिए। वही इनके अपराध के अनुसार सजा देकर उदाहरण प्रस्तुत करेगा।
चन्द्र प्रभा सूद
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