पाप-पुण्य की खेती
हमारा यह शरीर एक खेत के समान है, मन, वचन और कर्म तीनों किसान हैं। पाप और पुण्य रूपी दो प्रकार के बीज मनुष्य के पास हैं। अब यह व्यक्ति विशेष पर निर्भर करता है कि वह अपने खेत में क्या बोना चाहता है? वह अपने लिए कैसी फसल की कामना करता है? क्योंकि जैसी फसल मनुष्य बोएगा, उसे देर-सवेर वैसे ही कड़वे-मीठे फल खाने के लिए मिलेंगे। इसमें कोई सन्देह नहीं है।
तुलसीदास जी निम्न दोहे में कह रहे हैं कि-
तुलसी काया खेत है,मनसा भये किसान।
पाप पुण्य दो बीज हैं, बुवै सो लिवे निदान।।
तुलसीदास जी कहते हैं कि हमारा यह शरीर एक खेत है और हमारा मन एक किसान है। पाप व पुण्य दोनों बीज उसके पास हैं। खेत में जिस प्रकार का बीज बो कर खेती होती है, वैसी फसल प्राप्त होती है। उसी प्रकार शरीर रूपी खेत में मन रूपी किसान पाप या पुण्य दोनों में से जिसके बीज डालता है, उसी की फसल भी काटता है। अर्थात् मनुष्य का मन ही पाप व पुण्य दोनों में से किसी एक की ओर आकर्षित होता है।
मनुष्य जैसा बोयेगा, वैसा ही फल पायेगा अर्थात् अच्छे या पुण्य कर्मों का उसे अच्छा फल मिलता है और बुरे या पापकर्मों का उसे बुरा फल मिलता है। एक उक्ति अक्सर कही जाती है-
'बोया पेड़ बबूल का तो आम कहाँ से खाय'
इसका अर्थ है कि मनुष्य यदि बबूल के पेड़ खेत में बोता है, तो उसे बबूल के दुखदायी काँटे ही मिलेंगे। उसे आम के मीठे फल खाने के लिए नहीं मिल सकते।
मनुष्य को अपने कर्म करते समय बहुत सावधान रहना चाहिए। उसे ऐसे कर्म कभी नहीं करने चाहिए, जिससे उसे अपने जीवन में दुखों और परेशानियों का सामना करना पड़े। उसका जीवन नरक के समान दुखदायी बन जाए। उसे अपने कर्मों को करते समय बहुत ही सोच-विचार करना चाहिए। जब उसे लगे कि यह कार्य उसके लिए दुख का कारण नहीं बनेगा, तब ही उसमें हाथ डालना चाहिए।
शुभकर्म मनुष्य को सुख-समृद्धि और शान्ति देते हैं। इन कर्मों को करते समय मनुष्य के मन में एक उत्साह बना रहता है। इसलिए ये कर्म उसे ऊर्जा प्रदान करते हैं। शुभकर्मों को करते करते मनुष्य को अशुभ कर्मों की ओर किसी भी शर्त पर प्रवृत्त नहीं होना चाहिए। अपनी खुशियों को बनाए रखने के लिए मनुष्य को अपना हर कदम फूँक-फूँककर रखना चाहिए। इसी में ही उसका भला होता है।
पापकर्म का मार्ग बहुत ही आकर्षक होता है। वह शॉर्टकट का रास्ता होता है। इसलिए मनुष्य इस भ्रमजाल में फँसकर अपने पैर पर कुल्हाड़ी मार लेता है। दलदल से भरे इस रास्ते की ओर जाना बहुत सरल है, परन्तु इससे वापसी का कोई मार्ग नहीं होता। यदि किसी कारण से मनुष्य उस मार्ग को छोड़ना चाहे, तो उसके साथी उसे वहाँ से निकलने नहीं देते। फिर मनुष्य न्याय व्यवस्था का दोषी बन जाता है।
शुभकर्मां वाला रास्ता लम्बा और परेशानियों वाला होता है। इस मार्ग में बहुत सी परीक्षाएँ मनुष्य को देनी पड़ती हैं। जो इनसे घबराकर गलत राह चुन लेता है, उसका विनाश निश्चित होता है। पर जो कठिनाइयाँ सहन करके भी अपने मार्ग पर दृढ़ रहता है, वह अन्ततः जीत जाता है। उसे ही अपने जीवन में सुख-शान्ति प्राप्त होती है। उसे यह सन्तोष होता है कि उसने अपनी सच्चाई की राह नहीं छोड़ी।
मनुष्य जो भी शुभाशुभ कर्म अपने इस जीवन में करता है। उनमें से कुछ को वह भोग लेता है, उसके शेष कर्म पूर्वजन्मों के बचे हुए कर्मों में जुड़ जाते हैं। यही कर्म मनुष्य का प्रारब्ध या भाग्य बनते हैं। इन्हीं कर्मों के अनुसार उसे अगला जन्म और सुख-दुख आदि मिलते हैं। सुख-समृद्धि के मिलने पर मनुष्य निहाल हो जाता है। परन्तु दुख-परेशानियों के मिलने पर वह टूट जाता है। उसका यह कष्ट का समय काटे नहीं कटता।
मनीषी मनुष्य को हमेशा पुण्यकर्म करने के लिए प्रेरित करते हैं और पापकर्मों से विमुख होने के लिए बल देते हैं। पाप या पुण्य जो भी कर्म मनुष्य करता है, उसका भोग उसे स्वयं ही भोगना पड़ता है। उसका कोई बन्धु-बान्धव उस कर्म के भोग में साथी नहीं बनता। फिर किसके लिए मनुष्य पापकर्म करता है? जैसी भी खेती मनुष्य करना चाहता है उसमें वह स्वतन्त्र है। शेष उसे स्वयं विचार करना है।
चन्द्र प्रभा सूद
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