मन की बात मन में
मनुष्य के साथ बहुधा ऐसा होता है कि वह बहुत कुछ कहना चाहता है, पर उसकी बात उसके मन में ही रह जाती है। समय बीत जाने के बाद वह सोचता है कि उसे ऐसे कहना चाहिए था या वैसे कह देना चाहिए था। पर अब तो कुछ भी नहीं हो सकता। तब तक वह कहने का अवसर खो चुका होता है। अपने मन की बात को दूसरों के समक्ष प्रकट न कर पाने के कई कारण हो सकते हैं।
बड़ों का सम्मान करना एक कारण हो सकता है। माता-पिता अथवा गुरुजनों के सम्मान के कारण मनुष्य उन्हें उत्तर नहीं दे पाता। उसे लगता है कि यदि उन्हें पलटकर जवाब दिया गया, तो कहीं वे इसे अपना अपमान न समझ लें। इसलिए वह उस समय चुप लगा जाता है। शायद बड़े लोग मनुष्य की इस चुप्पी को उसकी भूल मानकर लानत-मलानत करते हैं।
मनुष्य जिससे प्यार करता है, उसे ठेस न लगे या उसे बुरा न लग जाए, यह सोचकर वह अपने मन को मारकर खामोश हो जाता है। अपने प्रियजन का दिल दुखाने के विषय में वह स्वप्न में भी कभी सोच नहीं सकता। यह मनुष्य का दुर्भाग्य है कि इस चक्कर में कभी-कभी वह कटघरे में खड़ा कर दिया जाता है। अपने प्यार को बचाने के लिए वह अपनी अवमानना सहन कर जाता है।
जो मनुष्य अपने रिश्तों का सम्मान करता है, वह उन्हें किसी भी शर्त पर कभी बिगड़ने नहीं देना चाहता। रिश्ते न बिगड़ जाएँ, इसलिए वह गम खा लेता है। परन्तु वह किसी से कुछ नहीं कहता। अपने रिश्तों को वह सहेजकर रखना चाहता है। यदि कोई छोटी-मोटी बात उनमें हो भी जाए, तो उसे दरकिनार कर देता है। सच कहा जाए तो रिश्ते इसी प्रकार निभाए जाते हैं। समय आने पर उनकी दूरी मिट जाती है।
मन की बात को न कह सकने का कारण डर भी हो सकता है। डर के कारण मनुष्य सामने वाले को जानते-बुझते हुए कुछ कह नहीं पाता। वह अपनी सफाई में बहुत कुछ कहना चाहता है, पर वह डर के कारण बोलने में असमर्थ हो जाता है। वहाँ मानो उसकी घिघ्घी बँध जाती है और वह मौन रह जाता है। यह डर उसके अवसाद का कारण बन जाता है। इस तरह मनुष्य का डर जीत जाता है और वह स्वयं हार जाता है।
जब किसी बन्धु-बान्धव की मृत्यु हो जाती है, तब मनुष्य सोचता है कि जाने वाला तो चला गया, अब इसके बारे में कुछ कहने का कोई लाभ नहीं। इसलिए बहुत कुछ जानते हुए भी वह चुप रह जाता है। यह मनुष्य की समझदारी होती है, जो वह मृतक की छीछालेदर नहीं करता। वह उसके सारे रहस्यों को अपने मन के किसी कोने में ही दफन कर देता है। उन्हें प्रकट नहीं करता।
किसी का दिल दुखाना जब मनुष्य को अच्छा नहीं लगता, तब वह मौन साध लेता है। प्रत्येक मनुष्य अपने परिवारी जनों और प्रियजनों के प्रति बहुत संवेदनशील होता है। वह नहीं चाहता कि उसकी किसी भी बात से उन्हें चोट पहुँचे। इसलिए वह अपने मन की बात को प्रकट नहीं करता। वह यही चाहता है कि उसके अपने सदा प्रसन्न रहें। तभी वह कड़वा घूँट स्वयं पीकर सबको खुशियाँ देता है।
यदि मनुष्य को किसी व्यक्ति से लाभ मिलता होता है, तब वह उसके सामने अपना मुँह नहीं खोलता। उस समय उसकी हर अच्छी-बुरी बात को वह सहन कर लेता है, पर पलटकर उसे जवाब नहीं देते। वह उसकी हाँ में हाँ मिलता रहता है। उसके पीछे कारण यही होता है कि वह उस व्यक्ति को नाराज करके वह अपना अहित नहीं करना चाहता। इसलिए वहाँ मौन ही उसका अस्त्र होता है।
इस प्रकार मनुष्य सही होते हुए भी दूसरे लोगों से कुछ नहीं कह पाता। कई बार मनुष्य की यह चुप्पी उसे भारी पड़ जाती है। लोग उसे गलत समझने की भूल करने लगते हैं। तब उसे कुछ न बोलने का खामियाजा भुगतना पड़ जाता है। इसलिए हर मनुष्य को चाहिए कि वह उचित समय पर अपने मन की बात बिना डरे कह डाले। इससे उसे अपने मन को मारकर पश्चाताप नहीं करना पड़ेगा। सत्य बात को कहने से उसके मन को सन्तोष होगा।
चन्द्र प्रभा सूद
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