मृत्यु मनुष्य का मित्र
मनुष्य के जन्म लेने से लेकर इस संसार से विदा लेने तक मृत्यु सदा उसके साथ रहती है। वह मनुष्य का साथ पल भर के लिए भी नहीं छोड़ती। वह एक मित्र की तरह सदा उसके साथ-साथ चलती है यानी मृत्यु का साया सदैव मनुष्य के साथ ही रहता है या उसके ऊपर मँडराता रहता है। यह सत्य है कि चाहकर भी इससे वह कभी अलग नहीं हो सकता। कोई भी सम्बन्ध मनुष्य के साथ मृत्यु की तरह इतना समय तक साथ नहीं निभा पाता।
मनीषी कहते हैं कि परछाई हमेशा मनुष्य के साथ ही चलती है। इसलिए वह अपने आस-पास अपनी परछाई को देखता है। समुद्रशास्त्र और सूर्य अरुण संवाद के अनुसार जब आत्मा मनुष्य को छोड़कर जाने लगती है, तब उसकी परछाई भी उसका साथ छोड़ देती है। कहने का तात्पर्य यह है कि व्यक्ति की परछाई तो उस समय भी होती है, लेकिन मरणासन्न व्यक्ति की दृष्टि अपनी परछाई को देख नहीं पाती है। उस समय उसकी आँखों में परछाई देखने की शक्ति समाप्त हो जाती है।
मृत्यु कोई डरावनी वस्तु नहीं है। वह मनुष्य की विश्राम स्थली है। जिस प्रकार मनुष्य दिनभर परिश्रम करके थक जाता है, तब रात होने पर सो जाता है। प्रातःकाल तरोताजा होकर फिर से अपने काम में जुट जाता है। उसी प्रकार सारा जीवन मनुष्य सुख-दुख के थपेड़ों को खाता हुआ थक जाता है। तब वह मृत्यु की गोद में जाकर सो जाता है। फिर जागने के उपरान्त वह अपने नए जीवन की यात्रा के लिए तैयार हो जाता है।
विकिपीडिया के अनुसार मृत्यु कोई शब्द नहीं है। महाभारत ग्रन्थ के अनुसार मृत्यु एक परम पवित्र मंगलकारी देवी है। सामान्य भाषा में किसी भी जीवात्मा अर्थात् प्राणी के जीवन के अन्त को मृत्यु कहते हैं। सामान्यतः वृद्धावस्था, लालच, मोह, रोग, कुपोषण के फलस्वरूप होती है। मुख्यत: मृत्यु के 101 स्वरूप होते है, लेकिन यह 8 प्रकार की मुख्य होती है। जिसमे बुढ़ापा, रोग, दुर्घटना, अकस्माती आघात, शोक, चिन्ता और लालच मृत्यु के मुख्य रूप है।
मृत्यु उतनी ही सत्य है, जितना मनुष्य का इस संसार में जन्म लेना होता है। मनुष्य जन्म लेता है, धीरे-धीरे बड़ा होता है। वह पढ़-लिखकर योग्य बनता है। फिर कोई नौकरी करता है या व्यवसाय। उसके उपरान्त विवाह करके अपनी गृहस्थी बसता है। फिर बच्चों का पालन-पोषण करता है। उनके सैटल हो जाने पर, उनका विवाह करता है। तब तक वह स्वयं वृद्धावस्था की ओर कदम रख देता है। तदुपरान्त समय बीतते उसके इस संसार से विदा होने का समय आ जाता है यानी वह मृत्यु की गोद में चल जाता है।
कहते हैं मृत्यु आने से नौ महीने पहले से ही कुछ ऐसी घटनाएँ होने लगती हैं, जो मृत्यु का संकेत देती हैं। यह संकेत इतने सूक्ष्म होते हैं कि मनुष्य अपनी प्रतिदिन की जिन्दगी में उन पर ध्यान ही नहीं दे पाता। जब मृत्यु एकदम करीब आ जाती है, तो पता लगता है कि कई काम तो अधूरे ही रह गए हैं। ऐसी स्थिति में अन्तिम क्षणों में मन भटकने लगता है, तब मृत्यु कष्टदायक हो जाती है।
पुराणों का कथन है कि मृत्यु के समय यदि मनुष्य का मन शान्त और इच्छाओं से मुक्त होता है, तब वह बिना कष्ट के प्राण त्याग देता है। ऐसे व्यक्ति की आत्मा को परलोक में सुख की अनुभूति होती है। सयाने लोगों को ऐसा भी कहते सुना है कि मृत्यु के समय मनुष्य की जैसी वृत्ति होती है, उसे उसी के अनुरूप नया जन्म मिलता है। इसीलिए उस समय उसके पास बैठकर बन्धुजन किसी धर्मिक ग्रन्थ का पाठ करते हैं या फिर ईश्वर के नाम का जाप करते हैं।
इस प्रकार मनुष्य के जीवन की यह साइकिल या एक चक्र समाप्त हो जाता है। यानी मनुष्य की मृत्यु उसके जीवन चक्र की एक स्वाभाविक प्रक्रिया है। इस प्रकार भी कह सकते हैं कि मृत्यु एक जन्म के अन्त और दूसरे जन्म के आरम्भ की एक प्रक्रिया है। जीवन का अन्त समय सुधारने के लिए अभी से ईश्वर का नाम स्मरण करने का अभ्यास करना चाहिए। ताकि उस समय पश्चाताप न करना पड़े।
चन्द्र प्रभा सूद
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