बहुरूपिया मन
हमारा मन एक बहुरूपिया है। बहुरूपिया उसे कहते हैं जो विभिन्न प्रकार के रूप धारण करने में सक्षम होता है। बहुरूपिया व्यक्ति तरह-तरह के रूप धारण करके लोगों का दिल बहलाता है। लोग उसकी अदाकारी को बहुत समय तक स्मरण करते हैं। उसी प्रकार तरह-तरह के स्वाँग रचाकर मनुष्य का यह मन भी उसे नाना प्रकार से बहलाता रहता है। अपनी मोहिनी छवि से मनुष्य को अपने जाल में फँसाकर मोहित कर लेता है।
मन सदा ही गतिमान रहता है। वह असंख्य स्थानों की सैर पल भर में करके आ जाता है। उसकी गति की सीमा को निर्धारित नहीं किया जा सकता। यदि कोई चाहे भी तो इसके उड़ान भरते पंखों को कोई नहीं काट सकता। मन को यदि किसी तरह से प्रवाह रहित कर दिया जाए, तब मनुष्य छोटे बच्चे की तरह विवेक शून्य हो जाएगा। उस समय मनुष्य सोचने-समझने की शक्ति ही खो देगा।
यहाँ नदी का उदाहरण लेते हैं। नदी बिना रुके निरन्तर प्रवाहित होती रहती है। रास्ते में अनेक चट्टानें उसका मार्ग अवरुद्ध करने के लिए पड़ी रहती हैं। परन्तु वे बड़ी-बड़ी चट्टानें उसके जल के प्रवाह को नहीं रोकने में समर्थ नहीं हो सकती। नदी का जल अपना मार्ग बना लेता है। वह उन चट्टानों के अगल-बगल होकर बहने लगता है। इस प्रकार नदी का जल सदा गतिमान रहता है।
नदी की तरह मनुष्य का यह मन सतत प्रवहमान रहता है। इसकी गति को कोई आजतक बाँध नहीं पाया है। कितने भी अवरोध लगा लो, यह अपने विचरने का मार्ग निकल लेता है। मनुष्य को तरह-तरह के सब्जबाग यह दिखाता ही रहता है। उसे भरमाता रहता है। उसे कभी भी चैन से नहीं बैठने देता। मनुष्य इसके बनाए भ्रमजाल में उलझकर रह जाता है, उससे बाहर निकलने के लिए छटपटाता है।
मनुष्य का मन उसे सतरंगी सपने दिखाता है। वह काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार को प्रोत्साहित करता है। मनुष्य को शुभ कर्म करने के लिए उत्साहित करता है। उसे अशुभ कार्य करने पर डराता नहीं है बल्कि उकसाता है। उसके आलस्य को पोषित करता है। उसे निकम्मा बनने में सहायता करता है। जैसा मनुष्य करना चाहता है, वैसा करने में उसकी हाँ में हाँ मिलता रहता है।
इस तरह अनेक रूप धारण करके यह मन एक ओर मनुष्य का मनोरंजन करता है और दूसरी ओर उसे विनाश के गर्त में धकेल देता है। इस प्रकार यह अपने अनेक रूपों से मनुष्य को प्रभावित करता है। जो मनुष्य इस मन को अपने वश में कर लेता है, तो मन उसके अनुसार चलता है। इसके विपरीत जो मनुष्य मन के अनुसार चलते हैं, वे दुखों और परेशानियों में घिर जाते हैं।
यदि मनुष्य अपने इस जीवन में सुख-चैन से जीना चाहता है, तो उसे मन की बात को सुनकर अपने विवेक का भी सहारा लेना चाहिए। मन का सुझाया हुआ जो मार्ग उचित लगे, तो उसका अनुसरण करना चाहिए। जहाँ लगे कि मन का बताया हुआ मार्ग अनुचित प्रतीत हो रहा है अथवा वहाँ कुछ सन्देह हो रहा है, तब वहाँ अच्छे से सोच-विचार करके अपना कदम आगे बढ़ाना चाहिए।
हमारा खुराफाती मन हमें विभिन्न प्रकार के नजारों में उलझाकर तमाशा देखता है। इस मन को मनुष्य किस प्रकार सीधे रास्ते पर लेकर आएँ? यह प्रश्न ऐसा है, जिसे सुलझा पाना बहुत ही टेड़ी खीर है। कितने ही ऋषि-मुनि इसे साधने में सफल हो गए और कितने ही हारकर मन के दास बन गए। मनुष्य की सफलता और असफलता का मुख्य कारण यह मन ही होता है।
कर्म योग से यह मन विचलित नहीं होता। इसे साधने के लिए मनुष्य को अनवरत कर्म की साधना करनी पड़ती है। इसका अर्थ यह है कि मनुष्य को अपने कर्मों को पूर्णरूपेण से ईश्वर को समर्पित कर देना चाहिए। जब वह अपने कर्म ईश्वर को समर्पित करेगा, तब निश्चित ही उसका ध्यान कर्मों की शुचिता की ओर जाएगा। वह अशुभ कर्म करने से बचेगा और शुभ कर्म करेगा।
चन्द्र प्रभा सूद
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