जीवन एक हवन कुण्ड
संसार एक विशाल हवन कुण्ड के समान है। जिसमें यह हवन 24×7 यानी निरन्तर होता ही रहता है। इसमें सब कुछ होम हो जाना होता है। सभी लोग अपने घरों में किसी न किसी अवसर पर यज्ञ या हवन करवाते रहते हैं। उन्हें अच्छी तरह पता है कि हवन करने के लिए बहुत-सी सामग्री और शुद्ध घी की आवश्यकता होती है। हवन कुण्ड में अग्नि जलाकर मन्त्रोच्चारण करके इसमें सामग्री एवं घी की आहुति दी जाती है।
हवन करते समय सामग्री को सही अनुपात में हवन कुण्ड में डाला जाना चाहिए, जिससे सामग्री समाप्त न हो और न वह शेष बची रहे। उसी प्रकार मनुष्य को अपनी लाइफ का मेनेजमेन्ट करना आना चाहिए। जिससे उसका जीवन बीत जाए और उसका अर्जित किया हुआ धन-वैभव भी बचा न रहे। परन्तु ऐसा होता नहीं है। मनुष्य जीवन भर अपने भविष्य के लिए कुछ कुछ संग्रह करता रहता है।
जब हवन करते हैं, तब हर व्यक्ति उसमें थोड़ी-थोड़ी सामग्री डालता है। उसे यह आशंका रहती है कि कहीं हवन समाप्त होने से पहले ही सामग्री खत्म न हो जाए। हवन कर्त्ता भी बूँद-बूँद करके घी डालता है कि कहीं घी खत्म न हो जाए। अन्त में सबके पास बहुत-सी हवन सामग्री बच जाती है और घी भी बच जाता है। हवन की समाप्ति पर बची हुई सारी सामग्री और घी अग्नि में डाल दी जाती है। यह जानते हुए कि सारी सामग्री हवन कुण्ड में डालनी है, पर फिर भी उसे बचाते हैं।
इसी प्रकार हम मनुष्य भी जीवन के अन्तिम पड़ाव यानी अपनी वृद्धावस्था के लिए पाई-पाई करके धन-वैभव आदि बहुत कुछ बचाए रखते हैं, उन्हें किसी भी स्थिति में खर्च नहीं करते। मनुष्य का यह दुर्भाग्य है कि उसकी जमीन-जायदाद और उसका बैंक में पड़ा धन सब यहीं पड़ा रह जाता है।मनुष्य का धन-दौलत उसके काम नहीं आती, पर उसके पीछे वाले यानी सब कुछ उसकी सन्तानों के हवाले हो जाता है।
इस तरह पल-पल करके एक दिन उसके इस जीवन की पूजा भी समाप्त हो जाती है और हवन सामग्री रूपी उसकी धन-दौलत बची रह जाती है। जो उसके किसी काम नहीं आती। सारी आयु मनुष्य कंजूसी करता रहता है, ताकि उसे अपने अन्तिम काल में किसी के आगे हाथ न पसारने पड़ें। उसका जीवन सुचारू रूप से चल सके। उसकी आवश्यकताएँ पूरी होती रहें।
मनुष्य बचाने के चक्कर में इतना खो जाता है कि यह भी भूल जाता है कि उसका सब कुछ इस हवन कुण्ड के हवाले ही होना है, उसे बचाकर क्या करना है? जब जीवन का अन्तकाल आता है, तब यह मायने नहीं रखता कि मनुष्य ने जिन्दगी में कितनी साँसे ली हैं, बल्कि यह मायने रखता है कि मनुष्य ने उन साँसों में कितनी जिन्दगी जी है। मनुष्य को इस छोटे से जीवन में भरपूर जीना चाहिए।
यजुर्वेद में मनुष्य शरीर के विषय में कहा गया है-
'भस्मान्तमिदं शरीरम्'
अर्थात् यह शरीर भस्म होने वाला है।इसका कारण है कि यह नश्वर है। एक दिन इसे अग्नि के हवाले कर दिया जाना है। जिस दिन मनुष्य के प्राण उसकी देह को त्याग देते हैं, यह वही एक दिन होता है, जब उसके अपने ही प्रियजन अग्नि में उसका संस्कार कर देते हैं।
दूसरे शब्दों में कहें तो एक दिन ऐसा आता है, जब मनुष्य का सब कुछ इस हवन कुण्ड में स्वाहा हो जाता है। वह कुछ नहीं कर सकता। अपने समयानुसार यानी पूर्वजन्म कृत कर्मों के अनुसार मिले हुए इस मनुष्य जीवन से विदा लेनी होती है। यहाँ से फिर वह अगले ने जन्म की तैयारी करता है। तब नए जन्म में फिर दुबारा से वही सारा कर्म मनुष्य के द्वारा दोहराया जाता है।
हवन कुण्ड में डाली जाने वाली सामग्री से वातावरण सुगन्धित हो जाता है। मनुष्य को भी अपने दुर्गुणों को होम करके अपने सद् गुणों का विकास करने के लिए साधना करनी चाहिए। इससे उसकी सुगन्ध रूपी कीर्ति दूर-दूर तक प्रसारित हो जाती है। उसके पहुँचने से पहले ही उसका यश उसके स्वागत के लिए तैयार रहता है। इस प्रकार उसका यज्ञमय जीवन उसे सदा ही गौरवान्वित करता है।
चन्द्र प्रभा सूद
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