बुधवार, 7 अक्तूबर 2020

सेवक की सजा मालिक को नहीं

 सेवक की सजा मालिक को नहीं

मनुष्य को उसके किए गए दोषपूर्ण कार्य की सजा अवश्य मिलती है। ऐसा कदापि नहीं हो सकता कि दोष कोई और व्यक्ति करे, परन्तु उसकी सजा किसी अन्य को मिल जाए। इस प्रकार का चलन यदि हो जाए, तब सर्वत्र अराजकता का माहौल बन जाएगा। गलत काम करने वाला यदि बच जाए और उसके स्थान पर किसी निर्दोष को नाप नहीं सकते। अपने-अपने हिस्से की सजा ही मनुष्य को मिलती है।
         निम्न श्लोक में कवि ने इसी विषय पर कहा है-
       धीमात्रकोपाधिरशेषसाक्षी
             न लिप्यते तत्कृतकर्मलेशैः।
       यस्मादसङ्गस्तत एव कर्मभिः
            न लिप्यते किञ्चिदुपाधिना कृतैः॥
अर्थात् बुद्धि आत्मा की उपाधि है। बुद्धि जो भी इस जगत में व्यवहार (कार्य) करती है, आत्मा उस कर्म की साक्षी होती है। आत्मा बुद्धि द्वारा किये गये कर्मों को देखती है लेकिन उन कर्मों में लेशमात्र भी लिप्त नहीं होती। क्योंकि उपाधि द्वारा किये गये कर्म मूल को नहीं बाँध सकते। 
          इस श्लोक के कहने का तात्पर्य यह है कि शरीर में रहने वाली आत्मा केवल द्रष्टा मात्र है। आत्मा बुद्धि के द्वारा किए गए शुभाशुभ कर्मों की साक्षी होती है। बुद्धि जो भी गलत या सही कर्म करती है, उससे उसका कुछ भी लेना देना नहीं होता। उपाधि यानी बुद्धि के कर्म मूल यानी आत्मा को नहीं बाँध सकते। यह सत्य है कि आत्मा उन कर्मों के लिए उत्तरदायी कदापि नहीं हो सकती। 
          कोई व्यक्ति अपने घर में यदि नौकर रखता है और उसने किसी प्रकार का कोई अपराध कर्म किया है। तब उस कर्म के लिए सजा उसे ही मिलेगी, उसका मालिक उसके लिए बिल्कुल जिम्मेदार नहीं होता। यदि नौकर ने गलती की है तो उसकी सजा उसी को ही मिलेगी, उसके मालिक को कदापि नहीं। इसका अर्थ यही हुआ कि वह मालिक किसी भी तरह दोषी नहीं माना जाएगा।
          कालजयी रामायण की कथा के रचयिता महर्षि वाल्मीकि अपने जीवन के।पूर्वकाल में राहजनी करते थे। यानी वे डाकू थे। उनका नाम रत्नाकर था। एक बार साधुओं की टोली वहाँ से जाने लगी, तो स्वभाव के अनुसार उन्होनें अपने साथियों के साथ लूटने के उद्देश्य से उन्हें रोका। साधुओं ने उनसे पूछा, "यह पापकर्म तुम किसलिए कर रहे हो?"
          रत्नाकर ने उत्तर दिया, "अपने परिवार का पालन करने के लिए।"
          साधु ने उनसे पूछा, "यह पापकर्म तुम जिन लोगों के लिए कर रहे हो, क्या वे इस कर्म में भागीदार होंगे?"
          उन्होंने कहा, "अवश्य ही मेरी पत्नी, मेरे माता-पिता और मेरे बच्चे साथ देंगे।"
           साधु ने कहा, "जाओ उनसे पूछकर आओ।"
           रत्नाकर ने हँसते हुए कहा, "मैं घर जाँऊ और तुम चले जाओ। तुमने मुझे मूर्ख समझा है क्या?"
            साधु ने कहा कि वे उन्हें रस्सी से बाँधकर चले जाएँ। रत्नाकर ने उनकी बात मान ली और घर चले गए। घर जाकर अपनी पत्नी से पूछा, तो उसने उत्तर दिया, "मेरा भरण-पोषण करना तुम्हारा दायित्व है। तुम पैसा कमाते हो, मुझे कोई लेना देना नहीं। मैं तुम्हारे पापकर्म में भागीदार नहीं बनूँगी।"
           रत्नाकर के माता-पिता और बच्चों ने भी उन्हें ऐसा ही कड़वा उत्तर दिया कि केवल वही अकेला अपने कर्मों के लिए जिम्मेदार है, वे सब नहीं। उनकी आँखें खुल गईं और वे साधुओं के चरणों में जाकर गिर गए। फिर वे पश्चाताप करने लगे और तप करने लगे।
           इस घटना को लिखने का उद्देश्य मात्र यही है कि मनुष्य जो भी स्याह-सफेद करता है, उसके लिए वह स्वयं उत्तरदायी होता है। कोई अन्य उसके शुभाशुभ कर्म में भागीदार नहीं बन सकता। चाहे वे उसके माता-पिता हों, चाहे पति या पत्नी हो, चाहे उसके बच्चे या फिर उसके बन्धु-बान्धव कोई भी क्यों न हो, उसके कर्मों के फल से परे रहते हैं। यह भोग अकेले मनुष्य का ही होता है, जो उसे करता है।
           इस चर्चा का सार यही है कि जब मनुष्य के माता-पिता, बच्चे और पत्नी उसके दुष्कर्मों में भागीदार नहीं होते, तो एक सेवक का मालिक उसके पापकर्म का उत्तरदायी कदापि नहीं हो सकता। उस सेवक को अपने दोष की सजा स्वयं ही भोगनी पड़ती है। उसकी पत्नी और बच्चे भी जब उसके कर्मों के फल में हिस्सेदारी नहीं करते, तो उसका मालिक कैसे सजा पा सकता है।
चन्द्र प्रभा सूद

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