जीवन का शुक्लपक्ष और कृष्णपक्ष
प्रत्येक मनुष्य के जीवन में शुक्लपक्ष यानी उजला अंश और कृष्णपक्ष यानी काला अंश दोनों ही होते हैं। इन दोनों को मिलाकर ही किसी मनुष्य का सम्पूर्ण अस्तित्व बनता है। यदि मनुष्य के विषय में समग्र जानकारी प्राप्त करनी हो, तो उसके दोनों पक्षों पर विचार करना अनिवार्य होता है। अन्यथा उसके विषय में एकत्र की गई जानकारी को पूर्ण नहीं कहा जा सकता। वह अधूरी रह जाती है।
मनुष्य जब घर-परिवार, देश, धर्म, समाज और राष्ट्र के हित के कार्य करता है, तो वह उसके जीवन का शुक्लपक्ष होता है। जब वह इनके विपरीत कार्य करता है, तो वह उसके जीवन का कृष्णपक्ष होता है। इस पक्ष में मनुष्य किसी भी कारण से आ तो जाता है, पर इसमें से बाहर निकल पाना असम्भव होता है। ये कार्य तो कोयले की दलाली जैसे होते हैं, जो भी इन्हे छू लेता है, उसका दामन दागदार हो जाता है।
मनुष्य केवल अपना शुक्लपक्ष यानी अच्छा-अच्छा ही सबको दिखाना चाहता है। अपना कृष्णपक्ष यानी काला अथवा बदसूरत हिस्सा सारी दुनिया से छिपाकर रखना चाहता है। वह चाहता है कि लोग उसके जीवन के शुक्लपक्ष को ही देखकर उसके बारे में अच्छी-अच्छी धारणा बनाएँ। वह कभी नहीं चाहता कि उसके जीवन के कृष्णपक्ष को देखकर लोग उसे तिरस्कृत करें या अनदेखा करें।
मनुष्य भूल जाता है कि चिरस्थायी रामकथा को लिखने वाले महर्षि वाल्मीकि के पहले डाकू होने की बात को लोग भूल नहीं पाते। महात्मा बुद्ध के प्रिय शिष्य अँगुलीमाल का पूर्वकाल में डाकू होना लोग याद करते रहते हैं। संस्कृत भाषा के विश्व में सुप्रसिद्ध महाकवि कालिदास का पूर्व में महामूर्ख होना लोग विस्मृत नहीं कर पाते। इसी प्रकार के अनेक उदाहरण इतिहास को खोजने पर मिल जाते हैं।
मनुष्य अपनी सफेदपोशी बनाए रखना चाहता है। मनुष्य चाहता है कि वह जायज या नाजायज किसी भी तरह से धन को कमा ले, किसी को कानोकान उसकी भनक भी नहीं लगनी चाहिए। एक बार पर्याप्त धन कमा लेने के बाद कौन पूछता है कि उसने धन कैसे कमाया? वह सोचता है कि उस धन का दान करके या अपने नाम के पत्थर लगवाकर वह महान बन जाएगा। परन्तु वास्तविक जीवन में ऐसा सम्भव नहीं हो पाता।
मनुष्य का यश या अपयश, उसके शुभाशुभ कर्मों का लेखा-जोखा होता है, जो उससे पहले ही उस स्थान पर पहुँच जाता है, जहाँ वह जा रहा होता है। मुँह के सामने शायद उसका लिहाज करके कोई कुछ न कहे, पर उसकी पीठ के पीछे सब लोग उसके कर्मों पर चर्चा करते हैं, उनका पिष्टपेषण कर डालते हैं। दुनिया तो किसी से नहीं डरती, वह सच्चाई का पोषक होती है, नीर-क्षीर विवेकी होती है। लोगों को किसी के फटे में टाँग अड़ाने की बुरी आदत होती है।
उजले या शुभकर्म करने वाले लोगों को घर-परिवार, समाज और ईश्वर का डर होता है। इसलिए वे कभी गलत काम करने की सोचते भी नहीं हैं। शुभकार्यों को करते हुए वे अपने जीवन में मस्त रहते हैं। जीवन में यदि किसी वस्तु की कमी भी हो, तो उसके लिए परेशान नहीं होते। उन्हें ईश्वर पर भरोसा होता है कि वह सब ठीक कर देगा। यही उनकी मस्ती का प्रमुख कारण होता है।
काले कारनामे करने वाले मनुष्य घर-परिवार, देश, धर्म और समाज के बनाए नियमों के विरुद्ध कार्य करते हैं। ये लोग कहते हैं कि वे किसी से भी नहीं डरते। परन्तु वास्तविकता इसके विपरीत होती है। इन लोगों को दिन के उजाले में भी डर लगता है। ये लोग न्याय-व्यवस्था के दोषी होते हैं, जो कभी भी उसके हत्थे चढ़ जाते हैं। तब उनकी सारी होशियारी धरी की धरी रह जाती है।
मनुष्य के विवेक पर निर्भर करता है कि वह दुनिया को अपना कौन-सा पक्ष दिखाना चाहता है? मेरे विचार में यदि मनुष्य का कोई कृष्णपक्ष है भी, तो वह कभी उसे नहीं दिखाना चाहता। वह केवल अपना शुक्लपक्ष ही दुनिया को दिखाकर वाहवाही लूटना चाहता है। सार रूप में मैं यही कहना चाहती हूँ कि मनुष्य समाज के समक्ष अपना जो भी रूप प्रकट करना चाहता है, उसके अनुरूप उसे कर्म भी करने चाहिए।
चन्द्र प्रभा सूद
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