चोरों से सावधान
'अपने सामान की सुरक्षा स्वयं करो।' या 'जेबकतरों से सावधान।' घूमने-फिरने के स्थान, फिल्म हाल, रेलवे स्टेशन, एयरपोर्ट आदि किसी भी स्थान पर चले जाओ वहाँ ये वाक्य लिखे रहते हैं। इसका तात्पर्य यही है कि मनुष्य चाहे घर पर है अथवा घर से बाहर है, उसे चोर-डाकुओं से सावधान रहने की आवश्यकता होती है। यदि कहीं थोड़ी-सी भी लापरवाही हो जाती है, तो उसे हानि उठानी पड़ जाती है।
मनुष्य अपने घर को सुरक्षित बनाने का हर सम्भव प्रयास करता है। आज वह कच्चे घर में न रहकर सीमेंट, लोहे और ईंटों से अपना मजबूत घर बनाता है। अपनी सुरक्षा को और सुदृढ़ बनाने के लिए वह अपने घर के अन्दर और बाहर सीसीटीवी कैमरे लगवाता है। ताकि वह हर तरफ ध्यान दे सके। अपने धन को बैंक में जमा करता है। अपने खरीदे सोने, हीरे आदि के आभूषणों और आवश्यक कागजों को बैंक के लाकर में रखता है।
चोरों, लुटेरों, जेबकतरों, गला काटने वालों, भ्रष्टाचारियों, चोरबाजारी करने वालों आदि को पकड़ने और सजा देने के लिए ही न्याय-व्यवस्था है। वह उन्हें उनके दोषों के अनुसार ही दण्ड दे देती है। इन लोगों पर वह अंकुश लगा सकने में पूर्णरूपेण सक्षम है। उन लोगों पर विशेष नजर रखने के लिए पुलिस भी सतर्क रहती है। इस तरह इन असामाजिक तत्त्वों पर नकेल कसने का प्रबन्ध किया जाता है।
मनुष्य के मन में आलस्य, ईर्ष्या, द्वेष, हिंसा, नकारात्मक विचार आदि अनेक चोर डेरा जमाकर बैठ जाते हैं। ये सभी चोर मनुष्य का सुख और चैन सब हर लेते हैं। उसे किसी तरह से शान्त होकर नहीं बैठने देते। उन सबसे मनुष्य की रक्षा कौन कर सकता है? इन सबसे बचने के लिए अभेद्य सुरक्षा कवच किस प्रकार बन सकेगा? ये प्रश्न वास्तव में विचारणीय हैं। जिनका हल खोजना ही होगा।
ये सभी नकारात्मक विचार मनुष्य को असफलता की राह पर ले जाते हैं। वह आलसी बनकर आज का काम कल पर टालता रहता है। परन्तु वह कल कभी आ ही पाता। इस तरह मनुष्य जीवन की रेस में पिछड़ जाता है। उस पर नालायक होने या नाकामयाब होने पा ठप्पा लग जाता है। वह स्वयं भी अपनी इस आदत के कारण घर, दफ्तर हर स्थान पर पिछड़कर, तिरस्कृत होता रहता है।
ईर्ष्या और द्वेष आदि चोरों की तरह मनुष्य के अन्तस् में अपना घर बना लेते हैं। उसे हर समय परेशान करते रहते हैं। किसी की अच्छी पोशाक हो, उसका उच्च जीवन स्तर हो, उसका खान-पान अच्छा हो, उसके बच्चे संस्कारित हों, कोई सुन्दर हो, उसका घर, उसकी गाड़ी उनसे बेहतर हो यानी किसी व्यक्ति से ईर्ष्या करने का कोई भी कारण हो सकता है।
इससे दूसरे व्यक्ति का तो कुछ भी नहीं बिगड़ता क्योंकि उसे कुछ पता ही नहीं चलता। पर वह अनावश्यक जल-जलकर अपना नुकसान कर बैठता है। मनुष्यअपने ही मन में घुलता रहता है। अपने ही स्वास्थ्य की हानि कर बैठता है। जितना अपने पास है, उसमें उसे सन्तोष करना चाहिए। मनुष्य नाम का जो यह जीव है, वह दूसरों की होड़ में परेशान रहता है। इसका कारण है, वह सर्वश्रेष्ठ कहलाना चाहता है।
अपनी अनावश्यक इच्छाओं को पूरा करने की आँधी दौड़ में वह कब गलत रास्ते पर चल पड़ता है, उसे पता ही नही चलता। फिर वह स्वयं को सिद्ध करने के लिए हिंसा का मार्ग अपना लेता है। सारी दुनिया पर हकूमत करने की उसकी प्रवृत्ति, अपने विरोध में उठने वाले किसी भी सिर को कुचलने के लिए तैयार हो जाती है। फिर उसका धीरे-धीरे पतन होने लगता है और तब व्यक्ति समाज की आँखों में खटकने लगता है।
मानव की मानवता को दाँव पर लगाने वाले इन सब चोरों से जितना हो सके बचना चाहिए। इन्हें मन में प्रश्रय देने के स्थान पर इनसे किनारा करना बुद्धिमानी कहलाती है। मनुष्य इसीलिए संसार के सभी जीवों से अलग है कि उसके पास बुद्धि है, विवेक है। उसे सोच-विचार करके अपना कदम उठाना चाहिए। बिना विचारे कार्य करके वह अपने ही पैर पर कुल्हाड़ी मारने का कार्य करता है।
चन्द्र प्रभा सूद
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